Tuesday, 8 February 2011
सकल बन फूल रही सरसों..
अध्यात्म और मेरा हमेशा छत्तीस का आंकडा रहा है, कुछ का कहना है कि अभी तुम्हारी उम्र नहीं है समझने की। अपन को कुछ समय पहले तक तो कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता था जब बात कुछ दार्शनिक और गहरी हो चली हो..यही कारण है कि उपन्यास छोड़ कर गिनी-चुनी चीजें ही पढ़ी हैं।
खैर वाकया यह है कि कुछ दोस्तों के साथ हजरत निज़ामुद्दीन की दरगाह जा पहुंचा परसों, वहाँ 'बसंत' मनाया जा रहा था। यह जानकारी फेसबुक से मिली.
इसके मनाने के पीछे कहानी यह है कि एक बार हजरत निजामुद्दीन अपने भतीजे कि मौत से गहरी उदासी और शोक में डूब गए ..न किसी से मिलते थे, न बात करते थे, न मुस्कुराते थे। यह देख कर अमीर खुसरो, उनके सबसे प्यारे मुरीद बहुत परेशान थे..इसी उधेड़बुन में कहीं जा रहे थे कि देखा कि कुछ औरतें चटख पीले कपडे पहने कुछ गीत गाती हुई जा रही थीं। खुसरो ने पड़ताल की तो पता चला कि यह बसंत मनाया जा रहा है।
अब खुसरो ने अपने प्यारे औलिया को मनाने के लिए अन्य मुरीदों के साथ वही बसन्ती बाना ओढा..और उन्ही गानों को अपनी तर्ज पर गाते हुए उदास संत के पास पहुंचे. जब महीनों से गम में डूबे हजरत ने अपने मुरीदों का ये लिबास देखा और उनके गाने सुने तो कई दिनों में पहली बार उनके चेहरे पर मुस्कान खिल उठी और उन्होंने अपने प्यारे शिष्य और दोस्त को गले लगा लिया।
वो दिन था और आज का दिन..हर साल बसंत पंचमी के मौके पर हजरत निज़ामुद्दीन औलिया के दीवाने सरसों के रंग का दुपट्टा ओढ़कर उनके दरबार में सरसों के फूल लेकर हाजिर होते हैं, और अपने दरवेश को बसन्ती गाने सुनाते हैं।
सूफी परंपरा को लेकर जो कुछ मालूम है, वह स्कूली किताबों के पन्नों से ही आया है, और ईश्वर की प्रेमिका-रूप में कल्पना-वन्दना, इश्क हकीकी और इश्क मजाजी, इंसानों की आपसी मोहब्बत पर जोर देना आदि बातें दिमाग में कुछ खाली शब्दों के रूप में ही मौजूद थी।
मन में कुछ बेजोड़ सूफी गायकी सुनने का लालच लिए पहली बार निजामुद्दीन दरगाह पहुंचा..एक संकरी गली से होते हुए दरगाह के बाहर पहुँचते ही, फूल चढ़ाइए, चादर चढ़ाइए, प्रसाद चढ़ाइए की आवाजें देते हुए दुकानदार दिखाई दिए। हर बड़े मंदिर, मस्जिद और मज़ार की तरह यहाँ भी श्रद्धा और आस्था के कारण कितने ही लोगों की आजीविका चलती है। एक बेंत की डलिया में फूल, प्रसाद और अगरबत्ती लिए हम तीन अन्दर पहुंचे। काफी लोग थे पर फिर भी वैसी घबरा देने वाली भीड़-भाड़ नहीं थी जैसी हो सकती थी। मैंने चुपचाप मत्था टेका, फूल चढ़ाए और एक धागा भी बांधा। लेकिन क्या माँगू ये समझ में नहीं आया... हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि....
बचपन से ही जब भी भूले-भटके मंदिर-मजार-गुरुद्वारे में घुसा तो हाथ जोड़ दिए, मत्था टेक दिया और कभी टीका भी लगवा लिया। सबसे अलग नज़र न आऊँ इसीलिए चुपचाप सर झुका लेता था ..प्रसाद का लालच भी रहता था। लेकिन मन में पक्का विश्वास कभी नहीं हुआ कि इस सब का अपने जीवन पर कोई प्रत्यक्ष असर होता भी है। हाईस्कूल में परीक्षा के दिनों में कसबे के बाहर बजरंग मंदिर पर भीड़ बढ़ जाती थी। इसी बहाने हवाखोरी और टहलना भी हो जाता था, दोस्तों के लिए एक प्लस पॉइंट ये भी था कि सहपाठिनें भी मंदिर आया करती थीं। अपन ने वहां नारियल भी फोड़े कई और आरती भी करवाई।
बहरहाल हम दरगाह के आँगन में जा बैठे और लोगों को देखने लगे, कुछ देर बाद मुरीद या कव्वाल दाखिल हुए और चटख सरसों के रंग के दुपट्टे बांटे गए जो ख़ास लोगों को ही दिए गए... कुछ बच्चे थे हाथ में सरसों के फूल लिए हुए। आदमी औरत सब इकठ्ठा थे, और गाना शुरू हुआ। पहले मज़ार के अन्दर और फिर बाहर करीब बीस कव्वालों ने समाँ बाँध दिया। इनमे पांच साल से लेकर पचास साल के कव्वाल शामिल थे। पता चला कि कच्ची उम्र से ही ये शागिर्द गाना सीखते हैं.
जब स्वर उठते थे तो मानों लहर सी आती थी, चूंकि एक ही पंक्ति को अलग अलग गायक आगे-पीछे दोहराते थे, खींचते थे और उससे खेलते थे। अपने आप हाथ ताल देने लगे और गर्दन झूमने लगी। अपनी तथाकथित बौद्धिकता हवा हो गयी...और मन मयूर बसन्ती ताल पर नाचने लगा...
लेकिन यह करीब दस पंद्रह मिनट ही चला, फिर वे खुसरो की मज़ार पर गए। खुसरो, जिसने 'हिन्दी' कविता और हिदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की नींव रखी और जो आज भी अपने हरदिल अज़ीज़ गुरु से कुछ गज दूरी पर ही लेटा हुआ है...
एक घंटे में कार्यक्रम ख़त्म हुआ, जिस दौरान फोटो भी खींचे गए और कुछ 'पहुंचे हुए' लोग भी पहुंचे थे। जब मैं खुसरो की कब्र पर सर नवा रहा था तो मैंने एक औरत को देखा जाली के पार रो रही थी..और 'मेरे ख्वाजा' को संबोधित कर अपने दर्द बयान कर रही थी।
मैं अपने मन में यही सोचता हुआ वापस अपनी आधुनिक दुनिया में लौटा, कि काश मुझे भी इतना विश्वास किसी पीर पर होता कि मैं अपनी पीर उससे बयाँ कर लेता।
सूफी मत का वह प्यार जो किसी अमूर्त के प्रति है, वह मानव-मात्र से प्रेम में बदल जाता है, और भाव-विह्वल कर देता है। क्या आस्था को सिर्फ अंधविश्वास, कर्मकांड और पाखण्ड से परिभाषित किया जा सकता है?
इससे ज्यादा गहरे जाऊंगा नहीं, अभी मेरी उम्र नहीं है.... :)
सकल बन फूल रही सरसों
(दोनों फोटो अपनी दोस्त के मोबाइल कैमरे के हैं)
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भक्त और दार्शनिक दो पृथक लोग होते हैं | ईश्वर प्राप्ति के लिए बहुत ज्ञान , तर्क और बुद्धि की आवश्यकता नहीं होती | वह तो मात्र निर्मल ह्रदय से प्राप्त हो जाता है |
ReplyDeleteनई जानकारी मिली. वेसे मै बहुत दिनों से निजामुद्दीन औलिया की दरगाह और हुमांयू के मकबरे पर जाना चाहती हूँ पर जा नहीं पाई.
ReplyDelete@नीरज भाई: मेरे साथ समस्या यही है कि न अपनी समझ में दर्शन आता है, और न ही मन निर्मल रह गया है. दरअसल दिमाग में धर्म का पाखंडी स्वरुप इतना भयावह बन गया है कि आम आदमी की आध्यात्मिक जरूरत और आस्था को किस तरह देखूं/समझूं ये नहीं पाता. सूफी मत फिर भी बाकी सब से अधिक सहिष्णु और उदार है इसलिए उसके प्रति थोड़ी जिज्ञासा है. व्यक्तिगत रूप से तो अभी नास्तिक ही हूँ और शायद रहूँगा भी, लेकिन आस्था को समझने और उसके 'सकारात्मक' पक्ष को देखने की इच्छा है.
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