गाँव और शहर दोनों में सालों-साल रह लेने के बाद दोनों की तासीर, कम से कम अपने मिजाज़ के मुताबिक़ तो मुझे समझ में आ गयी है। जैसा कि आमतौर पर सारे लोग कहते हैं, शहर में अकेलापन बहुत ज्यादा है, या यूं कहें कि विश्वविद्यालय में अकेलापन ज्यादा है... गाँव में घर से निकलते ही जाने-पहचाने लोग, जगहें और परिवेश दिखाई देते थे, जिनसे जुड़ाव भी था और आप अनुमान लगा सकते थे कि सामने वाले कि मनोस्थिति-परिस्थिति क्या होगी, किसी से बात-चीत शुरू करने से पहले दस बार सोचना नहीं पड़ता था। विश्वविद्यालय में भी तीन-साढ़े तीन साल रहने के बाद जहां जान-पहचान काफी है वहीं आत्मीयता बहुत ही थोड़े लोगों से, यहाँ भीड़ में भी अपनी ही परछाई दिखाई देती है।
खैर जैसा कि मैंने अपनी पिछली पोस्ट में भी किया था, मुझे अपने नज़रिए की भी थोड़ी छान-बीन करनी होगी॥ जब मैं गाँव में रहता था..तो मेरी उम्र पंद्रह साल से कम की थी, और यहाँ शहर में आकर १७-२० साल, याने अब और तब में बहुत बदलाव मुझमे भी आया है, तब जहां गप्पें लड़ाना और धींगा-मुश्ती ही आनंद की पराकाष्ठा थी, वहीं अब कुछ गहरे स्तर पर समझे जाने, और अपनी अलग पहचान बनाने की भी अपेक्षा शायद कहीं जुडी हुई है। दूसरों के बारे में तरह तरह के पूर्वाग्रह अब पहली मुलाकात से ही दिमाग में घर कर जाते हैं, जो आगे बढ़कर किसी से जुड़ने से रोक देते हैं...
खैर ये तो हुई अपने अनुभव और रिश्तों की बात, वहीं शहर में जो दिन-रात जिन्दगी की जंग में लगे हुए हैं...उनकी और मेरी क्या तुलना? मैं रोज होस्टल का खाना खा के हरे-भरे कैम्पस में टहलता हूँ और अपने तमाम सहपाठियों की तरह व्यवस्था को कोसता हूँ, लेकिन कैम्पस के अन्दर जो मजदूर निर्माण कार्य में लगे हैं, या वसंत कुञ्ज में देश के सबसे महंगे माल के आने से पहले जो झुग्गियां नज़र आती हैं उनके बाशिंदे? जहरीले कचरे के खिलौनों से खेलने वाले और ट्रैफिक सिग्नल पर अंग्रेज़ी की लाइफस्टाइल मैगजीन बेचने वाले बच्चे... उनके पास तो अपना कोई कोना नहीं है, जिसे वे अपना कहकर जुड़ाव महसूस कर सकें... १४ घंटे फैक्ट्री में काम कर लौटने और उमस और गर्मी भरे माहौल में चूल्हे पर खाना पकाने की कोशिश कर रहे मजदूर, की अनुभूति क्या है?
पलायन की त्रासदी और उसके कारणों के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है, और मेरी जानकारी वैसे भी ज्यादा नहीं है। लेकिन यह तो समझ में आता है कि जब गाँव के गाँव ट्रेनों के डब्बों में दब-कुचलकर असहनीय हालात में रहने के लिए महानगरों में आते हैं, तो यह केवल उनकी आजीविका का नहीं बल्कि उनकी पहचान और अस्तित्व का संकट है, गाँव में उसकी पहचान है और अस्मिता है, शहर में एक सिकुड़ा हुआ अस्तित्व... जहां अपने जैसे हज़ारों और तो मिल जायेंगे लेकिन वह अधिकार-बोध कहाँ से आएगा?
यहाँ हिन्दी फिल्मों का एक सन्दर्भ याद आ रहा है..(इससे मेरे मुख्यधारा के सिनेमा के प्रति तिरस्कार को कम न माना जाए)... "रंग दे बसन्ती" का नायक एक दृश्य में विदेशी नायिका को कहता है, कि "यहाँ यूनिवर्सिटी में सब मुझे जानते हैं कि मैं डी. जे. हूँ, लेकिन बाहर की दुनिया से मुझे डर लगता है, क्योंकि वहाँ मुझे कोई नहीं जानता।" हालांकि इसे एकदम समानांतर तो नहीं माना जा सकता, लेकिन कुछ यही मेरे साथ गाँव से बाहर आने पर हुआ है, मुझे अपनी पहचान खोजनी पड़ रही है... और फिर आप अपने से जुडी चीज़ों से ही पहचाने जाते हैं, मुझे ऐसा कुछ यहाँ नज़र नहीं आता जो अपना हो... जुड़ाव हो जिससे। जो कर रहे हैं उसे ठीक से न कर पाने से तो एक बैचैनी है ही, जिसका कोई बचाव नहीं है, आलस के सिवा (पढाई के सिलसिले में) लेकिन साथ ही, जैसा मेरे परिचय में भी है, अपने होने की जरूरत और मतलब भी परेशानी का सबब है।
मुझे अपनी स्थिति उन निकृष्ट बुद्धिवादियों जैसी लग रही है, जो हर विचार और कार्य की सार्थकता पर प्रश्न उठाते रहते हैं, और इस तरह अपनी अकर्मण्यता को जायज़ टहराते हैं..