Sunday, 5 February 2012

एक खोजी अभियान की भूमिका


बातें जो कही नहीं गयी..
वादे जो निभाए नहीं गए,
सपने जो देखे नहीं गए..
लोग जो ढूंढें नहीं गए.
कहानियाँ जो सुनायी नहीं गयीं.
और कविताएँ जो गले में आकर अटकी,
फिर किसी अकेले पेड़ के नीचे बैठी रह गयीं.
और कहा जा रहा है, मैं 'नेगेटिव' सोचता हूँ.
सच तो ये है कि मैं नेगेटिव नहीं सोचता,
नेगेटिव मुझे सोच रहा है.
एक दिन मैं परछाइयों से गुजर रहा था,
वहीं नेगेटिव ने मुझे पकड़ लिया
और तब से वह मेरे कानों में फुसफुसाए जा रहा है,
हर एक मुनादी के बाद
वह आवाज़ तेज हो जाती है..
अब मैं और नेगेटिव, नेगेटिव और मैं
हम भेष बदलते रहते हैं,
अब मैं उजालों से दूर झुरमुटों में चलता हूँ,
अब मैं समय की पगडंडी की धूल छानता हूँ
शायद कोई सुराग मिल जाये
कहाँ गए वो लोग, वादे, सपने, कहानियां, कविताएँ,
नेगेटिव ने मुझसे कहा है,
कि इन गुमनामों में ही मेरी पहचान की चाबी छुपी है..
तुम्हे पता लगे तो बताना,
आखिर सवाल मेरा नहीं
अंधेरों का है,
सन्नाटे का,चुप्पी का है,
डर का है,
गुस्से का है
और कहीं ज्यादा
सवाल सच का है
जो खुद बहुरूपिया बने
किसी पीछे छूट गए हरकारे की राह तक रहा है,
सहमा सा .

2 comments:

  1. वाह इकबाल! अच्छी लगी।

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  2. सवाल बहुत वाजिब है पर यह बेचैनी सब की क्यूं नहीं है? लोग सवालों, से बेचैनियों से, दुखों से और यहां तक कि खुद से दूर रहने लगे हैं।

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