tag:blogger.com,1999:blog-55462997497517467572024-03-13T23:17:13.227-07:00निठल्ले की डायरीiqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.comBlogger36125tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-10527599585917098762018-02-09T02:36:00.000-08:002018-02-09T02:36:24.639-08:00कितने काम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgt7vEkj3vBuNNeYfw2P2rjkFtJcj0mQJfPDCxY-rBYoReuoHOAuz5ApvktxaVQFETtuoJpXdmGSMshQcUvS_NY1zsjN-W62MQGQaT_M3QaRBQZYkNiU8aLqZ8o7Bn4z8YAHg5UYjWy5Lo/s1600/18664608_10154758848262807_8388215048202088045_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="640" data-original-width="360" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgt7vEkj3vBuNNeYfw2P2rjkFtJcj0mQJfPDCxY-rBYoReuoHOAuz5ApvktxaVQFETtuoJpXdmGSMshQcUvS_NY1zsjN-W62MQGQaT_M3QaRBQZYkNiU8aLqZ8o7Bn4z8YAHg5UYjWy5Lo/s400/18664608_10154758848262807_8388215048202088045_n.jpg" width="225" /></a></div>
<div style="color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="background-color: white;"><span class="highlightNode" style="border-bottom: 1px solid rgba(88, 144, 255, 0.3); font-family: inherit; padding: 0px 1px;">कितने</span> तो <span class="highlightNode" style="border-bottom: 1px solid rgba(88, 144, 255, 0.3); font-family: inherit; padding: 0px 1px;">काम</span></span><br /><span style="background-color: white;">अटके पड़े हैं </span><br /><span style="background-color: white;">घर-धाम </span><span class="text_exposed_show" style="background-color: white; display: inline; font-family: inherit;"><br />आंवले में फल नहीं आते<br />छत में खपरैल दरक गयी हैं<br />दरवाजों पर रंग की पपड़ियाँ<br />उखड़ने लगी हैं<br />पड़ोस के बच्चे बड़े हो गए<br />अपरिचित ही रहकर<br />अब तो सकुचाकर मुस्कुरा जाते हैं<br />नंग-धडंग जिनको डांटा था<br />अमरुद पर कंकर मारने पर<br />यात्राएं जमा होती गयी<br />जैसे संस्मरणों की फेहरिस्त<br />दिमाग के किसी कोने में<br />दोस्त रह गए परे<br />या मिलकर भी न मिले<br />खुलकर<br />निरंतर वर्तमान धकेल चला<br />कितनी कीमती चीज़ों को अतीत में<br />न सीखी सिलाई<br />या बनाना कोई अलग सी चटनी<br />सीखना उर्दू<br />मांझना बांग्ला<br />अंत में बचा, या बचेगा क्या<br />घंटों अन्यमनस्क ढंग से<br />किया गया "उत्पादन"<br />जो खप गया सभ्यता की मशीन में<br />और टीस<br />कि साइकिल नहीं सुधरवाई<br />कि मेला नहीं देखा<br />कि नहीं लिखी<br />दुनिया की सबसे जरूरी किताब.</span></div>
<div style="color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span class="text_exposed_show" style="background-color: white; display: inline; font-family: inherit;"><br /></span></div>
<div style="color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span class="text_exposed_show" style="background-color: white; display: inline; font-family: inherit;">(19 जनवरी 2018)</span></div>
</div>
iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-24231119350492488952017-05-10T07:45:00.003-07:002017-05-10T07:45:22.872-07:00रामपुरा -2, अतीत के आईने में <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">रामपुरा का जो चेहरा मेरे मन में उभरता है, वह सिर्फ अपने अनुभवों पर
ही आधारित नहीं है. अपने परिवार वालों, दोस्तों, बड़ों से सुने और पढ़े पहलुओं का भी
इसमें जुड़ाव है. अरावली के दक्षिणी छोर पर पहाड़ के नीचे बसा है यह क़स्बा. मध्यकाल
में उत्तर-पश्चिम से दक्षिण की ओर आते कारवां यहाँ ठहरते थे, उस दौर की समृद्धि की
कहानियाँ अब यहाँ के खँडहर बयान करते हैं. </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">लेकिन यहाँ का इतिहास तो उससे कहीं और पुराना है, ये इलाका मूल रूप से
भीलों का रहा है, और उन्हीं में से एक सरदार, रामा भील ने इस गाँव को बसाया. बाद
में जैसे- जैसे ताकतवर राजपूत और अन्य मैदानी जातियों का प्रभुत्व बढ़ा, भील पहाड
के ऊपर के गाँवों की और खिसकते गए. आज रामपुरा में भील परिवारों की संख्या नगण्य
है, पिछले साल आसपास के गाँवों में सर्वे करने पर पाया कि वहाँ भील सबसे गरीब और
बुरी हालत में रहते हैं. किसी जमाने में जंगल और प्रकृति से जुडी जीवनशैली और
स्वच्छंद प्रकृति के ये लोग, आज समाज के निचले पायदान पर हैं. जंगल बहुत कम हो गए
हैं और वन विभाग के हाथ में हैं, खेती की ज़मीन इनके पास नहीं के बराबर है, मजदूरी
कर जैसे तैसे अपना काम चलाते हैं. संस्कृति के स्तर पर भी इस इलाके में इनकी भाषा
बहुत पहले विलुप्त हो गयी है और प्रकृति पूजन के रीति रिवाज, भगोरिया जैसे उत्सव
अब कहीं नहीं हैं. आदिवासी जीवन का जो अहम् पहलू उल्लास और प्रकृति से नज़दीकी होता
है, उसे भी मैं नहीं ढूंढ पाया. </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">ये एक सबक है, आदिवासी/प्रकृति आधारित लोगों को समाज, धर्म और
व्यवस्था की ‘मुख्यधारा’ में लाने की बात करने वालों के लिए. स्कूल में मेरे साथ
बंजारा जाति के लड़के भी थे, यह समाज भी अब आधुनिकता के बीच अपनी पहचान और जगह
खोजने को संघर्षरत है. घुमक्कड़ और व्यापारिक जीवन आधुनिकता के साथ ख़त्म कर दिया
गया है, ऐसे में पुलिस और बाकी समाज इन जैसी जातियों को नाहक ही अपराधी घोषित कर
देते हैं, और कई बार हाशिये पर और विकल्पहीन होने के कारण वे उस तरफ धकेल भी दिए
जाते हैं.</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> खैर, समय के साथ रामपुरा एक
बड़ा व्यापारिक केंद्र बन के उभरा और न केवल आसपास की उपजाऊ जमीन के कारण बल्कि,
व्यापारिक पथ पर होने के कारण यहाँ की मंडियां खूब विकसित हुईं. आज भी यहाँ की
गलियों के नाम इसकी गवाही देते हैं कि एक एक सामान के लिए एक पूरा बाज़ार निर्धारित
था. तम्बाखू गली, श्रृंगार गली (बाद में नाम बिगड़ कर सिंघाड़ा गली हो गया), लालबाग,
छोटा बाजार, बड़ा बाजार, धानमंडी जैसे मोहल्ले अब बस इतिहास के गवाह रह गए हैं.
सिलावट (पारंपरिक रूप से राजमिस्त्री), बोहरा, बनियों, स्वर्णकारों की अपेक्षाकृत
बड़ी संख्या भी दिखाती है कि व्यापार, निर्माण का बड़ा केंद्र होने से कारीगर और
व्यापारी जातियां यहाँ जमा हुईं. सत्रहवी शताब्दी में रामपुरा का विकास एक बड़े व्यापारिक
केंद्र के रूप में हुआ, जो अगली दो शताब्दियों तक कायम रहा. विभिन्न राजपूत राज्यों
के एक मनसब/दीवानी रहते हुए बाद में यह इंदौर की होलकर रियासत के अधीन रहा जिन्हें
यहाँ के दीवान भेंट/कर देते थे. रामपुरा के बड़े मंदिर होलकर काल के ही हैं, जिनमें
प्रमुख कल्याणरावजी का मंदिर और जगदीश मंदिर हैं, मध्यकालीन स्थापत्य कला का
उत्कृष्ट उदाहरण ये दोनों मंदिर आज भी स्थानीय लोगों की आस्था के केंद्र हैं. इसके
अलावा रानी का महल (जिसमें उपतहसील कार्यालय हुआ करता था), दीवान साहब का महल, और
किले के भग्नावशेष आज भी इतिहास के लिए एक रोमांच पैदा करते हैं. </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">मेरी पसंदीदा जगह है – पंच देवरिया, पांच मंदिरों का एक प्रांगण जो
बड़े तालाब के किनारे एक शांत कोने में है, आज सभी मंदिरों पर घास और झाड़ियाँ उग
रही हैं, दिन में भी यहाँ सन्नाटा पसरा रहता है, बड़े तालाब के अतिरिक्त पानी
निकलने की जगह (चद्दर) इसके बाजू से गुजरती है उसी से यहाँ की बावडी में पानी आता
है. स्कूल के दिनों में अक्सर मैं यहाँ भटका करता था. चद्दर के दूसरी ओर है एक
विशालकाय खिरनी का पेड़ और दादावाडी, जैन मुनियों के ठहरने का स्थान. दिल्ली की
धूल. शोर और भागमभाग के बीच अगर मुझसे कोई पूछे कि सुकून की तुम्हारी परिकल्पना
क्या है, तो मुझे यही जगह याद आयेगी. </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">पहाड़ के ऊपर एक मंदिर है और एक मस्जिद, और तलहटी में रानी का महल,
मेरा स्कूल और दूसरी तरफ दीवान साहब का महल और बड़ा तालाब. अक्सर स्कूली समय से ही
मुझे लगता था कि रामपुरा इतना विविध, दिलचस्प और ऐतिहासिक है कि इसे पर्यटन स्थल
बनाना चाहिए. अभी भी कितने ही दोस्तों को मैंने इसके बारे में बताया है, इसके फोटो
दिखाकर ललचाया है. </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">लेकिन पिछले कुछ दिनों से कुछ और भी सोच रहा हूँ, अगर ये पर्यटन स्थल
बन गया तो क्या ये नीरवता, शान्ति, सुकून कायम रह पायेगा? आकिर कौन सा ऐसा पर्यटन
स्थल बचा है जहां कचरा, भीडभाड, व्यावसायीकरण, हो-हल्ला नहीं है. जहां हर अनुभव की
एक कीमत न हो और जहां सब कुछ एक ढर्रे पर न चल पडा हो. हम भागभागकर शिमला या जयपुर
पहुँचते हैं, हर जगह फोटो खिंचाते हैं और खाने से लेकर इतिहास के बनावटी अनुभवों
को खरीदते हुए फिर दफ्तरी या दुकानी बोरियत में वापस घुस जाते हैं. हमारा किसी जगह
से जीवंत, रोमांचक, रहस्यों और जिज्ञासाओं से भरा कोई रिश्ता शायद ही बनता हो. मैं
चाहता हूँ कि रामपुरा के खँडहर बचें, उनका इतिहास खंगाला जाए, लेकिन साथ ही यह
नहीं चाहता कि दुकानों और टूरिस्ट गाइडों का शोर, गाड़ियों का धुंआ, होटलों का
दिखावटी वैभव रामपुरा को उसके अपने रहवासियों से ही छीन ले. बड़ी असंभव सी इच्छाएं
हैं मेरी.<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi4F9neSKokNCxrg9lKQldeQCyCcI6XloO2FeflQTlK9sdz5Kmrg0C9AO981XmO__wysn8ZcV0jsQCwvcv7NFOJyOGMWdczFQvUBHHh2LEfiN3nZiqtJ0q4g8-6_jAcLPLu9KmbmDLMItg/s1600/IMG_1257.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi4F9neSKokNCxrg9lKQldeQCyCcI6XloO2FeflQTlK9sdz5Kmrg0C9AO981XmO__wysn8ZcV0jsQCwvcv7NFOJyOGMWdczFQvUBHHh2LEfiN3nZiqtJ0q4g8-6_jAcLPLu9KmbmDLMItg/s320/IMG_1257.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">स्कूल के पास किले का बुर्ज और शहर का दृश्य </td></tr>
</tbody></table>
</span></div>
<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjLNJthn2fuXE4tBOeTYs4wB1EeTfVrQk_jWLT4iBl3yPmeHLG8NK7K7g303MT43uOwnAJaXC_GbHQf8NMHYHjhQ85vDtbPjz_zjx91ajIV7ML3WenhDuJ4WE9e09eve916RPTjCZ9khkY/s1600/IMG_1300.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjLNJthn2fuXE4tBOeTYs4wB1EeTfVrQk_jWLT4iBl3yPmeHLG8NK7K7g303MT43uOwnAJaXC_GbHQf8NMHYHjhQ85vDtbPjz_zjx91ajIV7ML3WenhDuJ4WE9e09eve916RPTjCZ9khkY/s320/IMG_1300.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">पञ्च देवरिया </td></tr>
</tbody></table>
<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhRg-1PBCZyUsoUzqgawhOLrQubcjjjFwqnxsDAylY_w02POExJIEnPjolYWv4r8mJKL0EG-ym2Tu9EaLaLizMJjZoRMhXQiMowMoZ3pNd3uHh5NN94B-E6Xwy7hAXehCqH6VikP7eoeVw/s1600/IMG_1294.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhRg-1PBCZyUsoUzqgawhOLrQubcjjjFwqnxsDAylY_w02POExJIEnPjolYWv4r8mJKL0EG-ym2Tu9EaLaLizMJjZoRMhXQiMowMoZ3pNd3uHh5NN94B-E6Xwy7hAXehCqH6VikP7eoeVw/s320/IMG_1294.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">पहाड़ से बड़े तालाब का दृश्य </td></tr>
</tbody></table>
<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjUef3CTCu2yzG7ENVSNGnSLPIABd4YiGuRNYBXURo8GRfsatyTryI8d1lTTufmgbxI48S93xo3956NKsrHWka8RMuL_pPKJAHfAIn7YpDGsN24UStDmwN_XamTWBkZluy4mbHIOv1lBLc/s1600/IMG_1293.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjUef3CTCu2yzG7ENVSNGnSLPIABd4YiGuRNYBXURo8GRfsatyTryI8d1lTTufmgbxI48S93xo3956NKsrHWka8RMuL_pPKJAHfAIn7YpDGsN24UStDmwN_XamTWBkZluy4mbHIOv1lBLc/s320/IMG_1293.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">पहाड़ पर मस्जिद </td></tr>
</tbody></table>
<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgc2RhJUCrcl0C7SkDkEQkHb_RcZ8yVMbrNe-pgIMQksLXNtv8nVMPxyhWnukQj0ItyZq-WjpkGPilA8LsExkEqqIWrWNAsNlW4jkunX4fRdqMnGa9CtVaXNzkFrZq75v8t1S-67lfW0nk/s1600/IMG_1306.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgc2RhJUCrcl0C7SkDkEQkHb_RcZ8yVMbrNe-pgIMQksLXNtv8nVMPxyhWnukQj0ItyZq-WjpkGPilA8LsExkEqqIWrWNAsNlW4jkunX4fRdqMnGa9CtVaXNzkFrZq75v8t1S-67lfW0nk/s320/IMG_1306.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">बड़े तालाब में पहाड़ की विहंगम परछाई </td></tr>
</tbody></table>
</div>
iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-45206454641284669772017-03-31T05:50:00.000-07:002017-04-15T08:09:23.394-07:00रामपुरा – क्या भूलूँ क्या याद करूँ- 1<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHU9iY1i24k5GGqz8WcRC92Pgzy74iPzUxE4sTI3r9M1ANuq_GS8p84PNHoXBPVMVJVIe71ktlfn0hujQ1LzkXwKT_R7ZA09P9UEurEMvgFEmNXSiJjQeuAWH8SFz_MvWvI8Q89rCq5bs/s1600/027.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHU9iY1i24k5GGqz8WcRC92Pgzy74iPzUxE4sTI3r9M1ANuq_GS8p84PNHoXBPVMVJVIe71ktlfn0hujQ1LzkXwKT_R7ZA09P9UEurEMvgFEmNXSiJjQeuAWH8SFz_MvWvI8Q89rCq5bs/s320/027.JPG" width="320" /></a></div>
<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZMPTSvyVvt8hg71o60Ff8e8S_I8wRh14FHQ5SXQwWBe5H2EioKCq9rso0Z-0CbK6kGmC-D6sHJApdc3bH3dGmyhlR169ZZmTHcydIapfpujQkz90DXZu4yN17pXMIFCPjhzLUoBK6Cko/s1600/041.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZMPTSvyVvt8hg71o60Ff8e8S_I8wRh14FHQ5SXQwWBe5H2EioKCq9rso0Z-0CbK6kGmC-D6sHJApdc3bH3dGmyhlR169ZZmTHcydIapfpujQkz90DXZu4yN17pXMIFCPjhzLUoBK6Cko/s320/041.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">आदरणीय लक्कड़ सर </td></tr>
</tbody></table>
<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg5a3uOPG_twm670STqP1zxJDSrTGRlXXA2KveVyyoECnLEyC2JX66vkfcvTM_FoYBO2QZcCCG221eTNNE5amu0KH9OVMEyMzNziiITo05AGhpcCkHThe2v1Xcr7GDP8R6fl2ix5NoFyzc/s1600/054.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg5a3uOPG_twm670STqP1zxJDSrTGRlXXA2KveVyyoECnLEyC2JX66vkfcvTM_FoYBO2QZcCCG221eTNNE5amu0KH9OVMEyMzNziiITo05AGhpcCkHThe2v1Xcr7GDP8R6fl2ix5NoFyzc/s320/054.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">अपना घर (पहली मंजिल पर)</td></tr>
</tbody></table>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"><br />जो उंगलियाँ गर्मी की छुट्टियों में अष्टा-चंगा-पै खेलने के लिए मचलती रहती थीं,
आज की बोर्ड पर आकर ठहर गयी हैं. हमें उस खेल के लिए इमली के बीजे (चिंये) कभी कम
नहीं पड़ते थे. वैसे मेरी दीदी इमलियों की दीवानी थी, एक बार में सौ ग्राम इमलियाँ
खा डालती थी, इसीलिये दादी सीढ़ियों के नीचे वाली कोठरी में छुपा कर रखती थीं. ये
कोठरी मेरे लिए एक रहस्यमयी तहखाने जैसी थी, अलग अलग तरह की मन ललचाती चीज़ें,
इमलियाँ, खजूर, पापड़, कभी कभी मेवे, लेकिन साथ ही घुप्प अँधेरा और उसमे बंद रह
जाने का डर. शायद जब मैं बहुत छोटा था चार – पांच साल का तब मुझे इसमें बंद कर दिए
जाने की धमकियां भी मिली होंगी. रामपुरा का अपना घर वैसे इतनी भी प्राचीन बात नहीं
है, </span>2007 <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">तक चार
साल रहा हूँ इसमें और 2008 में आख़िरी बार वहाँ सामान बाँधने में दादी की मदद की
थी. लेकिन जब रामपुरा को याद करने बैठता हूँ तो सबसे पहले याद आती हैं गर्मी की
छुट्टियाँ और वो विशाल, हवादार आंगनों, छतों और खिडकियों से भरा घर जहां मेरे दादा
दादी ने 37 साल गुजारे, किराये पर.</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"><br />भोपाल से एक बस चलती है, पहले मुख्य बस स्टैंड से चलती थी, अब लालघाटी से, ‘भोपाल-
नीमच’. ये सुबह साढ़े सात बजे चलती है, और सबसे पहले आता है नरसिंहगढ़, जहां पहाडी चढ़कर संकरी गलियों में से गुजरकर बसस्टैंड
आता है, किला भी दिखता है. फिर </span><span style="font-family: mangal, serif; font-size: 13.3333px;">ब्यावरा, हाइवे का क़स्बा है. </span><span style="font-family: mangal, serif; font-size: 10pt;">फिर राजगढ़, जहां मेरी दादी का मायका है और ढेरों रिश्तेदार
हैं, दादी और पिता से सुनी कहानियाँ हैं, लेकिन उतरा एक ही बार हूँ, खिलचीपुर होते
हुए फिर एक बजे आता है अकलेरा, जहां हम अक्सर आम खरीदा करते थे और मैं झूठी तसल्ली
से भर जाता था कि आधा रास्ता कट गया अब जल्दी पहुंचेंगे. अचानक राजस्थान शुरू हो
जाता है. झालावाड के बाद फिर अरावली में झूमते झामते, बबूल के पेड़ों और चट्टानों
में से होकर भानपुरा आने के बाद रास्ता अथाह लगने लगता है. इस बीच मूंगफली आप खा
चुके होते हैं और अखबार में विज्ञापन पढ़ चुके होते हैं. पसीने से तरबतर भीड़ चढ़ती
उतरती रहती है, साफा बांधे बासाब और लुगड़ा पहने माँसाब कंडक्टर से बहस कर चुके
होते हैं. गांधी सागर आने पर नज़ारा बदलता है और नदी की तरफ वाली खिड़की के लिए मन
मचलता है. अंत में बेसला पहुँचते पहुँचते मन बस में नहीं रहता, मैं सड़क के मोड़
गिनने लगता हूँ, हम ये दोहराते हैं कि रामपुरा में मिलने वाले सिंघाड़े बेसला के
तालाब से ही आते हैं. गांधी सागर के पानी में ढलती शाम की लाली झलकते हुए देखते हुए साढ़े छह बजे
रामपूरा पहुँचते हैं. जहां बस स्टैंड पर ‘मधुशालाएँ’ खुली हुई हैं. इससे पहले कि
आप मत्त हो उठें, ये गन्ने के रस की दुकाने हैं जहां शाम को टहलने के बाद लोग
पहुँचते हैं. फिर एक ठेले पर सामान लादा जाता है और हम पहुँचते हैं 6, मोहिजपुरा, बड़ी
बड़ी सीढियां चढ़कर पहली मंजिल पर जहां दादा दादी हमारा इंतज़ार कर रहे होते हैं.</span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"><br />
रामपुरा पहुंचना आसान नहीं है, और रामपुरा से निकलना भी. अगर आप रामपुरा से निकल
भी जाएँ तो रामपुरा आपके अन्दर से नहीं निकलता. अभी भी मेरी, दीदी की, बुआओं/ काका
की जुबां अक्सर फिसल जाती है, हम कह पड़ते हैं कि रामपुरा जाना है. किसी भी ट्रेन
से लगभग दो- तीन घंटे दूर और मुख्य लाइन के स्टेशनों जैसे रतलाम/कोटा से चार पांच
घंटे दूर, हम अक्सर मजाक में कहा करते थे कि रामपुरा ‘खड्डे’ में है. ये खड्डा
सिर्फ यातायात का नहीं था, अवसरों का भी था. सरकारी नौकरी में वहाँ रहे लोग नब्बे
के दशक आते आते वहाँ से तबादला कराने को लालायित रहते थे, प्रमोशन, बच्चों के लिए
प्राइवेट स्कूल, शौपिंग, अच्छा अस्पताल, ये सब वहाँ नहीं था. वहाँ था देशी पालक,
शक्कर से मीठे सीताफल, खिरनी, सुनसान लेकिन अपनी सी लगती गलियाँ, एक तरफ पहाड़ और
दूसरी तरफ विशाल जलराशि, अनगिनत मंदिर और मस्जिद और अनगिनत किस्से, जीवन के और
जीवटता के. <br />
<br />
अपवाद भी थे, दादाजी (डॉ रामप्रताप गुप्ता) और लक्कड़ साब (श्री अरविन्दकुमार जी
लक्कड़, मेरे प्रधानाध्यापक) दो ऐसे ही अपवाद थे, कि इन्हें रामपुरा और रामपुरा को
ये बहुत प्रिय हुए. तबादला होने पर लोगों ने बार बार रुकवा दिया. इनकी बदौलत
रामपुरा का स्कूल और कॉलेज निजीकरण के साथ साथ सरकारी संस्थानों में आयी गिरावट को
एक दो दशकों तक रोके रहे और कितने ही लोगों ने इनसे पढ़कर बहुत आगे तक का सफ़र तय
किया. दादाजी 93 में रिटायर होकर भी और पंद्रह साल वहीं रहे और स्वास्थ्य, शिक्षा
और पर्यावरण के क्षेत्र में काम करते रहे, उनकी बदौलत मैं रामपुरा में जितने लोगों
को जानता हूँ उससे कई गुना लोग मुझे जानते हैं. <br />
<br />
लक्कड़ सर के साथ पिछले साल एक सर्वे के दौरान बाज़ार में चलने का अनुभव हुआ, और ये
महसूस किया कि एक अच्छा शिक्षक कितनी जिंदगियों को छूता है. मुझे ऐसा लगा कि उनके
साथ चल पाना भी ऐसी उपलब्धि है जिसे मैं हासिल करने लायक नहीं हूँ. इन्होने कितने
छात्रों को घर पर अलग से पढाया (जिसमें मैं भी शामिल हूँ), आर्थिक मदद दी, और अपनी
डांट और छुपे हुए प्रेम से कितने ही छात्रों को ‘लाइन पर’ लाए. ये सरकारी स्कूल के
ज्यादातर छात्रों का अनुभव रहा है कि 14 से 18 साल की उम्र तक हम सर से थर- थर
कांपते हैं और बाद में उन्हें बेहद अपनेपन और आदर से याद करते हैं. </span></div>
</div>
iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-88129031732564201952016-06-13T02:54:00.004-07:002016-06-13T02:55:42.754-07:00जे एन यू में राजकीय दमन (भाग 2) <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal">
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjDYIdeOUrAC_SYv-vqBR6_GnlyLqQnIZH1FgEAxx7qmpVOhYj5EL7Z_lqhLCB6PTA_cgSMlIUO8o_j-O1ONjcJDXHs1W2z4tdmU5Wo9gThD1m9KUMh9s6VTrT59VHanEY_pfFCyhB7i8Y/s1600/2016_2%2524largeimg16_Tuesday_2016_114839880.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="236" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjDYIdeOUrAC_SYv-vqBR6_GnlyLqQnIZH1FgEAxx7qmpVOhYj5EL7Z_lqhLCB6PTA_cgSMlIUO8o_j-O1ONjcJDXHs1W2z4tdmU5Wo9gThD1m9KUMh9s6VTrT59VHanEY_pfFCyhB7i8Y/s400/2016_2%2524largeimg16_Tuesday_2016_114839880.JPG" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">फोटो दैनिक ट्रिब्यून से </td></tr>
</tbody></table>
</div>
<h4 style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">(<a href="http://nithallekidiary.blogspot.in/2016/06/1.html" target="_blank">पिछले भाग</a> से आगे) </span></h4>
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">इसके
बावजूद दिनों दिन हमले बढ़ते गए. गृहमंत्री ने हमें हाफ़िज़ सईद से जोड़ा, किसी साध्वी
ने हमारी फंडिंग को पाकिस्तान से आने वाला बताया, और हमारी जुबां काटने, हमें गोली
मांगने की आवाजें मुख्यधारा के मीडिया में जगह पाने लगीं, (जो कन्हैया के भाषण के
बाद तक जारी हैं). अचानक जे एन यू के छात्रों पर खर्च होने वाली सब्सिडी के आंकड़े
बताये जाने लगे – देखो ये ‘हमारा’ पैसा है जिस पर ‘ये’ पढ़ते हैं. शायद यह सही मौका
था कि कम फीस वाले आख़िरी केन्द्रीय विश्वविद्यालय की फीस भी बढ़वाई जा सकती है,
ताकि गरीब, पिछड़े, दलित और दूर दराज़ से आने वाले छात्र न पढ़ पायें. उन्हीं के
बच्चे महंगे और निजी विश्वविद्यालयों में जाएँ, जो ट्विटर और मीडिया का मानस बनाने
की क्षमता रखते हैं, जिन्हें कम फीस खटकती है, और जो ये भूल जाते हैं कि टैक्स
गरीब भी देते हैं और सब्सिडी उद्योगपतियों को भी मिलती है. वे टीवी के एंकर और खाए
पिए विशेषज्ञ हमारे दुश्मन बन गए, जो यहाँ की राजनीति, बहस, और संवाद को या तो
नहीं जानते थे, या उसे अपने लिए खतरा मानते थे. <br />
रोज नए नए बयान आते थे, रोज़ नए नए छात्रों की ‘आतंकी प्रोफाइल’ बनायी जाती थी.
बहुत से कम समझ वाले या कम पढ़े लिखे माँ बाप अपने बच्चों को फोन कर करके पूछते थे –
‘’क्या जे एन यू में बम बन रहा है?’’ आखिर ‘मास्टरमाइण्ड’ और ‘टेरर लिंक्स’ जैसी
शब्दावली का यही असर होना था. <br />
<br />
हमने अगले दिन मानव श्रृंखला बनायी, जिसमें फिर तीन हजार छात्र और शिक्षक जुटे,
बार बार कहा गया कि नारों से सबकी सहमति नहीं है, लेकिन नारे राष्ट्रद्रोह नहीं
है, हम आतंकवादी नहीं हैं. लेकिन नतीजा कुछ निकलता नहीं दिखता था. मीडिया और सरकार
का दुश्चक्र तोडना नामुमकिन सा लग रहा था. सारा समय सर घूमता रहता, रात को नींद
नहीं आती, एक दूसरे को मिलते समय छात्र यही पूछते ‘क्या हो रहा है?’ ‘अब आगे क्या
होगा?’. सिर्फ एक ही जगह थोडा सुकून मिलता – उन सीढ़ियों के आगे, जहां पता लगता कि
धीरे धीरे बाहर भी लोग हमारे समर्थन में बोलने लगे हैं, डर- डर कर ही सही. इसमें
दूसरे विश्वविद्यालयों के छात्र और शिक्षक खुलकर सामने आये, जिन्हें पता था कि अगर
इस हमले का विरोध नहीं किया गया तो कल उन पर भी दमन हो सकता है, इसके अलावा वे भी
सामने आये जो पहले से ही सरकार और मीडिया के दमन से परेशान थे, अलग अलग रूपों में
इसे झेल चुके थे. कुछ अखबारों में भी अन्य आवाजों को जगह मिलनी शुरू हुई, जिसमें
दूसरा पक्ष लोग रख पा रहे थे. <br />
<br />
इसके बाद बड़ा घटनाक्रम हुआ कि कन्हैया को अदालत में पेश किये जाने और सुनवाई को
देखने गए लोगों, छात्रों और शिक्षकों पर काले कोट पहने लोगों और कुछ राजनैतिक
कार्यकर्ताओं का भी हमला और मारपीट हुई, साथ में मीडियाकर्मियों पर भी. इससे हम और
सदमे में पहुँच गए. आखिर अदालत में भी सुनवाई नहीं, वहाँ भी घूंसों की भाषा चलने
लगी? पुलिस मूकदर्शक थी, वही पुलिस जो हमें राष्ट्रद्रोही ठहराने के लिए अदालती
कार्यवाही से भी पहले बार बार मीडिया में बयान दे रही थी, सबूत हैं, केस सही है,
आदि साबित करने में लगी हुई थी. जब तक इससे उबर पाते, अगले दिन फिर उन्हीं लोगों
ने बिना किसी डर और पछतावे के कन्हैया को पीटा और एक बार फिर पुलिस इस पर कोई
कार्यवाही करने में नाकाम रही और कार्यवाही करने की इच्छाशक्ति भी सरकार और पुलिस
ने नहीं दिखाई. (बल्कि आज भी इस मामले में सारे आरोपी खुले घूम रहे हैं, उन्हें
कोई बाधा नहीं है, ज्यादातर गिरफ्तार भी नहीं हुए) शायद सरकार और कट्टरपंथी ताकतों
से जुड़े संगठनों के उकसावे पर रोज जे एन यू के मुख्य द्वार पर कई लोग झंडा लहराते
जमा हो जाते, मुट्ठियाँ तानते, बैरिकेड लांघ कर अन्दर घुसने की धमकी देते, कैमरों
पर चीख चीख कर नकली और उन्मादी राष्ट्रवाद का प्रदर्शन करते. गेट बंद रहता, अन्दर
बसें नहीं आती जाती. यह गर्व का विषय हो चला था कि जे एन यू के तथाकथित
देशद्रोहियों को मार देने, उखाड़ देने और देख लेने की धमकी दी जाए. इस माहौल में
जीना सच में वही समझ सकता है जिसने यह झेला हो. <br />
आखिरकार देश के कुछ लोगों को समझ में आने लगा कि जे एन यू के साथ हो रहा व्यवहार
ठीक नहीं है, सामान्य नहीं है. लोकतंत्र और न्याय में मारपीट और मनमानी की छूट
नहीं दी जा सकती. आवाजें बढीं और आखिरकार टीवी मीडिया में भी रविश कुमार के वापस
आने के साथ एक आवाज़ तो आयी जो हमारा पक्ष भी देख पा रही थे. इस मारपीट को कोई भी सही
ठहरा पाने में सक्षम नहीं था. अट्ठारह फरवरी को हिम्मत जुटाकर हम कैम्पस के बाहर
निकले. (इससे पहले जे एन यू के खिलाफ दिल्ली में बेहद गंदा माहौल था, खुले आम जे
एन यू का नाम सुनते ही ताने और धमकियां दी जाती थीं, जश्न – ए – रेख्ता नामक उर्दू
के सरकारी कार्यक्रम में से दिल्ली पुलिस ने तीन छात्रों को सिर्फ इसलिए उठा लिया
था क्यूंकि वो ‘जे एन यू जैसे दिखते थे – उनकी दाढी थी और उनके बैग से एक लाल झंडा
निकला था’; और बहुत दबाव के बाद शाम को उनको ‘पूछताछ के बाद’ छोड़ा गया था. किराए
पर बाहर रह रहे जे एन यू के कुछ छात्रों को मकान मालिकों ने घर खाली करने या पुलिस
से फिर से वेरिफिकेशन करवाने को कहा था.) जब बाहर निकले तो देखा कि एक सैलाब सा
आया, चार हज़ार छात्र कैम्पस से और करीब आठ दस हज़ार लोग बाहर से आये थे. हमने मंडी
हाउस से संसद की तरफ कूच किया, टीवी चैनल वालों को गुलाब देकर उनकी सद्बुद्धि की
कामना की गयी, अनेकों झंडे लहराए गए, जिनमें लाल, नीला और तिरंगा शामिल थे. हमने
अपनी तख्तियों पर लिखा कि कन्हैया, उमर, अनिर्बान, आशुतोष, रमा या और भी कोई न तो
देशद्रोही है, न आतंकवादी. हम छात्र हैं जो आपस में बहस करते हैं, जो देश और समाज
के मुद्दों की समझ रखते हैं. जो रोहित वेमुला की मौत के कारणों को ख़त्म करना चाहते
हैं, उस साज़िश को बेनकाब करना चाहते हैं. जो स्कालरशिप बंद करने के खिलाफ सड़क पर
उतरते हैं. राजद्रोह की धारा अक्सर ऐसे ही लोगों पर लगाई जाती है जो सरकार के लिए
असुविधाजनक सचों को बोलने लगते हैं. इसके बाद का आन्दोलन एक इतिहास सा है, बाकी
छात्र भी निकलकर बाहर आये और अपने बयान या गिरफ्तारियां पुलिस को दीं. उनको कुछ
भरोसा आया कि इस देश में न्याय होने की गुंजाइश अभी भी बाकी है क्यूंकि लोग
गुंडागर्दी और तानाशाही के खिलाफ एकजुट हो सकते हैं. दो और बड़े जुलूस हुए, एक
रोहित वेमुला के मुद्दे को जोड़ते हुए और एक कन्हैया की जमानत को लेकर.<br />
<br />
अब हम रोज राष्ट्र और राष्ट्रवाद, इस देश के ज्वलंत मुद्दों, चाहे वो आर्थिक हों,
राजनैतिक हों या सामजिक, सभी पर खुले आसमान के नीचे बहस करते हैं, वक्ताओं को
बुलाते हैं, जिनमें अलग अलग धारा के लोग होते हैं, आपस में बहस भी होती है. हम यह
कहना चाहते हैं कि हमारा राष्ट्र हम सभी का है, जिस पर बात करने की भी जरूरत है, सरकार से और सत्ता से सवाल
पूछने की भी जरूरत है. यही काम हम पहले भी कर रहे थे, जिसके कारण हम पर दमन हुआ
है. कन्हैया की जमानत के बाद उसके भाषण को मजबूरी में सभी चैनलों और मीडिया को
दिखाना पड़ा, क्यूंकि हमारी आवाज़ को नज़रंदाज़ करना नामुमकिन था. उस भाषण ने दिमागों
पर जमे कोहरे को कुछ हद तक साफ़ किया है, हालांकि इस पूरे मामले में जे एन यू,
छात्रों और छात्र राजनीति के प्रति पैदा की गयी घृणा को हटाने में शायद सालों की
मेहनत लगेगी. बात साफ़ हो गयी कि सरकार और व्यवस्था की बुराइयों का विरोध करना, हर
एक मुद्दे पर खुली बहस कर राय बनाना, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की बात करना आज के
समय में इतना खतरनाक है कि आपको जेल में डाला जा सकता है, पीटा जा सकता है और
बदनाम किया जा सकता है. हम जुलूस भी निकलते रहेंगे, इस लड़ाई को देश की बाकी
लडाइयों से जोड़ा जायेगा, प्रतिरोध की एकता बनाने की कोशिश होगी. <br />
<br />
हमारा संघर्ष तब तक चलेगा जब तक सभी साथी रिहा नहीं होते, सभी मुक़दमे वापस नहीं
होते, विश्वविद्यालय से निलंबित छात्रों को ससम्मान वापस नहीं लिया जाता, उन
अधिकारियों पर कार्यवाही नहीं होती जो हमारे नियमों पर चलने, साख बचाने के बजाय
पुलिस और सत्ता के इशारों पर कार्यवाही कर रहे थे और बयान दे रहे थे. पुलिस,
मीडिया के एक बड़े हिस्से और हमला करने वाले तथाकथित वकीलों – राजनेताओं पर भी
कार्यवाही होनी चाहिए. यह भी स्पष्ट है कि एबीवीपी ने पहले से ही मीडिया को बुला
लिया था और उनकी योजना जे एन यू प्रशासन के साथ मिलकर कुछ छात्रों पर दमन करवाने
और विश्वविद्यालय के आंदोलित और प्रगतिशील चरित्र को ख़त्म करने की थी. यह नया नहीं
है, ऍफ़टीआईआई, हैदराबाद केन्द्रीय विश्विद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, अलीगढ़,
चेन्नई आइआइटी.. यह सूची लम्बी होती जाती है. जहां से भी अन्याय, शिक्षा के
बाजारीकरण और खात्मे, सरकार के छात्रविरोधी क़दमों पर आवाज़ उठी है, उसके जवाब में
सरकार, सरकारी मशीनरी और सत्ताधारी पार्टी से जुड़े संगठनों ने अलग अलग बहानों से
वहां हमले किये हैं. <br />
<br />
मेरी व्यक्तिगत समझ इस आन्दोलन से और मजबूत हुई है, एक समूह के रूप में भी हम सब
और परिपक्व हो गए हैं. इस आन्दोलन ने कैम्पस के ज्यादातर छात्रों का राजनीतिकरण
किया है, यह शायद इससे पाया हुआ हमारा एकमात्र हासिल है. आखिर इस देश के सिर्फ 6%
लोग ही उच्च शिक्षा संस्थानों तक पहुँच पाते हैं, यह हमारी एक प्रिविलेज (विशेष
सुविधा) है. हम ही हैं जो न सिर्फ पढ़- लिखकर, बहस करके, सोचकर यह तय कर सकते हैं
कि देश और समाज में क्या ठीक नहीं हो रहा है और उसे बेहतर कैसे किया जा सकता है.
हम कठिन और नए सवालों पर बहस कर सकते हैं. सबसे महत्वपूर्ण यह है कि आगे चलकर
हमारे ही कन्धों पर यह ज़िम्मेदारी है कि हम यहाँ से बाहर निकलने और देश के हर दबे-
कुचले, गरीब, शोषित और संघर्षशील तबके के साथ खड़े हों, यह हमारी नैतिक और राजनैतिक
जिम्मेदारी है. शिक्षा का मतलब अगर सिर्फ करियर और पैसा कमाना होता तो वह दुकानों
में मिल सकती थी, वैसा ही आजकल चलन भी चल पडा है. शिक्षा का मकसद वास्तव में इस
ज्ञान, सुविधाओं को हर एक तक पहुँचाना है, जो हमें मिला है; उसे समाज को लौटाना
है, यह समझ अब हममें आ रही हैं.</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;"></span></div>
iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-55950602371322234222016-06-12T10:49:00.003-07:002016-06-12T10:51:57.775-07:00जे एन यू में राजकीय दमन : एक आँखों देखी (भाग 1) <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h4 style="text-align: left;">
<span style="font-family: inherit;"><i>यह लेख/रपट जल्दी में एक मराठी अखबार के लिए लिखी थी, दस मार्च के आसपास, वहां तो छप नहीं पायी, मैनेजमेंट का दबाव रहता है, तो सोचा यहीं पर डाल देता हूँ. देर से ही सही - इकबाल </i></span></h4>
<div>
<span style="font-family: inherit;"><i> </i></span><span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12pt; line-height: 115%;">10 फरवरी की रात, दस दिन तक मध्यप्रदेश के एक छोटे
कसबे रामपुरा के आसपास के गाँवों में सर्वे करने के बाद विदाई की बेला में हम युवा
साथी गा-बजा रहे थे. अचानक दोस्त संदीप ने कहा ‘अरे इकबाल भाई, आपके जे एन यू में
क्या हो गया?’ मैं कई दिनों से समाचार माध्यमों से कटा हुआ था- मेरे पास
स्मार्टफोन, व्हाट्सऐप वगैरह भी नहीं हैं.</span><span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12pt; line-height: 115%;">
</span><span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12pt; line-height: 115%;">इसलिए मैं चौंका – मैनें कहा – ‘’क्या हुआ है भाई?’’ तो उसने कहा कि वहाँ
कुछ बहुत गलत हो रहा है, देश को तोड़ने की बात हो रही है, देशद्रोह हो रहा है.
मैंने पूछा ‘कैसे पता?’ तो उसने कहा कि मीडिया में वीडियो चल रहा है, अफज़ल गुरु के
लिए कार्यक्रम हुआ है वगैरह. मैनें इसे ज्यादा तूल नहीं दिया, क्योंकि इससे पहले
भी मीडिया के कुछ हिस्सों में जे एन यू को लेकर दुष्प्रचार </span><span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12pt; line-height: 18.4px;">चलता रहा है, व पहले भी एबीवीपी अनेक कार्यक्रमों में हंगामा करती रही है. </span></div>
<div>
<span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12pt; line-height: 115%;"><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimiTP25xrHi7M12wqvGpNuY8TGSBf3HD59egkLmRF-Qk-duMn29nOzKN5Y7agD6g5f_azPU0DuAyQMBbg8RzBRbOk09oFT-wUtFL9cVH4wvoc5AKbJJDs3ztpStd3qx6f6btQW_f3K7p4/s1600/jnu-lead.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="221" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimiTP25xrHi7M12wqvGpNuY8TGSBf3HD59egkLmRF-Qk-duMn29nOzKN5Y7agD6g5f_azPU0DuAyQMBbg8RzBRbOk09oFT-wUtFL9cVH4wvoc5AKbJJDs3ztpStd3qx6f6btQW_f3K7p4/s400/jnu-lead.jpg" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">(फोटो इन्डियन एक्सप्रेस से)<br />
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
</td></tr>
</tbody></table>
</span></div>
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">
अगले दिन तक फेसबुक एवं अन्य माध्यमों से मुझे धीरे धीरे समझ में आने लगा कि कैसे
इस घटना ने एक सुनियोजित अभियान का रूप ले लिया है. टीवी चैनलों पे एकतरफा हमले
होने लगे, पूरे जे एन यू को देशद्रोहियों का ‘अड्डा’ और आतंकवादियों का ‘गढ़’ बताने
के लिए मीडिया कर्मी, चिल्लाने लगे. जो छात्र अपनी बात रखने स्टूडियो पहुंचे
उन्हें सुना नहीं गया और वहीं फैसला कर दिया गया कि वे जो कह रहे हैं वह देशद्रोह
है. कुछ वीडियो, उनके संपादित हिस्से बार बार चलाये गए, जिनमें से ज्यादातर बाद
में तोड़े-मरोड़े हुए निकले. चूंकि चैनलों का मैनेजमेंट सत्ता और बाज़ार के मुनाफे के
संतुलन पर टिका होता है, उन्हें यह मौका ठीक लगा एक ऐसे समूह पर हमला बोलने का,
जिसकी आवाज़ बाज़ार और सत्ता के खिलाफ बुलंद हो रही थी. <br />
<br />
12 तारीख को ट्रेन में दिल्ली जाते हुए, मेरा दिल बैठा जा रहा था; मैं देख चुका था
कि चैनल मेरे विश्वविद्यालय के प्रति एक उन्माद का माहौल बनाने में सफल रहे हैं.
लोगों की आपसी बातचीत में ‘जेएनयू’ और ‘देशद्रोह’ जैसे जुमले सुनने को मिल रहे थे.
तब अचानक लैपटॉप में फेसबुक से पता चला और फिर मैनें घबराहट में अनेकों दोस्तों को
फ़ोन लगाए – कि कैम्पस में पुलिस की रेड हो रही है, सादे भेष में पुलिस वाले पूरे
कैम्पस में फैल गए हैं, अनेकों होस्टलों में छापे पड़े हैं – हमारे छात्रसंघ के
अध्यक्ष कन्हैया कुमार को पुलिस उठाकर ले गयी है. विश्वविद्यालय प्रशासन ने पुलिस
को खुला आमंत्रण दिया है और छात्रों के नाम-पते भी सौंपे हैं. मेरे दिमाग में एक
ही शब्द गूंजने लगा – ‘आपातकाल’, क्यूंकि इसी कैम्पस के किस्से अपने पिता (वे यहीं
पढ़े थे) और उनके दोस्तों से सुनते हुए मुझे पता चला था कि आपातकाल में कैसे पुलिस
रातों रात छपे मारकर छात्रों को गिरफ्तार कर लेती थी और उन्हें भागकर इधर उधर
छुपना पड़ता था. भय और अविश्वास का माहौल पूरे कैम्पस पर छाया रहता था, आज शायद फिर
वैसी ही घड़ी आयी थी. मैनें अपनी मां को फोन किया और अपने डर और गुस्से के बारे में
बताया. मेरी मां, जो खुद एक कार्यकर्ता है और देश दुनिया के मामलों पर पकड़ रखती
है, उतनी ही गुस्सा हुई जितना मैं, उन्होंने कहा ‘क्या मुझे भी वे गिरफ्तार कर
लेंगे? मैं भी कई बातों पर अलग राय रखती हूँ.’<br />
<br />
अनेकों फोन आये, मुझसे पूछा गया कि क्या हो रहा है? लोगों का गुस्सा और असमंजस मुझ
तक पहुंचा जिसका मैं यही जवाब दे सकता था कि अभी तो मैं ट्रेन में हूँ. कैम्पस में
जिसे भी फोन किया वह यही बता पाया कि कन्हैया गिरफ्तार हो गया है, और छापे पड़े
हैं. इससे ज्यादा जानकारी किसी को नहीं थी.<br />
</span><br />
<div>
<span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12pt; line-height: 115%;"> </span><span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12pt; line-height: 115%;">मन ही मन हैरान परेशान मैंने किसी तरह रात
काटी और सुबह 13 तारीख को जे एन यू पहुंचा. फिर बात करते – करते, शाम को प्रशासनिक
भवन पहुँचने तक बातें साफ़ हुईं. उस दिन कुछ नेता भी पहुंचे, कैम्पस के बाहर से,
अखबारों में ख़बरें पढीं, चैनल तो न देखने का फैसला मैं ले चुका था. ये पता चला कि
नौ फरवरी को एक कार्यक्रम - वहाँ एबीवीपी के हंगामे, उसकी शिकायत पर भाजपा सांसद
के किये ऍफ़ आई आर और सबसे ज्यादा मीडिया के अभियान के चलते पूरे जे एन यू को बंद
करने की मांग हो रही है, गिरफ्तारियां हुई हैं, देशद्रोह के मुक़दमे दायर किये गए
हैं, कन्हैया गिरफ्तार है और बाकी कई छात्र छुपते फिर रहे हैं. जे एन यू के
रजिस्ट्रार और उपकुलपति (वीसी) ने आठ छात्रों को जांच से पहले ही निलंबित कर दिया
है और एक ऐसी जांच समिति बनायी है जिसमें उनके पसंदीदा लोग हैं, न कि अलग अलग
संस्थानों के शिक्षक. मीटिंग में पहुँचने के बार जब वहाँ उमड़ते छात्रों को देखा तो
कुछ राहत मिली, बिना किसी अभियान या आह्वान के करीब दो-ढाई हज़ार से ज्यादा छात्र
छात्राएं वहाँ जमा थे, (इससे पहले पिछली रात को जे एन यू शिक्षक संघ के आह्वान पर
आये जुलूस में भी सैकड़ों छात्र पहुंचे थे). चेहरों पर हवाइयां उड़ रही थीं. सब
रुआंसे और चुप थे, हालांकि नारे जरूर लगाते थे जब छात्रसंघ और हमारे नेता शुरुआत
करते. सबके घर से फोन आये थे, मां – बाप ने पूछताछ की थी और डांटा था, (कई छात्रों
की घरवालों से बातचीत बंद हो गयी) पढ़ाई –लिखाई ठप पडी थी, सोशल मीडिया पर गंदी
गंदी गालियाँ पड़ रही थीं. अगर आप जे एन यू से हैं, तो फिर आप वामपंथी हों,
समाजवादी हों, या कांग्रेसी, या दक्षिणपंथी, आप राजनैतिक हों या करियर पर ध्यान
देने वाले, लड़के हों या लडकी, घटना की जानकारी हो या न हो; कोई कुछ सुनने को तैयार
नहीं था, आप देशद्रोही घोषित कर दिए गए थे. आपकी यूनिवर्सिटी को बंद करने की मांग
न केवल सोशल मीडिया बल्कि अखबारों में कई ‘विचारक’ करने लगे थे. आपकी पढ़ाई, मेहनत,
विचार, सब को एक झटके में ख़त्म कर दिया जाना संभव लग रहा था. यही कारण है कि उस
दिन और उसके बाद से हर रोज प्रशासनिक भवन की उन सीढ़ियों पर (जो अब कन्हैया के भाषण
के दिखाए जाने के बाद बहुत पहचानी जाने लगी हैं). मैंने बहुत से चेहरों को देखा जो
पहली बार किसी राजनैतिक बहस का हिस्सा बनाने आये थे, जो अब तक सिर्फ कक्षाओं और
लाइब्रेरी में ही दिखाई देते थे. मैनें शिक्षकों को देखा जो अपनी नौकरियों, और
कक्षाओं की चिंता छोड़कर हमारे साथ खड़े थे, मैनें कई कर्मचारियों को भी देखा. सत्ता,
मीडिया और राष्ट्रवाद के नाम पर मुनाफा कमाने वाली राजनीति ने एक ही झटके में हम
सब को एक तरफ खडा कर दिया था और खुद को दूसरी तरफ. उस दिन के जमावड़े में लगा कि
चलो कुछ लोग तो अपने साथ हैं, ऐसा नहीं है कि मैं अकेला ही असहाय, निहत्था कैमरों
और पुलिस की बन्दूक की नोक पर खडा कर दिया गया हूँ, मुझे बिना कुछ कहने का मौका
दिए बस चिल्लाया जा रहा है ‘देशद्रोही !!’ ‘देशद्रोही !!’ ‘गद्दार!!</span><span style="font-family: inherit;"><i> (जारी .......) </i></span></div>
</div>
iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-15627112520202326622014-12-24T21:24:00.000-08:002014-12-24T21:25:46.485-08:00कुछ वक़्त और<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
कुछ वक़्त और <br />
<br />
वक़्त ढहता गया<br />
ताश के पत्तों का एक महल<br />
जिस पर मैं खड़ा था<br />
जिस पर मैनें खींच कर<br />
तुमको ला खड़ा किया था<br />
जिस पर सवार हम चले थे<br />
अविश्वास, धोखे, अनिश्चितताओं<br />
के पार<br />
तुम आयी थी अपनी पक्की ज़मीन<br />
छोड़ कर, ये लीप ऑफ़ फेथ था<br />
कि हम उड़ते चले जायेंगे<br />
कि हम बह चलेंगे आगे<br />
और पीछे रह जायंगे दुनियावी मसले<br />
समझौते, दिमागी पेंच,<br />
तुमने थामा था मेरा चेहरा<br />
मेरी आँखों में झाँका था<br />
मैं हर बात में हाँ भरा करता था<br />
मैं अपने लफ़्ज़ों में रहा करता था<br />
मगर मेरी परतें<br />
मुझ पर जमी धूल<br />
उखड़ने लगीं, हवा से<br />
जहां मैं खड़ा था<br />
वह जगह तुम्हारा फूल सा<br />
भार न सकी संभाल<br />
मैनें हम दोनों को ला गिराया<br />
अंधियारे में,<br />
तुम मुझे नहीं देख सकती अब<br />
तुम मुझे छू भी नहीं पा रही<br />
तुम आहत हो, खफा हो<br />
तुम अब मेरे बनाये दलदल में<br />
धंसी हो और रुकी हो निश्चल<br />
कहाँ मैं और कहाँ तुम<br />
और कहाँ अपना रस्ता गुम<br />
पर रुको, मत थामो वो रस्सी<br />
जो तुम्हें निकाल बाहर वापस<br />
असलियत और बोझिलता की ओर<br />
खींचती चली जाएगी<br />
मैं भी तो हूँ यहीं तुम्हारे साथ<br />
मुझे तुम दिखती चमकती हो<br />
मेरे अपार अंधियारे में<br />
देखो यहां भी बस मैं और तुम हैं<br />
मेरा भी सब कुछ पीछे छूटा है<br />
जो कुछ मुझमें कलुषित था<br />
वह मुझसे टूटा है<br />
अब दोनों धीरे धीरे<br />
आंसू से कालिख धो लेंगे<br />
इस गहरे गड्ढे से निकलने ही को<br />
साथ हो लेंगे<br />
वक़्त जो गुजरा वो गुजरा<br />
जो गुजरेगा वो गुजरेगा<br />
कल अगर गड्ढा था<br />
कल को सीढी भी हो जाएगा<br />
शायद चलते चलते<br />
अपना रस्ता <br />
दिख जाए कहीं<br />
चार दिन चार पल<br />
बीत जाएँ यूँहीं<br />
आखिर दोनों ही तो हैं यहां<br />
इस जगह<br />
इस निहायत अकेलेपन में<br />
शायद नफरत और प्यार में<br />
बहुत पतली दीवार है<br />
चलते चलते लांघ पाओ<br />
तुम शायद कभी<br />
इसलिए अभी तुम मत जाओ<br />
रुक जाओ, थम जाओ<br />
टाल जाओ अपने कड़े और सही फैसले<br />
मैं हक़ से नहीं<br />
उम्मीद से मांगता हूँ<br />
और वक़्त<br />
और अकेलापन हमारा<br />
और सन्नाटे<br />
खिलखिलाहट के इंतज़ार में.<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br /></div>
iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-65164058721087038642014-05-13T06:51:00.000-07:002014-05-13T06:51:21.949-07:00बाबा - 1<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जब वो चलते थे तो पैर की मांसपेशियों से चटकने की हल्की आवाज़ आती थी, जिसे सुनकर कई बार मेरी नींद टूटती जब मैं अन्दर वाले कमरे में रजाई में दुबका रहता, या गर्मी में चटाई पर सोता और बगल से वे गुजरते. केसला की गर्मियां तेज और लू वाली होती हैं, और कुछ साल पहले तक पंखा भी नहीं था, तो बाबा हमेशा उघाड़े बदन रहते दिन में, और सन की रस्सियों वाली खटिया के निशान उनकी पीठ पर चारखानेदार पड़ जाते.<br />जब भी बाबा घर पर होते तो मुझे और शिउली को पढ़ाते. गणित पढ़ाने में उनके जैसा सरल पढ़ाने वाला कोई नहीं मिला. अगर कोई ऐसी चीज़ होती जो उन्होंने अपने समय में नहीं पढी, कोर्स में नयी जुडी हो तो पहले उसे खुद पढ़ते फिर समझाते. व्यस्तता बढ़ने के साथ पढ़ाना कम भी हुआ, लेकिन मुझे भी पढना हमेशा बोझ लगा, मांगने पर समय हमेशा देते थे. शिउली को कालेज के दिनों तक अर्थशास्त्र में मदद की. <br /><br />सुबह तडके उठ जाते, और लिखने लगते, हम लोग रात (या भोर) समझ चार-पांच बजे पेशाब करने उठते तो बाबा पालथी मारे लिखते हुए दिखते, कभी लाईट न हो तो चिमनी की रोशनी में. लिखने की आदत जबरदस्त थी, चिट्ठियों के जवाब देते, प्लेटफार्म पर ट्रेन आने से पहले जल्दी जल्दी लिखते ताकि स्टेशन की डाक से जल्दी चली जाएँ. घर में पोस्टकार्ड इधर उधर मिलते हैं जिसमें उनके द्वारा 'जवाब- तारीख' लिखी होती है. हफ्ते में दो लेख सामान्यतः लिखते, उसके अलावा प्रेस विज्ञप्ति, पार्टी के परिपत्र वगैरह भी.<br /><br />भूतकाल में लिखना कठिन है, मैं हमेशा से उनपर लिखना चाहता था, आज नहीं, आज से बीस साल बाद, जब मेरी लेखनी में इतनी ताकत आ जाये, जब मैं एक बेटे का अपने पिता के प्रति प्यार और आदर नहीं बल्कि उनके काम और विचारों के बारे में लिख सकूं. उनके जीवित रहते ही लिखना चाहता था हालांकि उन्हें पसंद नहीं आता. मैं समग्र में उनके जीवन और काम के बारे में लिखना चाहता था. लेकिन समग्र तो कोई नहीं लिख सकता. श्रद्धांजलि कैसी होती है? भाषण या लेख में नहीं होती, वो जैसी किशन पटनायक को जनपरिषद के जुझारू साथियों ने दी वैसी होती है.<br /><br />उन्हें मेरी कवितायेँ पसंद आयीं थी, हालाँकि मैं उन्हें नहीं भेजता था, मेरा लिखना अपने दोस्तों, हमउम्रों, अपरिचितों के लिए होता है, जिन्हें मैं प्रभावित कर पाऊं. उनकी पसंद को मैनें अपने लिखे से अलग ही समझा. लेकिन शिउली और अन्य लोगों के जरिये उन तक पहुँची, और एक बार यहीं दिल्ली में मैनें एक सिरे से ब्लॉग की सारी कवितायेँ पढ़ कर सुनाई, जिस पर उनकी मिली जुली प्रतिक्रिया रही, लेकिन मुझे तसल्ली हुई. उन्हें गूढ़ता या शब्दजाल पसंद नहीं था, सीधी बात कहने वाली चीज़ें पसंद थीं. मेरी कविता किसी और के जरिये पहुँची और सामयिक वार्ता में छपी तो मुझे बहुत अच्छा लगा.<br /><br />मैं ज्यादातर जगहों पर सुनीलजी - स्मिताजी का बेटा बना रहा. अपनी पहचान में भी और अंतर्मन में भी. अभी भी हूँ. अवचेतन में हमेशा याद रहा कि मैं कौन हूँ, हमेशा शर्म आयी कि जनरल डिब्बे, या वेटिंग लिस्ट में सफ़र करने से क्यों घबराता हूँ, या किसी कार्यालय के कर्मचारी से बहस न कर पाने की शर्म, महंगी दुकानों या रेस्तरां में घुसते हुए अपराधबोध जरूर होता है, और जीवन भर रहेगा, भले ही उसे दबा दिया जाए. ये चीज़ें हमारे लिए सामान्य हो गयी, मेरे आलस से बहुत खिन्न रहते थे,<br /><br />बहुत कुछ याद आ रहा है, आगरा के किले और फतेहपुर सीकरी दिखाते हुए बहुत चाव से समझाया था कि कैसे मुगलों की स्थापत्य कला में ठंडक रहती थी, दीवारों में हवा के गलियारों के जरिये, और मेहराब में कैसे दरवाज़े मजबूत बनते हैं, कैसे बिना मसाले की जुड़ाई के मज़बूत पत्थर की दीवारें तैयार हो जाती हैं. बाबा नीरस - निर्मोही नहीं थे, उन्हें कभी कभार फ़िल्में देखने या जगहें देखने में आनंद आता था. लेकिन काम सबसे आगे था, और काम ही काम था, फुर्सत के क्षणों में किताबें पढ़ते और थ्योरेटिकल ज़मीन मज़बूत करते, कभी कभार फिक्शन भी पढ़ते लेकिन वह भी इधर कुछ सालों में ही शुरू किया था. मेरा अनुमान यह है कि जब बाबा ने कार्यकर्ता बनने का तय किया तो 'शौक' उठाकर एक कोने रख दिए, हम उन्हें खींचकर कभी कभार फिल्म देखने ले जा पाए, कुल मिलाकर आधा दर्जन से ज्यादा बार नहीं. घूमते बहुत थे आन्दोलन और पार्टी के काम से, और आसपास के दर्शनीय स्थल समय मिलने पर देख लेते. पर निरंतर लिखना और लोगों से चर्चा करना, आन्दोलनों से जुड़ना, दौरा करना. यही उनके समय और सोच पर छाया रहता.<br /><br />उनकी अपेक्षाएं सब से थीं, सब से, कोई भी छूटा नहीं है. सबसे यह अपेक्षा कि अपने समय का बड़ा हिस्सा समाज या समाजोपयोगी काम के लिए हम दें. लिखें, संगठन करें, गोष्ठियां करें, वार्ता को फैलाएं, या जहां भी हों अपने स्तर पर कुछ करें, अपने हाथ में चीज़ों को लें, परिस्थितियों के गुलाम न बनकर हिलाएं, झकझोर दें !<br />मुझे तेईस साल उनका साथ मिला, अब आगे जीवन में कितने साल हैं, यह साफ़ नहीं, लेकिन मुझे हमेशा अनकहा गर्व था बाबा पर, अनकहा इसलिए क्योंकि दिखाने पर उसका महत्त्व ख़त्म हो जाता, और हवाई गर्व की कोई कीमत भी नहीं. गर्व के आगे काम है, संघर्ष है. जिम्मेदारी है, उनका बेटा ही नहीं, उनका कार्यकर्ता होने की जिम्मेदारी ज्यादा बड़ी है. इस बैचेनी और ग्लानि को काम में बदलना है कि उनके रास्ते पर अभी तक चल ही नहीं पाया हूँ. या अपना रास्ता भी बनाना शुरू नहीं किया है.<br />बड़ी तकलीफ के बावजूद लिख रहा हूँ, क्योंकि वो एक सार्वजनिक व्यक्तित्व थे, जिनका लिखा जाना जरूरी है, ताकि आगे हम बार बार मुड़कर देख सकें, खंगाल सकें एक जीवन को जो अनुकरणीय है/<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgdq-_OVES_xvSQYV4g49ltkucHw3i1k2tVNAVF9f_h95f88liyiWrbTt1rMAipJmpQA6mpxYnRcQBvmxElp9ulmZWWKUyT8Rr71c3eM062P0-s0Zvobqc0D8bvsVJXDK9smEQ5140vtno/s1600/DSCN3953.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgdq-_OVES_xvSQYV4g49ltkucHw3i1k2tVNAVF9f_h95f88liyiWrbTt1rMAipJmpQA6mpxYnRcQBvmxElp9ulmZWWKUyT8Rr71c3eM062P0-s0Zvobqc0D8bvsVJXDK9smEQ5140vtno/s1600/DSCN3953.JPG" height="240" width="320" /></a></div>
<br /></div>
iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-744077675938988512013-04-03T04:23:00.001-07:002013-04-03T04:23:44.596-07:00सपनों की खेती <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">रात सरकती है पलकों पे बेआवाज़ </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">बोल तैरते हैं हवा में बुलबुले </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">कविता मगर छिटक जा गिरती है दूर </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">हाथ लगाते ही यकायक </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">अँधेरा चेहरा छुपाने के काम आएगा </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">कसकर कम्बल सा लपेट लिए चलता हूँ इसे </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">बेशुमार काम बाकी हैं </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">कल,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">और आज को लंबा खींच</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">नींद के खिलाफ मोर्चा खोले </span><br />
<span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #333333; display: inline; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">बुदबुदाता हूँ<br />अनगढ़ तुकबन्दियाँ<br />मेरी आँखों के सामने से<br />गुजरते हैं अनगिनत सपने<br />देखे जाते कमरों में, छतों के नीचे,<br />फुटपाथ पर,<br />नए बने फ्लाईओवर की ओट में<br />देखे जाते चुपचाप सपने<br />जहां ऊपर गुजरती तुम्हारी<br />मुश्किल से जुबां पे आते नामों वाली<br />विदेशी कारें,<br />उनके पहिये भी न कुचल पाते वसंत की रातों में तैरते सपनों को<br />(भले कुचला उन्होंने बार बार<br />देश के दोयम दर्जे के बाशिंदों को खुद )<br />रेल की पटरी के दोनों ओर<br />काली-नीली प्लास्टिक की झुग्गियों में से<br />मच्छरों की तरह भिनभिनाते बाहर आते सपने<br />रात में<br />जब दक्षिण दिल्ली की सड़कें,<br />मॉल, दुकानें, साउथ बॉम्बे, श्यामला हिल्स<br />या राजपथ-लुटियन की दिल्ली में भी<br />सपनों का प्रवेश निषेध नहीं करवाया जा सकता किसी<br />वर्दीधारी से,<br />वे निकल आते-नाचते गाते हैं सपने<br />फ़ैल जाते इस देश के काले आकाश पर रात में<br />मैं पढ़ने कि कोशिश करता हूँ इन्हें<br />या छोड़ देता यूं ही<br />गुम अपने सपनों में ही<br />और खुद को सांत्वना देता<br />'पाश' को भी..<br />अभी सपने जिंदा हैं,<br />सपनों की सीढियां बढ़ रही हैं<br />आसमान की ओर धीरे धीरे चुपचाप, दबे पांव<br />एक दिन सुबह होने पर भी वापस न उतरेंगे सपने<br />तब तक ढील दे रहा हूँ मैं<br />अँधेरे में बैठा कमरे में<br />और गुनता बूझता खेलता<br />सपनों से ..</span></div>
iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-11591495789636787512012-08-08T05:00:00.000-07:002012-08-07T16:21:22.750-07:00बाढ़-टूरिज्म<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 17px;">देखा है किसी शहर को डूबते हुए?</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 17px;">चौखटों, आंगनों, दीवारों, </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 17px;">किलकारियों, झल्लाहटों को </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 17px;">'गड़प' से मटमैले पानी में </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 17px;">गुम हो जाते देखा है?</span><br />
<div class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #333333; display: inline; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 17px;">
सर पर बर्तन-भांडे, संसार<br />
का बोझ लिए लड़खड़ाती औरतों को देखा है?<br />
लाइन में लग बासी पुरियों और सड़े आलुओं की सब्जी<br />
लेते स्कूल ड्रेस में खड़े बच्चे के कीचड खाए पैरों को देखा है?<br />
देखा है गौमाता की सडती लाशों पर बैठे<br />
कौओं की उत्साह भरी छीना-झपटी को?<br />
आलआउट, एसी, से भगाए मच्छरों के झुण्ड को<br />
रिलीफ कैम्प, बियांड बिलीफ कैम्प की ओर<br />
कॉम्बैट फार्मेशन में बढते हुए देखा है?<br />
देखा है उल्टी करते हुए बड़े गौर से<br />
सरकारी अस्पताल के आँगन में<br />
कोने में पडी पान की पीक को?<br />
देखा है ऊपर मंडराते हेलीकाप्टर को,<br />
उसकी खिड़की में से भोपाल से उड़कर आये<br />
'किसान-पुत्र' को झांकते हुए देखा है?<br />
नर्मदा के आवारा बेटे होशंगाबाद<br />
का अपनी माँ के हाथों<br />
गला घुंटते देखा है?<br />
देखा है विकास को नंगा होते देखा है?<br />
देखा है कल और आज को सरेआम लुटते देखा है?<br />
चलो आज दिल्ली से दक्खिन की ओर<br />
चलो आज आशा के अंतिम छोर<br />
मोटरबोटों, तस्वीरों की चीखों के पार,<br />
डूबती फसलों, तैरती गलियों के पार,<br />
वादों, दावों, करिश्मों के पार,<br />
भरम, मस्ती, मोहभंग के पार,<br />
देखो क्या कोई बच पाता है,<br />
देखो सामने कौन खिलखिलाकर<br />
खींचे लिया आता है,<br />
बाढ़, बाढ़, बाढ़.</div>
<br />
<br />
<div class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #333333; display: inline; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 17px;">
<br /></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjI2JC94lW7QA9vCcJ4_Bsbf7Ekixptk-qiid6cRSrBQEIIf8GNNPVtIyLdmsXhMEfyU0L2gHtLWMyq1TE44MQ8US2xkhVfbd8b06HykxSpIClNniFjeSuWDDuPHJQu2aIBBwxpcpfdxas/s1600/8039_4157705856106_1310668554_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="247" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjI2JC94lW7QA9vCcJ4_Bsbf7Ekixptk-qiid6cRSrBQEIIf8GNNPVtIyLdmsXhMEfyU0L2gHtLWMyq1TE44MQ8US2xkhVfbd8b06HykxSpIClNniFjeSuWDDuPHJQu2aIBBwxpcpfdxas/s320/8039_4157705856106_1310668554_n.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgeKDQSObL5Dfkf3t-cCVkImQBZOzN867kEuL2hPitb4w_vMKBA4acVt5uxik1nnk2Y9hhyigru7xSkLM2pEYE0YeKSuEkk4_WIBgEdt3paNdfFh-vXrXWVpnD9RTOA_qZbUwIL2w-JV4c/s1600/562928_4157705576099_1952475899_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="247" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgeKDQSObL5Dfkf3t-cCVkImQBZOzN867kEuL2hPitb4w_vMKBA4acVt5uxik1nnk2Y9hhyigru7xSkLM2pEYE0YeKSuEkk4_WIBgEdt3paNdfFh-vXrXWVpnD9RTOA_qZbUwIL2w-JV4c/s320/562928_4157705576099_1952475899_n.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5ANeiA3vFC_F4wozY0tE5cTnxqDWNcDzjA9KH55sf9A8hrrhkl-HSd88j2D6UdcXRQuXj9t5zdljBLFF6GDg5VwxqGIvCjGnkJJcts__dtQ8Nj6OjucjqbTUiKhVgl0iWPwhPLNuevN8/s1600/599839_10151144372254878_1348719254_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="247" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5ANeiA3vFC_F4wozY0tE5cTnxqDWNcDzjA9KH55sf9A8hrrhkl-HSd88j2D6UdcXRQuXj9t5zdljBLFF6GDg5VwxqGIvCjGnkJJcts__dtQ8Nj6OjucjqbTUiKhVgl0iWPwhPLNuevN8/s320/599839_10151144372254878_1348719254_n.jpg" width="320" /></a></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="font-size: x-small;"><i><br /></i></span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="font-size: x-small;"><i>(दिनांक 08-08-12 को जबकि होशंगाबाद में नर्मदा तबाही मचा रही है, और मैं/हम असहाय ख़बरें पढ़ रहे हैं, सन्न हैं, दिमाग कुंद है, तस्वीरें दो दिन पहले होशंगाबाद में ली गयी हैं )</i></span></div>
</div>iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-18281587702460865982012-04-24T08:32:00.001-07:002012-04-24T08:32:34.817-07:00अकेलेपन के मायने<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAY0_uXUi0dQLjGC3y-muIsh3jG-5NPaSYphPN6XyskpuXOcBNqOXugX59UlSWHfih8uHl2KfcATG4e9322eTq3EqOL_LQzLVdRaplGp13wx5SrMiwVEc8BauNUubKm2n1_oK6isn1yzM/s1600/Troy_walls_VII_and_IX.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAY0_uXUi0dQLjGC3y-muIsh3jG-5NPaSYphPN6XyskpuXOcBNqOXugX59UlSWHfih8uHl2KfcATG4e9322eTq3EqOL_LQzLVdRaplGp13wx5SrMiwVEc8BauNUubKm2n1_oK6isn1yzM/s320/Troy_walls_VII_and_IX.jpg" width="320" /></a></div>
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">अकेलेपन के मायने</span><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"> </span> <br style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;" /><br style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;" /><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">अकेलेपन के मायने कई होते हैं.. </span><br style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;" /><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">कुछ परिचित गानों का बार बार गुनगुनाना </span><br style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;" /><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">कुछ राह चलते खुद से बतियाना </span><br style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;" /><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">कुछ ताकना जाने अनजाने चेहरों को गौर से </span><br style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;" /><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">कुछ नजरें चुराना कईयों से </span><br style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;" /><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">कुछ भीड़ में भी गुम रहना </span><br style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;" /><br style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;" /><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">कुछ डूबा रहना किताबों में, किस्सों में </span><br style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;" /><span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #333333; display: inline; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">खयालों में, खयाली पुलावों में<br />रह रह कर उमडना-घुमडना,<br />बरसने का इंतज़ार करना,<br />बेमतलब मुस्कुराना सोच सोच<br />अपने ही चुटकुले,<br /><br />अपनी आदतों में घुसते जाना-<br />जैसे कछुआ ढोता है<br />अपने ही पलायन की गुफा<br />अपनी पीठ पर,<br /><br />झल्लाना-झुंझलाना आईने पर,<br /><br />मुद्दई और गवाह खुद होना,<br />खुद ही जज बन अपने मुकद्दमों<br />को तारीख न देना हफ्ते दर हफ्ते,<br />तकरीरों औ मशवरों का कूड़ेदान होना,<br />महफ़िलों औ मेलों का सुनसान कोना,<br /><br />कान उगाना,<br />मुंह सिलना,<br /><br />अपने अकेलेपन से कहना<br />कि तू अकेला ही अकेला नहीं है,<br />कि अकेले अकेले ही<br />अकल आ जाती है,<br />कि आजादी अकेलापन है,<br /><br />खैर,<br />अकेलेपन के मायने भी<br />अकेले बैठे ही समझ आते हैं..</span>
</div>iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-1643237791719563512012-04-11T13:08:00.011-07:002012-04-11T15:04:15.442-07:00कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं...<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEga8ovWGvxrKuugvB_Lc8oNMut18U7p50Qe5ZD-VLA_NmUbTnRf5ybN7vOiGlXt56F1wruukVcBkwybOb0lqFfdVkm8_0HBgUzmqD0CqJPl6kXvwAmNHfM85tf5q07vl6i58O2r9kjxIJM/s1600/1%25282%2529.jpg" style="font-family: Georgia, serif; font-style: normal; font-size: 100%; "><img style="cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 212px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEga8ovWGvxrKuugvB_Lc8oNMut18U7p50Qe5ZD-VLA_NmUbTnRf5ybN7vOiGlXt56F1wruukVcBkwybOb0lqFfdVkm8_0HBgUzmqD0CqJPl6kXvwAmNHfM85tf5q07vl6i58O2r9kjxIJM/s320/1%25282%2529.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5730258748146597010" /></a><br /><span style="font-size: 100%; font-style: normal; "><br /></span><div><span style="font-size: 100%; font-style: normal; ">आजकल बाज़ार में टूथपेस्ट के नए विज्ञापनों का चलन है.. जो दावा करते हैं कि वे आपके दांतों की 'सेंसेटीवीटी' </span><div style="font-size: 100%; font-style: normal; "><span>याने संवेदना खत्म कर देंगे.. याने ठंडा-गरम खाने-पीने से होने वाली तकलीफ/अहसास खत्म हो जाएँगे. जैसा कि चलन है, एक के बाद और कंपनियों ने भी यह फार्मूला अपना लिया, जैसा कि पुरुषों के गोरेपन की क्रीम से लेकर अभी तक चला आ रहा है. एक कंपनी अपनी तथाकथित मार्केट रिसर्च के बाद जो शिगूफा छोडती है, वो आग की तरह सारे दिमागों तक पहुंचाया जाने लगता है. यह नहीं कि आप ठंडा-गरम कम खाएं और दांतों का ख़याल रखें. उनकी संवेदना ही कुंद कर दी जाएगी..</span></div><div><div style="font-size: 100%; line-height: normal; font-style: normal; font-weight: normal; "><span><br /></span></div><div style="font-size: 100%; line-height: normal; font-style: normal; font-weight: normal; "><span>लेकिन मैं रिमूव सेंसेटीवीटी.. की 'कैचलाइन' सुनकर सोच में पड़ गया. मुझे समझ में आने लगा कि यह सिर्फ दांतों का मामला नहीं है, दरअसल हर किस्म की संवेदनशीलता को खत्म करने का अभियान जारी है. </span></div><div style="font-size: 100%; line-height: normal; font-style: normal; font-weight: normal; "><span><br /></span></div><div style="font-size: 100%; line-height: normal; font-style: normal; font-weight: normal; "><span>भावों, खासकर सहानुभूति, पीड़ा, ग्लानि -जैसे तथाकथित 'नकारात्मक' भावों को दबाने के लिए जनाब श्री श्री से लेकर तमाम बाबाओं की दुकानें चलती हैं. कोई माने या न माने.. लेकिन यह इंसान का एक मूल स्वभाव है, कि वो औरों के दुःख से दुखी, द्रवित होता है, साथ ही यह सोचने पर भी मजबूर होता है, कि आखिर क्या कारण है कि इतने लोग इतने बुरे हालत में जी-मर रहे हैं. </span></div><div style="font-size: 100%; line-height: normal; font-style: normal; font-weight: normal; "><span><br /></span></div><div style="font-size: 100%; line-height: normal; font-style: normal; font-weight: normal; "><span>लेकिन यह ज़माना देखकर भी न देखने का ज़माना है, इसीलिए सालों से शहर के बीच में रह रहे मजदूरों-कारीगरों की झुग्गियों को अस्सी के दशक से ही उठाकर शहर से बाहर फेंका जाने लगा, ये कालोनियां 'अवैध', 'गंदी', अपराधियों का अड्डा या फिर विकास का अवरोध आदि कई कई नामों से हटाई गयी.. वहीं बिल्डरों के अवैध निर्माण चुपचाप वैध हो गए.. रेसिडेंट वेलफेयर असोसिएशन वगैरह की त्रासदी को मीडिया में भी जगह मिली, पर पिछले दिनों से देखता हूँ कि झुग्गियां तभी सुर्ख़ियों में आती हैं जब वहाँ आग लगती है, जहरीली शराब पीकर लोग मरते हैं या फिर लाठी चार्ज/पथराव होता है. </span></div><div style="font-size: 100%; line-height: normal; font-style: normal; font-weight: normal; "><span><br /></span></div><div style="font-size: 100%; line-height: normal; font-style: normal; font-weight: normal; "><span>सौन्दर्यीकरण या शंघाईकरण का मतलब बस यही है कि कांक्रीट के जंगलों में गिने चुने इंसान बचें जो काले शीशों में बंद ठंडी हवा खाते रहें, और उनके गुलाम हमेशा परदे के पीछे रहें.. अदृश्य, मानो किसी आधुनिक मशीन के पुर्जे.. जो बोनट में बंद हैं.. </span></div><div style="font-size: 100%; line-height: normal; font-style: normal; font-weight: normal; "><span><br /></span></div><div style="font-size: 100%; line-height: normal; font-style: normal; font-weight: normal; "><span>दिल्ली में अस्सी के एशियाड में बड़े पैमाने पर बस्तियों को उजाडा गया.. फ्लाईओवर बने जो जल्द ही बढती कारों के बोझ तले कम पड़ गए.. मजदूर सुबह शाम खचाखच भरी बसों में लथपथ दो तीन घंटे सफर कर काम करने जाते और लौटकर अपने दस बाय बारह के दडबे में सो जाते, जहां पानी,शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी चीज़ों के भी सपने ही पाए जाते. इस तरह शहर का वो थोड़ा बहुत आम चेहरा टूटा जो पुरानेपन की पहचान था, जब गरीब भी अमीर के मोहल्ले में दुआ-सलाम कर रहा करता था, ये आधुनिक अपार्थाइड था.. अब शहर खास थे.. शहर के कुछ हिस्से खास थे. जहां कृष्णों को सुदामा पर मेहरबानी करने की भी जहमत नहीं उठानी पड़ती थी. सुदामा को अपहरण कर गायब कर दिया गया ताकि कृष्ण की मौज में खलल नहीं पड़े.. </span></div><div style="font-size: 100%; line-height: normal; font-style: normal; font-weight: normal; "><span><br /></span></div><div style="font-size: 100%; line-height: normal; font-style: normal; font-weight: normal; "><span>अभी कामनवेल्थ खेलों में तो सरकार ने झुग्गियों के सामने बड़े बड़े परदे-होर्डिंग लगवा दिए, ताकि हमारे नफीस मेहमानों को हमारे जाहिल देशवासी दिखाई न पड़ें, ताकि महाशक्ति बनाने के ख्वाब पर फटे तलवों, पसीने और निराश निगाहों के दाग न लगें, ताकि दक्षिण दिल्ली की चिकनी सड़कों पर दौडती लक्झरी कारों और पंचसितारा होटलों में मयनोशी करते अमीरजादों में ही हिन्दुस्तान की परछाई नुमाया हो. यह बात अलग है कि इन खेलों को देखने कोई आया ही नहीं और इस बहाने बहुत से होटल वालों को सस्ती ज़मीन मिल गयी. </span></div><div style="font-size: 100%; line-height: normal; font-style: normal; font-weight: normal; "><span><br /></span></div><div style="font-size: 100%; line-height: normal; font-style: normal; font-weight: normal; "><span>तो यह तय है कि हमारे समय में संवेदना की जरूरत और अस्तित्व को खत्म करने की पुरजोर कोशिश जारी है, डाक्टर और बाबा सलाह देते हैं कि हमेशा खुश रहो, पाजीटिव सोचो, बल्कि सोचो ही मत तो सबसे अच्छा.. अपने घर-दफ्तर और बाजार में बस अगले प्रमोशन, अगली छुट्टी, अगले मोबाइल, अगली फिल्म, अगले चुटकुले का इंतज़ार करो. अगर सड़क पर, गली में, फुटपाथ पर या बस की खिड़की से कुछ ऐसे लोग दिखाई पड़ जाएँ जो कुछ अजनबी से हों, जिन्होंने ब्रांड के कपडे नहीं पहने हों, या जो खिली खिली क्रीम छाप त्वचा के मालिक नहीं हों, जिनकी आँखों में अभी भी कमरे के किराए और माँ की बीमारी और गाँव की फसल की चिंता हो, तो समझ लो कि वह सीनरी का हिस्सा है, बल्कि वह तुम्हारे मनोरंजन-विविधता के लिये ही वहाँ खडा किया गया है. कि वो जहां हैं वहीं खुश है, कि वे उसी लायक है, कि उनकी किस्मत में वही लिखा है, कि वो इसीलिए नहीं मुस्कुराते क्योंकि वे कोलगेट नहीं कोयले से दांत मांजते हैं. कि वे इंसान नहीं खच्चर हैं..</span></div><div style="font-size: 100%; line-height: normal; font-style: normal; font-weight: normal; "><span><br /></span></div><div style="font-size: 100%; line-height: normal; font-style: normal; font-weight: normal; "><span>जी हाँ यह संवेदनाओं का कब्रिस्तान है मेरा देश, यह समय छोटी याददाश्त और टुच्चे सपनों का समय है. जब कानों में हेडफोन लगे हैं और चीख-पुकार सुनाई नहीं देती, न ही खौफनाक मंज़र दिखाई पड़ते हैं फैशनेबुल धुप के चश्मों में. पांच हज़ार लोग भूख हड़ताल पर बैठते हैं, जो देशद्रोही हैं, जो विकास विरोधी हैं, जो 'एंटीला' जैसे बंगलों को बिजली देने के लिए अपने भविष्य की कुर्बानी देने को तैयार नहीं हैं.. </span></div><div style="font-size: 100%; font-style: normal; line-height: normal; "><b><span><br /></span></b></div><div style="font-size: 100%; font-style: normal; line-height: normal; "><span><b><i><a href="http://www.downtoearth.org.in/content/west-bengal-evicts-ecological-refugees-occupying-prime-real-estate-kolkata">नोंनाडांगा </a></i></b>में माँ माटी और मानुष वाली नेत्री.. उक्त तीनों पर हमला करती है, दो सौ बेघर परिवार, जो अपनी तारपलीन की झुग्गियों में तूफ़ान से उजड जाने के बाद रह रहे थे.. उजाड दिए जाते हैं, यकायक, उनके पास कागजात नहीं है, लेकिन उससे भी बड़ी बात यह कि वो अमीर-जात नहीं हैं.. वो रिक्शा खींचने, बर्तन मांजने, ईंट धोने वाले हाथ हैं, वो 'हीरा है सदा के लिए ', पहनने वाले और वैक्सिंग करवाने वाले हाथ नहीं हैं. कुछ हाथ और भी उठे इनका साथ देने को.. लेकिन हथकडियां अब तैयार बैठी हैं, क़ानून बन चुके हैं.. जो हाथों को उठने से रोकते और सलाम करने पर मजबूर करते हैं. </span></div><div style="font-size: 100%; line-height: normal; font-style: normal; font-weight: normal; "><span><br /></span></div><div style="font-size: 100%; line-height: normal; font-style: normal; font-weight: normal; "><span>मुझे ठंडा-गर्म महसूस होता है अब भी, मेरी रगें सनसना उठती हैं.. मैं हर एक को झकझोर कर कहना चाहता हूँ, ऐसा टूथपेस्ट-क्रीम मत लगाना कि, किसी उजड़ते हुए परिवार को देखकर रोना न आये, कि किसी पिटते हुए मजदूर को देखकर गुस्सा न आये, कि किसी लड़ते हुए किसान को देखकर प्रेरणा न मिले .. ऐसे मत बन जाना कि हमारे सामने ये देश, समाज, लोग खत्म किये जाते रहें.. कि न्याय, समता, इंसानियत सब विज्ञापन बन कर रह जाएँ जो चमकती दीवारों पर सजे हों, जिनके नीचे लाशों पर बाजार के फूल खिलें हो, और हम खड़े शून्य में ताकते रहें या मौज मनाते रहें. अभी भी समय बाकी है, अभी भी लड़ाई जारी है.. </span></div><div style="font-size: 100%; line-height: normal; font-style: normal; font-weight: normal; "><span>मुक्तिबोध के शब्दों में - </span></div><div style="font-size: 100%; font-style: normal; text-align: -webkit-auto; "><i><span><span style="line-height: 32px; background-color: rgb(255, 255, 255); ">इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर-जाल –</span><br style="line-height: 32px; background-color: rgb(255, 255, 255); "><span style="line-height: 32px; background-color: rgb(255, 255, 255); ">केवल एक जलता सत्य देने टाल।</span><br style="line-height: 32px; background-color: rgb(255, 255, 255); "><span style="line-height: 32px; background-color: rgb(255, 255, 255); ">छोड़ो हाय, केवल घृणा औ' दुर्गंध</span><br style="line-height: 32px; background-color: rgb(255, 255, 255); "><span style="line-height: 32px; background-color: rgb(255, 255, 255); ">तेरी रेशमी वह शब्द-संस्कृति अंध</span><br style="line-height: 32px; background-color: rgb(255, 255, 255); "></span><span style="line-height: 32px; background-color: rgb(255, 255, 255); "><span>देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध...</span><br /><span style="font-family: 'courier new'; font-size: 100%; "><br /></span></span></i></div><div style="text-align: -webkit-auto; "><span><span style="line-height: 32px; ">फोटो नोनाडांगा के विस्थापितों की एक तस्वीर है जो 'डाउन टू अर्थ' पत्रिका से ली गयी है, </span></span></div></div></div>iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-72511079423631958432012-04-05T14:45:00.005-07:002012-04-05T15:25:09.376-07:00गाँवों-कस्बों के लोग<div><span style="font-family: Georgia, serif; ">गाँवों-कस्बों के लोग </span> </div><div><span><br /></span></div><div><span>इंग्लिश सुन सुन कुछ घबराते </span></div><div><span>गाँवों-कस्बों के लोग </span></div><div><span>तेल चुपड़कर बाल बनाते </span></div><div><span>गाँवों कस्बों के लोग,</span></div><div><span>हरदम गर्दन खूब घुमाते </span></div><div><span>गाँवों-कस्बों के लोग.</span></div><div><span>इधर घूरते उधर ताड़ते </span></div><div><span>सब कुछ नया नवेला पाते. </span></div><div><span>खुद को निपट अकेला पाते </span></div><div><span>दौलत पर पलकें झपकाते </span></div><div><span>गाँवों कस्बों के लोग. </span></div><div><span>दृश्य नया संसार नया है, </span></div><div><span>ये शहरी दरबार नया है, </span></div><div><span>निर्मम कारोबार नया है </span></div><div><span>इज्जत का आधार नया है,</span></div><div><span>देश नया ये भेष नया है </span></div><div><span>काले गोरे बन बैठे हैं </span></div><div><span>गोरे मन-दर-मन बैठे हैं </span></div><div><span>मॉल में जा और कॉफी पी </span></div><div><span>ढाबा है नाकाफी, पी !</span></div><div><span>हाथ हिला हिला कर बोल </span></div><div><span>यू आर वेरी गोल मटोल, </span></div><div><span>बातें हो सिंगापुर की </span></div><div><span>यूएस की शंघाई की </span></div><div><span>देश की हों भी अगर </span></div><div><span>मानो हो अजायबघर, </span></div><div><span>सुन सुनकर बहुत चकराते </span></div><div><span>गाँवों कस्बों के लोग. </span></div><div><span>बातचीत में बोलचाल में </span></div><div><span>रंग-ढंग में देखभाल में </span></div><div><span>अपना -सा कुछ न मिलने पर </span></div><div><span>अपनी हालत पर झुंझलाते</span></div><div><span style="font-family: Georgia, serif; ">गाँवों कस्बों के लोग, </span><span style="font-family: Georgia, serif; "> </span></div><div><span>शायद यही तो नियति है </span></div><div><span>जो थोथा है -वो प्रगति है </span></div><div><span>बिक न सके जो, माल बुरा है</span></div><div><span>हम जैसों का हाल बुरा है, </span></div><div><span style="font-family: Georgia, serif; ">अक्षम चिंताओं को ढोते </span></div><div><span style="font-family: Georgia, serif; ">गाँवों-कस्बों के लोग, </span></div><div><span style="font-family: Georgia, serif; ">वे जो मदमस्त हो लोटें </span></div><div><span style="font-family: Georgia, serif; ">'मैं' की धुन में अमृत घोंटें </span></div><div><span style="font-family: Georgia, serif; ">जिनका जीवन स्वर्णजडित है </span></div><div><span style="font-family: Georgia, serif; ">फिर भी जो सौंदर्य रहित है </span></div><div><span style="font-family: Georgia, serif; ">धीरे धीरे खुद को खोते </span></div><div><span>'उनके' जैसा होते होते </span></div><div><span>इक दिन खुद को कहीं न पाते </span></div><div><span>गाँवों कस्बों के लोग.</span></div>iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-6521171812533368902012-02-19T13:46:00.000-08:002012-02-19T13:50:13.174-08:00जनरल नालिज<span style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; "><b>जनरल नालिज </b></span><div style="font-family: Georgia, serif; line-height: normal; font-size: 100%; font-weight: normal; "><span style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; "><br /></span></div><div style="font-family: Georgia, serif; line-height: normal; font-weight: normal; "><span style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">वह रट रहा </span><span style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">है,</span></div><div style="font-weight: normal; "><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">वह रट रहा है बासी कानूनों के पास होने की तारीखें,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">गुमनाम देशों की राजधानियां, </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">कोरे सिद्धांत,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">थोथे दृष्टान्त. </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">अनगिनत आंकड़े जकड़े हुए, </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">वह भूल रहा है </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">लोग,यादें,शक्लें,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">बातें, मुद्दे, बहसें, </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">गीत,कविता,किस्से, </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">आँखें, हाथ, मस्से..</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">वह रट रहा है,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">अखबारी तकरीरें, </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">सरकारी तदबीरें,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">जंग खाई जंजीरें,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">वही भाषा,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; "><span style="line-height: 1.8; ">वही आशा,</span></div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">इम्तेहान दर इम्तेहान,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; "><span style="line-height: 1.8; ">वह गर्दन झुकाए रट रहा है,</span></div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">किसी उपनगरीय दड़बे में </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">मैगी और खिचड़ी</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">या ढाबे के पराठों को निगल-निगल दोहराता है </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">तथ्य तथ्य और तथ्य.</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">जी के,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">जनरल नालिज, </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">'सामान्य' ज्ञान ! </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">हम असामान्य हैं,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">हम दुखी हैं,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">हम बेरोजगार हैं, </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">हम रटते नहीं हैं,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">सरकार से पटते नहीं हैं,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">बाबूजी दुखी हैं, </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">लोग ताना देते हैं, </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">बस ! </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">अब ...</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">हम सवाल नहीं करेंगे,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">हम अंड-बंड नहीं पढेंगे,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">बस योजना, क्रानिकल,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">दर्पण, और कुछ अखबारों में </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">हम अंगरेजी के कठिन शब्दों को अंडरलाइन करेंगे, </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">हां, हम भूल जायेंगे,<span style="line-height: 1.8; ">,</span></div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">अपनी भाषा, </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">अपने लोग </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">अपनी समस्या,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">अपनी पहचान,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">वह सब कुछ जो कोर्स मटेरिअल </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">में नहीं आता है, </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">जी. के. में वही आता है </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">जो दिल में नहीं आता.</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">तेरी-मेरी, चार लोगों की बातें,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">मोहल्लों के इतिहास,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">गाँवों के मसले,</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">बस्तियों की बतकही </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">खेतों की फसलें </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">पानी और बिजली</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">बुखार और खुजली </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">अपनी इबारतें </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">सपनों की इमारतें....</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">इन सब पर एक अदद नौकरी भारी है.</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">इसलिए अब 'सामान्य ज्ञान'</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">के फावड़े से </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; "><span style="line-height: 1.8; ">अपनी जड़ खोद कर वहाँ</span></div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">चार विकल्प दे देंगे </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; "> ए. अफसर.</div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">बी, बाबू </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">सी. क्लर्क </div><div style="font-family: arial; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">डी. रोबोट ! </div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; "><br /></div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; "><span style="line-height: 1.8; ">, </span></div></div>iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-11374032667527687482012-02-05T13:55:00.000-08:002012-02-05T14:01:25.111-08:00एक खोजी अभियान की भूमिका<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEii64QpAPjbfGtzygFDdDtWs5mq4RugqKwemcEry3zi9KzcQfMX8yKrdJBEvjH3JkBXLMc8Dey6GRh_wc_dbMpQfLq93D6pG-G4wdvMMZNhFOQJG8t4mF-2Bt7AZLGULGywBqn9OR81R-g/s1600/article-2078733-0F47587F00000578-771_634x431.jpg"><img style="cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 218px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEii64QpAPjbfGtzygFDdDtWs5mq4RugqKwemcEry3zi9KzcQfMX8yKrdJBEvjH3JkBXLMc8Dey6GRh_wc_dbMpQfLq93D6pG-G4wdvMMZNhFOQJG8t4mF-2Bt7AZLGULGywBqn9OR81R-g/s320/article-2078733-0F47587F00000578-771_634x431.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5705774937257853234" /></a><br /><span style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">बातें जो कही नहीं गयी..</span><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">वादे जो निभाए नहीं गए,</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">सपने जो देखे नहीं गए..</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">लोग जो ढूंढें नहीं गए.</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">कहानियाँ जो सुनायी नहीं गयीं.</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">और कविताएँ जो गले में आकर अटकी,</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">फिर किसी अकेले पेड़ के नीचे बैठी रह गयीं.</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">और कहा जा रहा है, मैं 'नेगेटिव' सोचता हूँ.</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">सच तो ये है कि मैं नेगेटिव नहीं सोचता,</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">नेगेटिव मुझे सोच रहा है.</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">एक दिन मैं परछाइयों से गुजर रहा था,</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">वहीं नेगेटिव ने मुझे पकड़ लिया </div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">और तब से वह मेरे कानों में फुसफुसाए जा रहा है,</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">हर एक मुनादी के बाद </div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">वह आवाज़ तेज हो जाती है..</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">अब मैं और नेगेटिव, नेगेटिव और मैं </div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">हम भेष बदलते रहते हैं,</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">अब मैं उजालों से दूर झुरमुटों में चलता हूँ,</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">अब मैं समय की पगडंडी की धूल छानता हूँ </div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">शायद कोई सुराग मिल जाये </div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">कहाँ गए वो लोग, वादे, सपने, कहानियां, कविताएँ, </div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">नेगेटिव ने मुझसे कहा है,</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">कि इन गुमनामों में ही मेरी पहचान की चाबी छुपी है..<span style="line-height: 1.8; "> </span></div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">तुम्हे पता लगे तो बताना, </div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">आखिर सवाल मेरा नहीं </div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">अंधेरों का है,</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">सन्नाटे का,चुप्पी का है,</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">डर का है, </div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">गुस्से का है </div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">और कहीं ज्यादा </div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">सवाल सच का है </div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">जो खुद बहुरूपिया बने </div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">किसी पीछे छूट गए हरकारे की राह तक रहा है,</div><div style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; text-align: -webkit-auto; ">सहमा सा . </div>iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-24505699284196457822011-07-04T01:24:00.000-07:002011-07-04T01:47:20.124-07:00पप्पू की आँखें लाईट ब्लू ...जब जब ये गाना सुनते हैं नाचीज़ से रहा नहीं जाता, बरबस ही निकल पड़ता हूँ इस पप्पू की तलाश में..मध्य-भारत के किसी भी धूल-धूसरित कसबे में रहते हज़ारों लाखों पप्पुओं में नज़र घूम-घूम कर थक जाती है, लेकिन एक अदद अंग्रेज पप्पू अभी तक मिला नहीं, ब्रेडो की घड़ी पहने कुड़ियों में क्रेज़ बना वह पप्पू न जाने किस गली में मिलेगा... हमारा पप्पू तो रोज सुबह साढ़े आठ बजे सिर में खोपरे का तेल लगा कर चपेट कर बाल <span>काढ़ता </span>है, फिर चटख रंग की बुश्शर्ट और टाईट पैंट 'पाटीदार टेलर्स फैंसी मेंस सूटिंग एंड शर्टिंग' से सिलाई हुई पहन कर घर से निकलता है। जाते जाते मम्मी घर से आवाज़ देती हैं बेटा पप्पू ज़रा चायपत्ती लेते आना, तो भुनभुनाते हुए मम्मी से कुछ पैसे ज्यादा लेकर निकल पड़ता है। तंग गलियों में लड़-झगड़कर पानी भरती आंटियों और दफ्तर या दुकान जाते अंकलों से दुआ सलाम करते हुए पप्पू को वही पुराने यार दोस्त दिखलाई पड़ते हैं चाय की दुकान, पान की गुमटियों और मोबाईल की दुकानों पर रुकते ठहरते पप्पू अपने गंतव्य तक पहुँच जाता है। पप्पू का धंधा उसकी हैसियत के मुताबिक़ कुछ भी हो सकता है, मोटर-मैकेनिक, दुकान में हेल्पर, दफ्तर में क्लर्क-चपरासी, बीमा एजेंट, इलेक्ट्रिशियन, या फिर हम्माल, चपरासी या चाय की दुकान का मजदूर।<br /> इस पप्पू को उस पप्पू को टीवी पर देखने का समय कम ही मिलता है, लेकिन कभी कभार देख कर जेब से कंघी निकाल कर टेढ़ी मांग निकाल लेता है और एक बार आईना देख कर फिर काम पर लग जाता है।<br /> मुझे उस दिन का इंतज़ार है जब हमारे पप्पू पर भी गाने बनेंगे और उस विदेशी पप्पू को खोज कर इस पप्पू के सामने खडा किया जाएगा, देखते हैं दिन भर दुकान पे उस्ताद की गालियाँ खाने के बाद कौन बेहतर डांस करता है, अपने पप्पू ने भी कई बरातों में माहौल जमा दिया था कसम से...iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-52761109424111141712011-06-14T01:32:00.000-07:002011-06-14T05:27:03.734-07:00कबिरा खडा बाजार में..मेरे गाँव में हर रविवार हाट लगता है... या स्थानीय भाषा में 'बजार' भराता है। आस-पास के १०-१५ गाँव के लोग अपनी साप्ताहिक खरीददारी करने के लिए आते हैं, वैसे पूरे जिले में ही हफ्ते के अलग-अलग दिन अलग अलग गाँव के बजार के लिए तय हैं। मेरे गाँव केसला के आस-पास सुखतवा का बजार गुरूवार, साध्पुरा का सोमवार, भौंरा का शुक्रवार को पड़ता है।<br /> जो इन बाजारों से परिचित न हो उसके लिए इनके रंग और गांववालों के लिए इनका मतलब समझना थोड़ा कठिन है। बहुत पुराने समय से ही बजार हमारे आदिवासी बहुल-क्षेत्र में सिर्फ खरीदने-बेचने से कुछ बढ़कर है... यह एक दिन है जब हमारे बाशिंदे अपनी रोज़ की मेहनत-मजूरी से हटकर अपनी ज़िंदगी में कुछ रंगों की तलाश में पैदल या साइकिल से बजार पहुँचते हैं... होशंगाबाद और बैतूल जिले की आदिवासी पट्टी के किसी भी बजार में आप जाएं तो नजारा एक सा होता है। रंग-बिरंगी पारंपरिक सोलह गज की साड़ियों में आदिवासी महिलाएं थैला लिए कुछ खरीदती, कुछ देखती हुई दिखाई दे जाएंगी, अधिकतर घर के सामान की खरीद महिलाएं ही करती हैं। (इस मामले में आदिवासी समाज अन्यों से अलग हैं जहां 'बाहर' का काम पुरूषों के हवाले और 'अन्दर' का महिलाओं के जिम्मे होता है) पुरुष भी, जिनमे आमतौर पर युवा लड़के ज्यादा होते हैं, अपने दोस्तों के कन्धों पर हाथ रखे चहलकदमी करते हैं।<br />जितनी दुकानें सब्जियों और अनाज की होती हैं, लगभग उतनी ही कपड़ों, और आईना, बिंदी, चूड़ी<span></span>, रुमाल, कंघी,पिन, तेल, चप्पल, आदि की होती हैं... ये सभी दुकानदार एक बजार से दूसरे बजार घूम घूमकर<span></span> <span>अपना</span> <span>धंधा</span> <span>करते</span> <span>हैं</span>।इनके आगे लटके रंग-बिरंगे रुमाल सहज ही ध्यान खींचते हैं(बुंदेलखंड-महाकौशल में लगभग हर मर्द के गले में एक गमछा-रुमाल जरूर होता है, जो तौलिये, चादर, पोटली, रस्सी, और सिर ढंकना आदि के बहुउपयोगी अवतार में इस्तेमाल होता है)<br /> बजार के लिए लोग सज-सवंर कर तैयार होते, यह एक ख़ास मौक़ा होता है गाँव के जीवन में. मुझे आज भी याद है कि रविवार दोपहर हम सब नहा-धोकर सिर में खूब सारा खोपरे का तेल चुपड़ कर साबुत कपडे पहन कर बजार जाने के लिए तैयार हुआ करते थे, (हम में से ज्यादातर के पास केवल एक जोड़ी साबुत-फिट बैठने वाले कपडे थे-स्कूल की यूनिफार्म, आज भी स्थिति कुछ ज्यादा बदली नहीं है) खाकी पैंट और सफ़ेद शर्ट से सुसज्जित चार पांच नन्हे हीरो अकड़ कर निकलते थे, अपने उन छोटे भाई बहनों की तरफ गर्व से देखते, जो अभी बजार जाने की उम्र के नहीं थे। बजार में अलग-अलग चीज़ों की दुकानों को जी भर के देखने के बाद हम पैसे मिलाते और ४-५ रुपये का नमकीन खरीद कर खाते। उसके बाद धुंधलके में धीरे-धीरे गाँव की ओर चल पड़ते, रस्ते में गाँव के लोग मिलते, कुछ हंसी मजाक होता (आजकर ज्यादा हंसी मजाक मेरे विशाल डील-डौल पर होता है) और दिन ढलते सब घर पहुँचते, जहाँ बच्चे सबसे पहले झोलों पर झपटते, जहां नमकीन, जलेबी या कोई और चीज़ उनके लिए रखी होती। मजदूरी के पैसे भी बजार के ही दिन मिलते हैं। गाँव के लोग अपनी वनोपज वगैरह बेचने के लिए लाते हैं और बदले में अपनी जरूरत का सामान ले जाते हैं।<br />बजार में आस-पड़ोस के गाँव के लोग मिलते हैं, महिलाएं एक तरफ खड़े होकर घर-परिवार की, गाँव की बातें करती हैं, दुःख और सुख साझा किये जाते हैं। इनमे से ज्यादातर गाँवों में किराने की दुकानें नहीं होती थी, इसलिए बजार एक तरह से "बाजार" की उनके जीवन पर एकमात्र दस्तक थी जिनकी ज्यादातर जरूरतें खेत और जंगल पूरा किया करते थे। लालमिर्च, मसाले, कनकी(चावल की चूरी) और कुछ सब्जियां लोगों के झोलों में झाँकने पर दिख जाएंगे। बजार में ही आदिवासी युवक-युवतियों के माँ-बाप उन्हें एक-दूसरे से मिलाने के लिए लाते हैं, सम्भावित रिश्ता पक्का होने से पहले। चूंकि आदिवासी समाज में प्रेम-विवाह भी प्रतिबंधित नहीं है हालांकि उन्हें प्रोत्साहित नहीं किया जाता, इसलिए अनेक प्रेम-कथाओं का जन्म भी बाजारों में हुआ है॥<br />अपनने बहुत पहले से घर की सब्जी लाने का जिम्मा उठा लिया था, इसलिए आज भी छुट्टियों के दौरान बजार जरूर जाते हैं, और आते-जाते चेहरों में कोई परिचित चेहरा ढूंढते रहते हैं। सब्जियों के बढ़ते दामों को कोसते-कोसते अक्सर ही कोई छठी-सातवीं का सहपाठी मिल जाता है, जिसके चेहरे को ध्यान से देखने पर नाम याद आ जाता है। हाल-चाल पूछने के बाद थोड़ी देर उन दिनों को याद करते हैं जब दोनों निक्कर पहने दुनिया भर की हांका करते थे और यह महसूस कर अजीब लगता है कि अब जब दुनिया देखने के दिन आये हैं तो हांकने के लिए कुछ मिल नहीं रहा है।<br />पिछले बजार किरार सर मिल गए थे, जो हमारे मिडिल स्कूल में अपने सवा पाव के हाथ के जोर पर गधों को घोड़ों में बदलने की घुडसाल आज भी चलाया करते हैं, सर ने ये उम्मीद जाहिर की कि अपन उनका नाम रोशन करेंगे, (अपन को स्वयं प्रकाश की एक कहानी याद आ गयी, जिसमे एक बच्चा सोचता है कि वो अपने बाप के नाम का बोर्ड लगवा कर उस पर रंग-बिरंगे बल्ब लगवा देगा) अपन ने एक विनम्र मुस्कान से काम चलाया।<br />बजार भी बदल रहे हैं, दुनिया भी बदल रही है, उम्मीदें लम्बी चौड़ी हो रही हैं और अपन १० रुपये के सवा किलो टमाटर खरीदकर खुल्ले पैसों के लिए बहस कर रहे हैं...iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-77154245569694584112011-05-30T00:44:00.000-07:002011-05-30T01:30:05.306-07:00न लिख पाने के खिलाफ/ ग्रेट एक्सपेक्टेशन्सयह तो बड़ी ही अजीब बात मानी जाएगी कि ज़िंदगी में बिना कुछ ज्यादा लिखे हुए ही 'राइटर्स ब्लोंक' हो जाए। दरअसल असल कारण राइटर्स ब्लोंक नहीं बल्कि लिखने की आदत नही होना है। बहरहाल पिछले 20-एक दिन से गाँव में घर पर रह रहा हूँ छुट्टियों में, रोज़ दिन में चार-पांच बार कुछ न कुछ लिखने का ख़याल आता है लेकिन टाल जाता हूँ। आमतौर पर दिमाग में "अहा ! ग्राम्य जीवन" जैसी चीज़ें ही आ रही हैं जो कि साल भर दिल्ली में रहने के बाद काफी स्वाभाविक हो जाता है। लेकिन मैंने ठान लिया है कि अभी के लिए अहा ग्राम्य जीवन से हटकर कुछ कोशिश करूंगा। गर्मी के कारण घर से निकल भी नहीं रहा हूँ, इसलिए भी लिखना बंद है, अगर ज्यादा लोगों से बातचीत हो तो दिमाग में ज्यादा हलचल होती है। पहले कई बार नदी के या तालाब के किनारे बैठकर लिखने की कोशिश की, जब पुरी और मुंबई गया था तो वहाँ समुद्र के किनारे भी लिखने कि कोशिश की, लेकिन कलम ने चलने और शब्दों ने बहने से इनकार कर दिया। कई बार 4-5 लाइन लिख कर छोड़ दिया... बस बैठकर शून्य में ताकता रहा। वैसे सच कहूं तो समुद्र किनारे कुछ लिखने से कहीं ज्यादा सार्थकता लहरों में पैर भिगोने में है..<br />वैसे इन दिनों स्थानीय रेडियो स्टेशन अपने क्षेत्र के लोकगीत सुन कर बहुत मज़ा आ रहा है, और कुछ लोक-गायकों से मिलने की तमन्ना है, लेकिन अभी कोई प्लान नहीं बन पा रहा है।<br />पिछले दिनों डिकेंस की 'ग्रेट एक्सपेक्टेशन्स' पढी और खूब मजे से एक ही बैठक में पढ़ गया, अपने नायक 'पिप' की दुविधा के माध्यम से डिकेंस ने एक जबरदस्त रूपक गढ़ा है, जो 'सभ्य समाज' की जड़ों को दिखलाता है... एक साधारण लोहार परिवार में पला-बढ़ा पिप सभ्य, पढ़ा-लिखा और अमीर बनने के चक्कर में अपने सीधे -साधे परिजनों से नाता तोड़ लेता है, लेकिन जब उसे पता चलता है की उसकी अमीरी के पीछे एक सजायाफ्ता कैदी की गुमनाम मदद है, और साथ ही उसके सामने तथाकथित सभ्य लोगों की ज़िंदगी का लिजलिजा और टुच्चा यथार्थ आता है तो उसकी आँखें खुल जाती हैं, लेकिन तब तक वापसी के लिए बहुत देर हो चुकी होती है।<br />मुझे ऐसा समझ में आया कि ये उपन्यास प्रतीकात्मक ढंग से यह कहता है कि तथाकथित कुलीन वर्ग वास्तव में अपराध और अन्याय के पैसों पर खडा है, और उसके ढाचे को सरासर नाजायज़ ठहराता है..<br />उन्नीसवी सदी के ब्रिटेन में बसे पात्र मुझे आज भी बहुत ही सच्चे और जाने-पहचाने लगे, फिर चाहे वो झूठी गवाही दिलवाने वाला वकील हो, या अपने अभिजात्य वंश के गरूर में पगलाई माँ और नौकरों की दया पर पलते उसके बच्चे...<br />अब मन बनाया है कि डिकेंस की कुछ और रचनाएं पढूंगा। 'पिक्विक पेपर्स' पढना शुरू किया है।<br />वैसे छुट्टियों का "सदुपयोग" क्या होता है? अपन की छुट्टी तो किताब के पन्ने पलटते और घर के छोटेमोटे काम निपटाते हुए ही निपट जाती हैं, या फिर घूमते-फिरते।<br />एक नाटक करने का मन था लेकिन एक तो गर्मी जबरदस्त है और ऊपर से लोग शादियों में व्यस्त हैं, अपन भी थोड़े -बहुत व्यस्त हैं घर में कुछ निर्माण कार्य चल रहा है, वैसे उसका ज्यादा भार तो बाबा पर है।<br />न लिख पाने के कारण इतना सरपट लिख दिया, बेतरतीब सा। देखिये आगे कितना लिख पाता हूँ...iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-72383289619375471442011-04-24T06:12:00.000-07:002011-04-24T06:14:30.517-07:00मन-सुरंग<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; ">कभी कभार भीड़ भरी गलियों में एकांत कहीं ज्यादा जीवंत हो उठता है और कभी कभी एकांत में ख्यालों की भीड़ चैन नहीं लेने देती. ढर्रों पर टिकी ज़िंदगी के फर्श में दरारें ही दरारें हैं, जिनमे झांकते डर लगता है. सालों साल किसी अँधेरे, छुपे कोने से लोगों और चीज़ों को ताकते रहने का अनुभव अंतर्मन को पपड़ीदार बनाने के लिए काफी है. <div>गीत हैं, हर एकाकी क्षण के साथी. गुनगुनाना प्रार्थना नहीं है, न ही चुटकुला, वह तो बस एक और आदत है, अलबत्ता आदतों में इसकी जगह बहुत ऊपर है. <div><div>भटकना जगहों से जगहों तक, विषयों से विषयों तक, चेहरों से चेहरों तक और आवाज़ों से आवाज़ों तक, हर एक ठिठकन अगली भटकन की भूमिका भर है, </div><div>अरमान भी हैं, लेकिन वो बड़े पाजी गिरगिट हैं, </div><div>उम्मीद हर अगली परछाई में है, वह मरीचिकाओं में अठखेलियाँ करती है... वह रेगिस्तानों में इन्द्रधनुषों की तस्वीर है, वह किसी सरकारी स्कूल की बाउंड्री वाल पर उगता पीपल है. वह पतंग है...जो आसमानों में डूब उतरा रही है, </div><div>मैं ढील दिए जा रहा हूँ, मेरी गर्दन अकड़ गयी है, प्यास से गला भी सूख रहा है, आँखों में सूरज जल रहा है ...</div></div></div></span>iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-81872717084093117452011-04-08T23:31:00.000-07:002011-04-08T23:33:27.792-07:00मुझे असंभव, एकाकी सपनों में जीना है..<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; ">ज़िंदगी बहुत ठोस खुरदुरी और पथरीली <div>धरती गड़ती मेरे पांवों में,</div><div>यथार्थ घेर लेता मुझे अकेला पाकर </div><div>खड़ी कर देता दीवारें, पिंजरे </div><div>मन पंछी के लिए,</div><div>दिन-ब-दिन कितने दिन ले आते खींचकर </div><div>किस्से अनेक, अनेक अजनबी, <br />टटोलता खंगालता संभावनाओं को मैं, </div><div>सोचता बातें अनकही-अनबनी-अधबनी,</div><div>झल्लाता नाहक, अपनी सीमाओं के जाल </div><div>को झकझोरता,</div><div>पर अब ख़्वाब भी बोझिल-झिलमिल पलों </div><div>की कड़ी में पिरोना है, </div><div>किसी अकेली धुंधली भोर में, जब खटरागी </div><div>मेले- झमेले सो रहे हों,</div><div>कुछ सोचकर-बटोरकर,</div><div>फिर अव्यक्त आशा-उल्लास से भर जाना है, </div><div>मैं न भागूंगा समय और परिस्थितियों से, </div><div>लेकिन तुम यह जान लो, कि अब </div><div>चुपके-चुपके, </div><div>मुझे असंभव, एकाकी सपनों में जीना है </div></span>iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-57707358155626631292011-04-03T23:11:00.000-07:002011-04-04T00:15:50.943-07:00हाफ पैंट में जादुई यथार्थवाद<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhzSo2ussgK9cd6_xDf01dEywzsn4F_4I3Z7z1ghnWvE8YyWyCxJHeUSDIkpdqd0FgiuQZxjcyTB0WI4OQKOiouxzOrM2z5yzzBUrtu7tH99K2CGXCVrtNYhBGrMIicuBLh4ghCNkwgYXk/s1600/index.jpeg"><img style="cursor: pointer; width: 270px; height: 186px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhzSo2ussgK9cd6_xDf01dEywzsn4F_4I3Z7z1ghnWvE8YyWyCxJHeUSDIkpdqd0FgiuQZxjcyTB0WI4OQKOiouxzOrM2z5yzzBUrtu7tH99K2CGXCVrtNYhBGrMIicuBLh4ghCNkwgYXk/s320/index.jpeg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5591623201258382322" border="0" /></a><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi4beQz0o7gfH_euoxrS_XExujs9xhrgnIUgyctTfvllG3FPTHpbYMCpyTUcLx6cLhyphenhyphenqwlJ3VBo_AH-RdvT8BnkZaAy4WLl-wVtff42XugQkyXy16nreL1esgGtGdfsCc25x_qns8_0aMI/s1600/images.jpeg"><img style="cursor: pointer; width: 259px; height: 194px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi4beQz0o7gfH_euoxrS_XExujs9xhrgnIUgyctTfvllG3FPTHpbYMCpyTUcLx6cLhyphenhyphenqwlJ3VBo_AH-RdvT8BnkZaAy4WLl-wVtff42XugQkyXy16nreL1esgGtGdfsCc25x_qns8_0aMI/s320/images.jpeg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5591623201766543122" border="0" /></a><br />अप्रैल का महीना है, गाँव शहरों, सुनसान गलियों और व्यस्त बाज़ारों में फिर धूल उड़ने लगी है। उपमहाद्वीप की चार महीने की अभूतपूर्व गर्मी जल्द ही अपनी पूरी प्रचंडता के साथ आ पहुंचेगी। कैम्पस में बोगनवेलिया के फूल छाए हुए हैं और पेड़ों से गिरे पत्ते मुंह और बालों से उलझते फिरते हैं.. दोपहर को अब वही चिरपरिचित सन्नाटा चुपचाप आकर घेर लेता है, जो बचपन से ही हर गर्मी दिलो-दिमाग पर घर कर लेता है।<br />मैं अगर अब किसी दोपहर आँख बंद कर लूं तो मैं उसी धूल भरे गाँव के किसी घर में चुपचाप अपने आप से कंचे खेलता पाया जाऊंगा, जहां अधिकाँश माँ-बाप सो रहे हैं, और कुछ किसी कोने में बैठ कर चुप-चाप कुछ गप-शप कर रहे हैं। लू के साथ धूल के बवंडर उठाते हैं जो मिट्टी की दीवारों और नन्हे दरवाजों को हराकर घरों के अन्दर तक घुस जाते हैं। माँ-बाप की बाहर न जाने की सख्त हिदायत को जीवन का एक अभिन्न निंदनीय अंग मानते हुए चांडाल-चौकड़ी चुप-चाप बेआवाज़ घरों से बाहर निकल आती है, और फिर या तो पेड़ों से कैरी तोडना या फिर कंचे, पत्ते, छुपन-छुपाई, पिट्टू (सितौलिया) या कोई और खेल खेलना, यही परम धर्म है। और जब भोंपू की आवाज़ कानों तक पहुँचती तो फिर एक रुपये वाली पनीली तथाकथित 'कुल्फी' का अविराम सेवन करना, जिससे पीलिया और हैजा होने की अपार संभावनाएं जताई जाती हैं।<br />तब ये नहीं पता था कि इंसानी ज़िंदगी में इतने दांव-पेंच होते हैं। तब किसी शाम को यह संभावना नहीं होती थी कि आप इस पर विचार करें कि बोर्खेस में जादुई यथार्थवाद किस तरह परिलक्षित होता है। तब जादुई यथार्थवाद किताबों में खोजना नहीं पड़ता था, वह तो दैन्दिनी ज़िंदगी का हिस्सा था... जब गाँव से स्कूल की और चलते थे तो मुझे याद पड़ता है कि हम सभी जादुई यथार्थवाद के बहुत बड़े समर्थक और प्रचारक हुआ करते थे। (हालाँकि नोबेल कमेटी को हमारी प्रतिभा जानने में अभी वक़्त लगेगा) मुझे याद पड़ता है कि मैंने घर से स्कूल की ओर चलते हुए जादुई यथार्थवादी एक कहानी बनाई थी, जिसमें हमारे ही गाँव के एक लड़के को आंधी उड़ाकर एक किलोमीटर दूर ले गयी थी, और चूंकि उस प्रकार के बवंडर (भंगुरिया) का केंद्र एक भूत माना जाता था, अतः उसके बाद भूत और लड़के की बातों का विषद चित्रण और तत्पश्चात उस लड़के के छूटने का प्रसंग बताया गया था, और चूंकि कथा नायक एक जीता जागता लड़का <span>था.</span> (जो सौभाग्य से उस वक़्त गवाही देने के लिए उपलब्ध नहीं था) अतः हमारे साथी आलोचकों ने न केवल इस कथा पर पूरा विश्वास किया बल्कि उसे हाथों-हाथ लिया।<br />किस्से-कहानी इतने थे कि ख़त्म होने का नाम नहीं लेते थे और आज अगर याद करने बैठूं तो उन कहानियों की बहुत धुंधली सी ही याद है, विजयदान देथा जी की लोक-कथाओं से कुछ मिलती जुलती होती थीं वो। शायद अब भी जाकर गाँव में किसी अलाव के पास ठण्ड में बैठूं या गर्मी में किसी आम के पेड़ के नीचे, तो फिर उन्हें जी सकूंगा, लेकिन अब मेरा सिनिकल दिमाग शायद उन्हें एक वयस्क पढ़ी-लिखी नज़र से देखेगा। उनका साहित्यिक मूल्यांकन और तारीफ तो अब मैं कर सकता हूँ, लेकिन अब मैं विश्वास कैसे करूंगा कि धूप में बारिश होने पर लड़ैया(सियार) की शादी होती है...<br />अब जब कभी तालाब के किनारे बैठे हों और पुराने यार-दोस्त मिलते हैं तो यही बातें होती हैं रोजी-रोटी हालचाल की, उनमे से ज्यादातर अब मेहनत-काम धंधे से लग गए हैं, और अपन यूनिवर्सिटी में बैठकर किताबें चाट रहे हैं।<br />सोचता हूँ इस बार जब गर्मी में घर जाऊंगा तो जाकर जुगन दादा की डैम के पास वाली टपरिया में बैठकर जादुई यथार्थवाद पर विचार करूंगा, देखते हैं बोर्खेस और पप्पू भैया में से किसका पलड़ा भारी बैठता है....iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-39855516203068480182011-03-19T20:18:00.000-07:002011-03-19T20:32:29.817-07:00होली पर ऐंवें ही....<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgvxraVRNX13JfiAvW2QHKBjFQuP2TRqYZQhpeVRiHGB47auBUTVY6NVV0s0cZpIV5CG8a1uNGj3E0GqV1SeSTFarRpoxcNYs99WauIcJoOS8Yt3iesv32yI36bdkLzabuuwHmS9Zi_fkA/s1600/IMG_4790.JPG"><img style="cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgvxraVRNX13JfiAvW2QHKBjFQuP2TRqYZQhpeVRiHGB47auBUTVY6NVV0s0cZpIV5CG8a1uNGj3E0GqV1SeSTFarRpoxcNYs99WauIcJoOS8Yt3iesv32yI36bdkLzabuuwHmS9Zi_fkA/s320/IMG_4790.JPG" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5585998430930535730" /></a><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhd4bKysQj4p43pEJjsoIQe-aW4pRUFr2Hms-G4u8NiOk-XdApM4pTfYRtLLWqm4NSDRV_7_rsBLF0i8Vzzn1y47eDAYeeCHQIR9fj7HL0WG78FkV47l36vVQl2Zm_HsWK6bdOt0IjomKg/s1600/IMG_4820.JPG"><img style="cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhd4bKysQj4p43pEJjsoIQe-aW4pRUFr2Hms-G4u8NiOk-XdApM4pTfYRtLLWqm4NSDRV_7_rsBLF0i8Vzzn1y47eDAYeeCHQIR9fj7HL0WG78FkV47l36vVQl2Zm_HsWK6bdOt0IjomKg/s320/IMG_4820.JPG" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5585998427950521826" /></a><br /><span class="Apple-style-span" style="color: rgb(51, 51, 51); font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; line-height: 16px; "><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >बने कविता नहीं अगर तो </span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >लिखो ऊट-पटाँग</span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >जो ज्ञान की बातें फांके</span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >खींचो उसकी टांग</span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >पढ़ा ज्ञान सब धरा रह गया </span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >नहीं लगा कुछ हाथ</span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >अब तू बैठा रह गया </span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >झुका शर्म से माथ</span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >रोना रोते रोते जब </span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >भर जाये तालाब</span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >तालाब में मच्छी पकड़ो</span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >ऊँचे देखो ख्वाब </span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >फूले सेमल टेसू फूले,</span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >फूले अपनी तोंद,</span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >झूले भंवरे फूलों ऊपर</span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >भौंक सिपहिया भौंक </span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >मुंह तो काला हो ही जाये </span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >असमानी हों बाल </span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >नाम ख़ाक रोशन करेंगे </span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >अपने जैसे लाल </span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >रंग गुलाल अबीर उड़े और </span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >रहे नहीं कुछ होश,</span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >अबकी होली ऐसे खेलो</span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >हिरन और खरगोश...</span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "> </p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "> </p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" >सबको होली मुबारक !</span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 11px; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><br /></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" ><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; line-height: 25px; color: rgb(0, 0, 0); "><i><span class="Apple-style-span">चश्मे वाली फोटो अपनी है और दूसरी </span></i></span><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; line-height: 25px; color: rgb(0, 0, 0); "><i><span class="Apple-style-span">दोस्त की...</span></i></span></span></p><p style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; text-align: left; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; line-height: 1.5em; "><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; line-height: 25px; color: rgb(0, 0, 0); "><i><span class="Apple-style-span">...</span></i></span></p></span>iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-82586684554205923042011-02-25T22:32:00.000-08:002011-02-25T23:37:33.047-08:00एक्झोटिक होने का सुख...<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZ8AYOF59QQjJHrZdqWDBJr94NVBA7SdpYMkdKdgw2OBjK7e9HCNBDnJ7x5eOooi2eVTk7uLN_eVviq6ALhcaiUlszEh9hjGaSTNUs7DrqowWXEZUaFxNEB4CXcv2Eazb-lte1D1P5MGA/s1600/index.jpeg"><img style="cursor: pointer; width: 259px; height: 194px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZ8AYOF59QQjJHrZdqWDBJr94NVBA7SdpYMkdKdgw2OBjK7e9HCNBDnJ7x5eOooi2eVTk7uLN_eVviq6ALhcaiUlszEh9hjGaSTNUs7DrqowWXEZUaFxNEB4CXcv2Eazb-lte1D1P5MGA/s400/index.jpeg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5577898937294733234" border="0" /></a><br /><div style="text-align: center; font-weight: bold; font-style: italic;"><span style="font-weight: bold;font-size:85%;" >एक<span style="font-weight: normal;"> </span><span style="font-weight: normal;">शब्दकोष</span><span style="font-weight: normal;"> </span><span style="font-weight: normal;">से</span><span style="font-weight: normal;"> exotic </span><span style="font-weight: normal;">का</span><span style="font-weight: normal;"> </span><span style="font-weight: normal;">मतलब</span><span style="font-weight: normal;">: </span><span style="font-weight: normal;" class="ssens"><strong>:</strong> strikingly, excitingly, or mysteriously different or unusual</span></span><br /></div>जब से महानगरीय जिन्दगी की छाया पड़ी है, जीवन कुछ ज्यादा ही फिल्मी लगने लगा है। क्लास जाते हुए लगता है मानों शहसवार मैदाने-जंग की ओर भारी कदमों से बढ़ रहा है, उसके मन में डर भी है लेकिन गर्व से सीना ताना हुआ है, आज कितने भी पिरोफेसर आ जायें, कित्ता भी मध्ययुगीन साहित्य सर पर लाद दिया जाए मैं कर्तव्यपालन से पीछे नहीं हटूंगा<span></span><span></span><span></span><span></span><span></span>। कैम्पस में बेमतलब भटकते हुए लगता है कि सारे कवि-साहित्यकारों का जीवन आप खुद जी रहे हैं, और इसी बेमतलब रगड़ने से आदमी की दार्शनिकता का जन्म होता है, सार यह कि बोरियत दार्शनिकता की जननी है।<br />जिस दिन खाने में कढ़ी हो उस दिन शहीदाना अंदाज़ में ढाबों के आस-पास भटकते हुए लगता है कि जीवन कोई हंसी खेल नहीं..<br />परीक्षा के दिनों में तो सूरत वास्तव में योद्धाओं जैसी होती है, कोई जान पहचान वाला कुछ पूछे उससे पहले ही तड़ाक से कह दिया जाता है, कि भाई साहब परीक्छा चल रई हे अब बताओ का करें,कल जा बिसय को पेपर है, परसों बा बिसय को... ओर बा फलानी मेडम ने तो दिमागई खराब कर डारो... जित्ता पढाबे हे बासे डेढ़ गुना पूछेगी....<br />लेकिन सबसे ज्यादा जो असर या कहें कि विकृति आयी है वह है एक्झोटिक दृष्टि... एक्झोटिक दृष्टि से यह होता है कि आप अपनी आस-पास के नकली वातावरण को असलियत समझते हैं और ज़मीनी हकीकत को एक्झोटिक।<br />नतीजा ये कि बन्दा गाँव जाता है, तो सबसे पहले तो उसे पेड़ एक्झोटिक लगते हैं, फिर जानवर। खुदा ना खास्ता किसी गाय को दुहे जाते हुए देख लिया तो लोग कैमरा निकाल कर फोटो खींचने लगते हैं, अगर ठण्ड में अलाव दिख गया तो मध्यमवर्गीय मन खुशी से उछल उछल जाता है..और हालाँकि अपने महंगे कपड़ों की चिंता करते हुए उन्हें राख और चिंगारियों से बचाते हुए पसर तो नहीं पाता, <span>लेकिन </span>उकडूं बैठे बैठे ही किसी तरह हाथ सेंक कर वह अतीत में गोते लगाने लगता है... अगर गर्मी की रात हो और साफ़ आसमान, तो अचानक एक्झोटिक तारे नज़र आने लगते हैं, और 'हाउ क्यूट' कहते हुए लोग गालों पे हाथ रख लेते हैं...<br />ये तो हुई चीज़ों की बात, सबसे महान एक्झोटिक अनुभव लोगों को लोगों से बात करते हुए होता है। अगर खड़ी <span>बोली </span>के अलावा कोई बोली बोलने वाला कोई खालिस देहाती मिल गया तब तो हमारे नायक का दिल बल्लियों उछलने लगता है वह तोड़-मरोड़ कर उसी बोली में बे-सिरपैर के प्रश्न पूछने लगता है और मन में सोचता है कि वह एक महान युगपरिवर्तनकारी मानवशास्त्रीय-समाजशास्त्रीय (anthropoligical -sociological) प्रयोग का हिस्सा बन रहा है। लोगों को नदी में नहाना महान क्रांतिकारी काम लगता है, हालांकि दिशा-मैदान अगर जंगल में जाना पड़े तो प्रयोगधर्मिता की इतिश्री हो जाती है।<br />लेकिन कभी कभार मक्का की रोटी तोड़ते हुए अचानक तड़ित प्रहार की तरह नायक को समझ आता है, कि ये सब एक्झोटिक नहीं, मैं एक्झोटिक हूँ, मैं असामान्य हूँ, क्योंकि मैं जो अपनी सुरक्षित-सुविधासंपन्न आधुनिक ज़िंदगी जी रहा हूँ, ये खोखली है.... इसमें कोई महक नहीं है, कोई किस्से कहानी नहीं हैं, उल्लास नहीं है, यहाँ तक कि ज़िंदा होने का मतलब भी नहीं है, सब एक महान प्रपंच का हिस्सा है जो हम तथाकथित 'समझदारों' ने अपने मन-बहलाव के लिए गढ़ रखा है। प्रकृति 'एक्झोटिक' नहीं है, वह स्वाभाविक है, हम लोगों ने अपनी ज़िंदगी से प्रकृति और स्वाभाविकता को दोनों को गायब कर रखा है, इसलिए हमें exotic destinations की जरूरत पड़ती है। अगर हम अपने आप को प्रकृति और समाज से जोड़ कर देखेंगे तो सारी एक्झोटिकता पल में गायब हो जायेगी और अकल ठिकाने आ जायेगी..<br /><span style="font-style: italic;">(</span><span style="font-style: italic;">मैंने</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">कहा</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">था</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">न</span><span style="font-style: italic;">, </span><span style="font-style: italic;">बोरियत</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">दार्शनिकता</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">की</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">जननी</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">है</span><span style="font-style: italic;">, </span><span style="font-style: italic;">इस</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">दार्शनिक</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">पोस्ट</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">से</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">यह</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">सिद्ध</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">हो</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">गया</span><span style="font-style: italic;"> !)</span><br /><span style="font-size:78%;">आदतन फोटो गूगल इमेज से चुराया हुआ है..</span>iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-65949961773004126952011-02-08T22:54:00.000-08:002011-02-09T02:53:26.587-08:00सकल बन फूल रही सरसों..<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj8_xVLdA4fBJKxaifJeOgyDfcVQTp0WqMEZsIkYrLppegiyK11sFAtON-0D14kyekOapgiwRbEjVceJRIWJi5ySpSJzOK0WjlWBtdlbxhKzHghjGl0SNIfIweGE3HG7dWkgsnYt5TY9QU/s1600/179030_196665023678769_100000058187985_746112_119044_n.jpg"><img style="cursor: pointer; width: 320px; height: 240px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj8_xVLdA4fBJKxaifJeOgyDfcVQTp0WqMEZsIkYrLppegiyK11sFAtON-0D14kyekOapgiwRbEjVceJRIWJi5ySpSJzOK0WjlWBtdlbxhKzHghjGl0SNIfIweGE3HG7dWkgsnYt5TY9QU/s320/179030_196665023678769_100000058187985_746112_119044_n.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5571637601143059042" border="0" /></a><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEguACdHcrRhgFhQzYEq1L747NFOh0_01z4WTAZCsmY9SLZpb3kb-5ppqlxLvRButrnbgdvg-p0LMmKhFuVl9a2VsencjbbGEp-eNOiejjCxKh0uQMSvxWKe9yBXb1jqsWJlucPgh8YCko8/s1600/179030_196665027012102_100000058187985_746113_5183782_n.jpg"><img style="display: block; margin: 0px auto 10px; text-align: center; cursor: pointer; width: 320px; height: 240px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEguACdHcrRhgFhQzYEq1L747NFOh0_01z4WTAZCsmY9SLZpb3kb-5ppqlxLvRButrnbgdvg-p0LMmKhFuVl9a2VsencjbbGEp-eNOiejjCxKh0uQMSvxWKe9yBXb1jqsWJlucPgh8YCko8/s320/179030_196665027012102_100000058187985_746113_5183782_n.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5571637363929989986" border="0" /></a><br /><br /><br /><span> अध्यात्म</span> और मेरा हमेशा छत्तीस का आंकडा रहा है, कुछ का कहना है कि अभी तुम्हारी उम्र नहीं है समझने की। अपन को कुछ समय पहले तक तो कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता था जब बात कुछ दार्शनिक और गहरी हो चली हो..यही कारण है कि उपन्यास छोड़ कर गिनी-चुनी चीजें ही पढ़ी हैं।<br /><span> खैर</span> वाकया यह है कि कुछ दोस्तों के साथ हजरत निज़ामुद्दीन की दरगाह जा <span>पहुंचा </span>परसों, वहाँ 'बसंत' मनाया जा रहा था। यह जानकारी फेसबुक से मिली.<br /><span> इसके</span> मनाने के पीछे कहानी यह है कि एक बार हजरत निजामुद्दीन अपने भतीजे कि मौत से गहरी उदासी और शोक में डूब गए ..न किसी से मिलते थे, न बात करते थे, न मुस्कुराते थे। यह देख कर अमीर खुसरो, उनके सबसे प्यारे मुरीद बहुत परेशान थे..इसी उधेड़बुन में कहीं जा रहे थे कि देखा कि कुछ औरतें चटख पीले कपडे पहने कुछ गीत गाती हुई जा रही थीं। खुसरो ने पड़ताल की तो पता चला कि यह बसंत मनाया जा रहा है।<br /><span> अब</span> खुसरो ने अपने प्यारे औलिया को मनाने के लिए अन्य मुरीदों के साथ वही बसन्ती बाना ओढा..और उन्ही गानों को अपनी तर्ज पर गाते हुए उदास संत के पास पहुंचे. जब महीनों से गम में डूबे हजरत ने अपने मुरीदों का ये लिबास देखा और उनके गाने सुने तो कई दिनों में पहली बार उनके चेहरे पर मुस्कान खिल उठी और उन्होंने अपने प्यारे शिष्य और दोस्त को गले लगा लिया।<br /><span> वो</span> दिन था और आज का दिन..हर साल बसंत पंचमी के मौके पर हजरत निज़ामुद्दीन औलिया के दीवाने सरसों के रंग का दुपट्टा ओढ़कर उनके दरबार में सरसों के फूल लेकर हाजिर होते हैं, और अपने दरवेश को बसन्ती गाने सुनाते हैं।<br />सूफी परंपरा को लेकर जो कुछ मालूम है, वह स्कूली किताबों के पन्नों से ही आया है, और ईश्वर की प्रेमिका-रूप में कल्पना-वन्दना, इश्क हकीकी और इश्क मजाजी, इंसानों की आपसी मोहब्बत पर जोर देना आदि बातें दिमाग में कुछ खाली शब्दों के रूप में ही मौजूद थी।<br /><span> मन</span> में कुछ बेजोड़ सूफी गायकी सुनने का लालच लिए पहली बार निजामुद्दीन दरगाह पहुंचा..एक संकरी गली से होते हुए दरगाह के बाहर पहुँचते ही, फूल चढ़ाइए, चादर चढ़ाइए, प्रसाद चढ़ाइए की आवाजें देते हुए दुकानदार दिखाई दिए। हर बड़े मंदिर, मस्जिद और मज़ार की तरह यहाँ भी श्रद्धा और आस्था के कारण कितने ही लोगों की आजीविका चलती है। एक बेंत की डलिया में फूल, प्रसाद और अगरबत्ती लिए हम तीन अन्दर पहुंचे। काफी लोग थे पर फिर भी वैसी घबरा देने वाली भीड़-भाड़ नहीं थी जैसी हो सकती थी। मैंने चुपचाप मत्था टेका, फूल चढ़ाए और एक धागा भी बांधा। लेकिन क्या माँगू ये समझ में नहीं आया... हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि....<br /><span> बचपन</span> से ही जब भी भूले-भटके मंदिर-मजार-गुरुद्वारे में घुसा तो हाथ जोड़ दिए, मत्था टेक दिया और कभी टीका भी लगवा लिया। सबसे अलग नज़र न आऊँ इसीलिए चुपचाप सर झुका लेता था ..प्रसाद का लालच भी रहता था। लेकिन मन में पक्का विश्वास कभी नहीं हुआ कि इस सब का अपने जीवन पर कोई प्रत्यक्ष असर होता भी है। हाईस्कूल में परीक्षा के दिनों में कसबे के बाहर बजरंग मंदिर पर भीड़ बढ़ जाती थी। इसी बहाने हवाखोरी और टहलना भी हो जाता था, दोस्तों के लिए एक प्लस पॉइंट ये भी था कि सहपाठिनें भी मंदिर आया करती थीं। अपन ने वहां नारियल भी फोड़े कई और आरती भी करवाई।<br /><span> बहरहाल</span> हम दरगाह के आँगन में जा बैठे और लोगों को देखने लगे, कुछ देर बाद मुरीद या कव्वाल दाखिल हुए और चटख सरसों के रंग के दुपट्टे बांटे गए जो ख़ास लोगों को ही दिए गए... कुछ बच्चे थे हाथ में सरसों के फूल लिए हुए। आदमी औरत सब इकठ्ठा थे, और गाना शुरू हुआ। पहले मज़ार के अन्दर और फिर बाहर करीब बीस कव्वालों ने समाँ बाँध दिया। इनमे पांच साल से लेकर पचास साल के कव्वाल शामिल थे। पता चला कि कच्ची उम्र से ही ये शागिर्द गाना सीखते हैं.<br />जब स्वर उठते थे तो मानों लहर सी आती थी, चूंकि एक ही पंक्ति को अलग अलग गायक आगे-पीछे दोहराते थे, खींचते थे और उससे खेलते थे। अपने आप हाथ ताल देने लगे और गर्दन झूमने लगी। अपनी तथाकथित बौद्धिकता हवा हो गयी...और मन मयूर बसन्ती ताल पर नाचने लगा...<br /><span> लेकिन</span> यह करीब दस पंद्रह मिनट ही चला, फिर वे खुसरो की मज़ार पर गए। खुसरो, जिसने 'हिन्दी' कविता और हिदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की नींव रखी और जो आज भी अपने हरदिल अज़ीज़ गुरु से कुछ गज दूरी पर ही लेटा हुआ है...<br />एक घंटे में कार्यक्रम ख़त्म हुआ, जिस दौरान फोटो भी खींचे गए और कुछ 'पहुंचे हुए' लोग भी पहुंचे थे। जब मैं खुसरो की कब्र पर सर नवा रहा था तो मैंने एक औरत को देखा जाली के पार रो रही थी..और 'मेरे ख्वाजा' को संबोधित कर अपने दर्द बयान कर रही थी।<br /><span> मैं</span> अपने मन में यही सोचता हुआ वापस अपनी आधुनिक दुनिया में लौटा, कि काश मुझे भी इतना विश्वास किसी पीर पर होता कि मैं अपनी पीर उससे बयाँ कर लेता।<br /><span> सूफी</span> मत का वह प्यार जो किसी अमूर्त के प्रति है, वह मानव-मात्र से प्रेम में बदल जाता है, और भाव-विह्वल कर देता है। क्या आस्था को सिर्फ अंधविश्वास, कर्मकांड और पाखण्ड से परिभाषित किया जा सकता है?<br /><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><span></span><br /><span> इससे</span> ज्यादा गहरे जाऊंगा नहीं, अभी मेरी उम्र नहीं है.... :)<br /><a href="http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%95%E0%A4%B2_%E0%A4%AC%E0%A4%A8_%E0%A4%AB%E0%A5%82%E0%A4%B2_%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A5%8B%E0%A4%82_%2F_%E0%A4%85%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%96%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8B"><span>सकल</span> <span>बन</span> <span>फूल</span> <span>रही</span> <span>सरसों</span></a><br /><span style="font-size:85%;">(दोनों फोटो अपनी दोस्त के मोबाइल कैमरे के हैं)</span>iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-63274423667085654702011-01-31T11:19:00.000-08:002011-01-31T11:48:21.797-08:00प्रेम कविता<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjE5_g5Etu6QUKOYEwWG-8-f6gBl0nBampjydtA9nTjx12PexPyQXGDK03RUFmwGI0h5pxUTj7nOKSBsZfOhgrP-06IYR1X3uHc2RnGoWqXNYrZxWDS-DJ0bymN-mDZDiwmGHdLck7fUDY/s1600/images.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 280px; height: 180px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjE5_g5Etu6QUKOYEwWG-8-f6gBl0nBampjydtA9nTjx12PexPyQXGDK03RUFmwGI0h5pxUTj7nOKSBsZfOhgrP-06IYR1X3uHc2RnGoWqXNYrZxWDS-DJ0bymN-mDZDiwmGHdLck7fUDY/s320/images.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5568438756225497010" /></a><br /><br /><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; "><i>पिछली पोस्ट पर कुछ अपनों की ही लानत-मलामत आयी है, कि व्यंग्य लिखना ही है तो कुछ गहराई से लिखो, जिससे कुछ निकल कर आये. सोचने पर मुझे भी लगा कि मैंने कोई बहुत गंभीरतापूर्वक नहीं लिखा था, बस दिल की भड़ास निकाली थी. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या ब्लॉग पर अपनी भड़ास नहीं निकाली जा सकती? सिर्फ इसलिए कि वह 'सार्वजनिक' मंच है. खैर अपन अभी कोई इत्ते तीसमारखां है भी नहीं कि किसी को फर्क पड़े, सो जो मन में आएगा लिखा करेंगे... </i></span><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; "><i> फिलहाल अपनी एकमात्र टूटी-फूटी नौसिखिया-नुमा प्रेम-कविता लगा रहा हूँ, जो करीब छह महीने पहले लिखी थी.</i><div><br /></div><div><b>प्रेम कविता</b>,</div><div>प्रेम कविता कैसे लिखूं?</div><div>कैसे करूँ बयाँ?</div><div>जो भरा है मन में, जो उमड़ आता है गले तक,</div><div>जो छलक आया है चेहरे पर, ज़िंदगी में,</div><div>कुछ लफ्ज़, कुछ पक्तियां,कुछ पृष्ठ,</div><div>या कुछ नहीं,</div><div>उपमाएं, रूपक </div><div>कुछ भी तो नहीं,</div><div>कोई गीत जो गुनगुना सकूं तुम्हे याद करते हुए,</div><div>लिख बैठूं कुछ ऐसा जो पहले न लिखा गया हो,</div><div>हमारे बीच जो कुछ है,</div><div>या अनुपस्थित है उसे आकार दूं.</div><div>उतार दूं कागज़ पर,</div><div>दूरियों और नजदीकियों के नक़्शे,</div><div>बस अब हार बैठा मैं,</div><div>फेंक कर कागज़ कलम,</div><div> कर ली हैं बंद आँखें </div><div>और तुम्हारा मुस्कुराता हुआ चेहरा सामने है,</div><div>कविता प्यार की न लिखी जायेगी आज. </div></span></div>iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5546299749751746757.post-33853161392206694652011-01-29T08:38:00.000-08:002011-01-29T08:59:17.671-08:00'यमुना तट पर लेनिनवा बंसी बजाए रे'<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; line-height: 25px; "><i><span class="Apple-style-span" >ये पोस्ट '<a href="http://www.youtube.com/watch?v=B1-jnZXY_q0">असुर</a>' के लिए है, जिनके एक व्यंग्य गीत से इसका विचार उपजा.</span></i></span><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: arial; font-size: 14px; line-height: 25px; "> सुबह जब रामभरोस काम पर जाने के पहले रोटी खा रहा था, तो उसकी औरत ने उससे पूछा..."सुनो, जे असली क्रांतिकारी कौन है?" रामभरोस ने अपने हाथ का कौर रोककर कहा अरे का बात करती हो? दूर लाल देश में लाल किताब में लिखे को जो लाल कोठी में बैठे-बैठे बांचत हैं, वही असली क्रांतिकारी हैंगे , इस पर सुमरती ने मुंह बिचकाया ओर कहा हटो..आप तो हर चीज़ को हलके-फुल्के में लेत हो..मेरी समझ में तो जो एकई जगह पर बैठ के पूरे देश-दुनिया की क्रान्ति को भविष्य बता दे वही क्रांतिकारी वास्तव में दमदार होत है. ओर हाँ सुनो ज़रा बाजार से आलू-प्याज लेते अइयो.., इस पर रामभरोस भड़क उठा, "अरे ओ क्रान्ति की अम्मा.. प्याज कहाँ से लाऊं? प्याज खरीदने जितनो बैंक बैलेंस नहीं है मेरो . तू खुद ही देख लइयो, जब खेत की तरफ जाएगी" . यह कहकर मन ही मन माओ का भजन करता हुआ वह मजदूरी करने चल पडा. <div> इधर सुमरती ने भी झटपट तगाड़ी उठाई...और 'यमुना तट पर लेनिनवा बंसी बजाए रे' गुनगुनाती हुई खेत को चली, रस्ते में उसे रामप्यारी मिल गयी, रामप्यारी ने बातों ही बातों में उससे पूछ लिया, कि द्वंदात्मक भौतिकवाद का जो त्रोत्स्कीवादी स्वरुप है उस पर उसके क्या विचार हैं, साथ ही बबलू के ताऊ की लम्बी बीमारी पर भी बात हुई, सुमरती ने पसीना पोंछते हुए कहा... 'देख री, मोहे गलत मत समझियो, पर जे त्रोत्स्की वाले लच्छन हमें कोई ठीक न लगत हैं, हम तो जेई कहें कि जा कछु वा बड़ी किताब में लिखौ है, बई होगो. अब होनी को कोई टार सकत है? अब तुमई बताओ, हमरी भूरी गैया २ किलो दूध देत थी, मगर हमने कितनो इलाज कराओ...पर बेचारी चल बसी'.... एक गहरी उसांस भर दोनों ने अपनी अपनी राह ली.</div><div> इधर भूरी, लखन, सुरेश और साबित्री क्रांति-क्रांति खेल रहे थे... इसी बीच भूरी ने लखन को धक्का देकर गिरा दिया, जिससे लखन गुस्से से आग-बबूला हो गया और बोला..-मेंहे तो पेले सेइ पता थो, कि तू प्रतिक्रांतिकारी बुर्जुआ जासूस हैगी .. तू पेटी बुर्जुआ भी है और तेरी नाक भी बह रही है. इस पर भूरी का भाई चमक कर बोला 'तू भी तो कुलक हैगो, निक्कर तो संभाल नई सकत, बड़ो आओ क्रांतिकारी' ! और इस तरह अचानक, क्रांतिकारी और बुर्जुआ ताकतों में संघर्ष छिड़ गया... गुलेल की नली से क्रांति निकलने को ही थी की माँ-बाप ने आकर उन्हें छुड़ाया...</div><div> और इस तरह महान क्रान्ति का एक और नया अध्याय लिखते लिखते रह गया.</div><div> <br /></div></span></div>iqbal abhimanyuhttp://www.blogger.com/profile/15082145353058329783noreply@blogger.com1