Friday, 9 February 2018

कितने काम

कितने तो काम
अटके पड़े हैं 
घर-धाम 
आंवले में फल नहीं आते
छत में खपरैल दरक गयी हैं
दरवाजों पर रंग की पपड़ियाँ
उखड़ने लगी हैं
पड़ोस के बच्चे बड़े हो गए
अपरिचित ही रहकर
अब तो सकुचाकर मुस्कुरा जाते हैं
नंग-धडंग जिनको डांटा था
अमरुद पर कंकर मारने पर
यात्राएं जमा होती गयी
जैसे संस्मरणों की फेहरिस्त
दिमाग के किसी कोने में
दोस्त रह गए परे
या मिलकर भी न मिले
खुलकर
निरंतर वर्तमान धकेल चला
कितनी कीमती चीज़ों को अतीत में
न सीखी सिलाई
या बनाना कोई अलग सी चटनी
सीखना उर्दू
मांझना बांग्ला
अंत में बचा, या बचेगा क्या
घंटों अन्यमनस्क ढंग से
किया गया "उत्पादन"
जो खप गया सभ्यता की मशीन में
और टीस
कि साइकिल नहीं सुधरवाई
कि मेला नहीं देखा
कि नहीं लिखी
दुनिया की सबसे जरूरी किताब.

(19 जनवरी 2018)

Wednesday, 10 May 2017

रामपुरा -2, अतीत के आईने में

रामपुरा का जो चेहरा मेरे मन में उभरता है, वह सिर्फ अपने अनुभवों पर ही आधारित नहीं है. अपने परिवार वालों, दोस्तों, बड़ों से सुने और पढ़े पहलुओं का भी इसमें जुड़ाव है. अरावली के दक्षिणी छोर पर पहाड़ के नीचे बसा है यह क़स्बा. मध्यकाल में उत्तर-पश्चिम से दक्षिण की ओर आते कारवां यहाँ ठहरते थे, उस दौर की समृद्धि की कहानियाँ अब यहाँ के खँडहर बयान करते हैं.

लेकिन यहाँ का इतिहास तो उससे कहीं और पुराना है, ये इलाका मूल रूप से भीलों का रहा है, और उन्हीं में से एक सरदार, रामा भील ने इस गाँव को बसाया. बाद में जैसे- जैसे ताकतवर राजपूत और अन्य मैदानी जातियों का प्रभुत्व बढ़ा, भील पहाड के ऊपर के गाँवों की और खिसकते गए. आज रामपुरा में भील परिवारों की संख्या नगण्य है, पिछले साल आसपास के गाँवों में सर्वे करने पर पाया कि वहाँ भील सबसे गरीब और बुरी हालत में रहते हैं. किसी जमाने में जंगल और प्रकृति से जुडी जीवनशैली और स्वच्छंद प्रकृति के ये लोग, आज समाज के निचले पायदान पर हैं. जंगल बहुत कम हो गए हैं और वन विभाग के हाथ में हैं, खेती की ज़मीन इनके पास नहीं के बराबर है, मजदूरी कर जैसे तैसे अपना काम चलाते हैं. संस्कृति के स्तर पर भी इस इलाके में इनकी भाषा बहुत पहले विलुप्त हो गयी है और प्रकृति पूजन के रीति रिवाज, भगोरिया जैसे उत्सव अब कहीं नहीं हैं. आदिवासी जीवन का जो अहम् पहलू उल्लास और प्रकृति से नज़दीकी होता है, उसे भी मैं नहीं ढूंढ पाया.

ये एक सबक है, आदिवासी/प्रकृति आधारित लोगों को समाज, धर्म और व्यवस्था की ‘मुख्यधारा’ में लाने की बात करने वालों के लिए. स्कूल में मेरे साथ बंजारा जाति के लड़के भी थे, यह समाज भी अब आधुनिकता के बीच अपनी पहचान और जगह खोजने को संघर्षरत है. घुमक्कड़ और व्यापारिक जीवन आधुनिकता के साथ ख़त्म कर दिया गया है, ऐसे में पुलिस और बाकी समाज इन जैसी जातियों को नाहक ही अपराधी घोषित कर देते हैं, और कई बार हाशिये पर और विकल्पहीन होने के कारण वे उस तरफ धकेल भी दिए जाते हैं.

 खैर, समय के साथ रामपुरा एक बड़ा व्यापारिक केंद्र बन के उभरा और न केवल आसपास की उपजाऊ जमीन के कारण बल्कि, व्यापारिक पथ पर होने के कारण यहाँ की मंडियां खूब विकसित हुईं. आज भी यहाँ की गलियों के नाम इसकी गवाही देते हैं कि एक एक सामान के लिए एक पूरा बाज़ार निर्धारित था. तम्बाखू गली, श्रृंगार गली (बाद में नाम बिगड़ कर सिंघाड़ा गली हो गया), लालबाग, छोटा बाजार, बड़ा बाजार, धानमंडी जैसे मोहल्ले अब बस इतिहास के गवाह रह गए हैं. सिलावट (पारंपरिक रूप से राजमिस्त्री), बोहरा, बनियों, स्वर्णकारों की अपेक्षाकृत बड़ी संख्या भी दिखाती है कि व्यापार, निर्माण का बड़ा केंद्र होने से कारीगर और व्यापारी जातियां यहाँ जमा हुईं. सत्रहवी शताब्दी में रामपुरा का विकास एक बड़े व्यापारिक केंद्र के रूप में हुआ, जो अगली दो शताब्दियों तक कायम रहा. विभिन्न राजपूत राज्यों के एक मनसब/दीवानी रहते हुए बाद में यह इंदौर की होलकर रियासत के अधीन रहा जिन्हें यहाँ के दीवान भेंट/कर देते थे. रामपुरा के बड़े मंदिर होलकर काल के ही हैं, जिनमें प्रमुख कल्याणरावजी का मंदिर और जगदीश मंदिर हैं, मध्यकालीन स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण ये दोनों मंदिर आज भी स्थानीय लोगों की आस्था के केंद्र हैं. इसके अलावा रानी का महल (जिसमें उपतहसील कार्यालय हुआ करता था), दीवान साहब का महल, और किले के भग्नावशेष आज भी इतिहास के लिए एक रोमांच पैदा करते हैं.

मेरी पसंदीदा जगह है – पंच देवरिया, पांच मंदिरों का एक प्रांगण जो बड़े तालाब के किनारे एक शांत कोने में है, आज सभी मंदिरों पर घास और झाड़ियाँ उग रही हैं, दिन में भी यहाँ सन्नाटा पसरा रहता है, बड़े तालाब के अतिरिक्त पानी निकलने की जगह (चद्दर) इसके बाजू से गुजरती है उसी से यहाँ की बावडी में पानी आता है. स्कूल के दिनों में अक्सर मैं यहाँ भटका करता था. चद्दर के दूसरी ओर है एक विशालकाय खिरनी का पेड़ और दादावाडी, जैन मुनियों के ठहरने का स्थान. दिल्ली की धूल. शोर और भागमभाग के बीच अगर मुझसे कोई पूछे कि सुकून की तुम्हारी परिकल्पना क्या है, तो मुझे यही जगह याद आयेगी.

पहाड़ के ऊपर एक मंदिर है और एक मस्जिद, और तलहटी में रानी का महल, मेरा स्कूल और दूसरी तरफ दीवान साहब का महल और बड़ा तालाब. अक्सर स्कूली समय से ही मुझे लगता था कि रामपुरा इतना विविध, दिलचस्प और ऐतिहासिक है कि इसे पर्यटन स्थल बनाना चाहिए. अभी भी कितने ही दोस्तों को मैंने इसके बारे में बताया है, इसके फोटो दिखाकर ललचाया है.


लेकिन पिछले कुछ दिनों से कुछ और भी सोच रहा हूँ, अगर ये पर्यटन स्थल बन गया तो क्या ये नीरवता, शान्ति, सुकून कायम रह पायेगा? आकिर कौन सा ऐसा पर्यटन स्थल बचा है जहां कचरा, भीडभाड, व्यावसायीकरण, हो-हल्ला नहीं है. जहां हर अनुभव की एक कीमत न हो और जहां सब कुछ एक ढर्रे पर न चल पडा हो. हम भागभागकर शिमला या जयपुर पहुँचते हैं, हर जगह फोटो खिंचाते हैं और खाने से लेकर इतिहास के बनावटी अनुभवों को खरीदते हुए फिर दफ्तरी या दुकानी बोरियत में वापस घुस जाते हैं. हमारा किसी जगह से जीवंत, रोमांचक, रहस्यों और जिज्ञासाओं से भरा कोई रिश्ता शायद ही बनता हो. मैं चाहता हूँ कि रामपुरा के खँडहर बचें, उनका इतिहास खंगाला जाए, लेकिन साथ ही यह नहीं चाहता कि दुकानों और टूरिस्ट गाइडों का शोर, गाड़ियों का धुंआ, होटलों का दिखावटी वैभव रामपुरा को उसके अपने रहवासियों से ही छीन ले. बड़ी असंभव सी इच्छाएं हैं मेरी.
स्कूल के पास किले का बुर्ज और शहर का दृश्य 

पञ्च देवरिया 

पहाड़ से बड़े तालाब का दृश्य 

पहाड़ पर मस्जिद 

बड़े तालाब में पहाड़ की विहंगम परछाई 
 

Friday, 31 March 2017

रामपुरा – क्या भूलूँ क्या याद करूँ- 1


आदरणीय लक्कड़ सर 

अपना घर (पहली मंजिल पर)

जो उंगलियाँ गर्मी की छुट्टियों में अष्टा-चंगा-पै खेलने के लिए मचलती रहती थीं, आज की बोर्ड पर आकर ठहर गयी हैं. हमें उस खेल के लिए इमली के बीजे (चिंये) कभी कम नहीं पड़ते थे. वैसे मेरी दीदी इमलियों की दीवानी थी, एक बार में सौ ग्राम इमलियाँ खा डालती थी, इसीलिये दादी सीढ़ियों के नीचे वाली कोठरी में छुपा कर रखती थीं. ये कोठरी मेरे लिए एक रहस्यमयी तहखाने जैसी थी, अलग अलग तरह की मन ललचाती चीज़ें, इमलियाँ, खजूर, पापड़, कभी कभी मेवे, लेकिन साथ ही घुप्प अँधेरा और उसमे बंद रह जाने का डर. शायद जब मैं बहुत छोटा था चार – पांच साल का तब मुझे इसमें बंद कर दिए जाने की धमकियां भी मिली होंगी. रामपुरा का अपना घर वैसे इतनी भी प्राचीन बात नहीं है,
2007 तक चार साल रहा हूँ इसमें और 2008 में आख़िरी बार वहाँ सामान बाँधने में दादी की मदद की थी. लेकिन जब रामपुरा को याद करने बैठता हूँ तो सबसे पहले याद आती हैं गर्मी की छुट्टियाँ और वो विशाल, हवादार आंगनों, छतों और खिडकियों से भरा घर जहां मेरे दादा दादी ने 37 साल गुजारे, किराये पर.

भोपाल से एक बस चलती है, पहले मुख्य बस स्टैंड से चलती थी, अब लालघाटी से, ‘भोपाल- नीमच’. ये सुबह साढ़े सात बजे चलती है, और सबसे पहले आता है नरसिंहगढ़, जहां पहाडी चढ़कर संकरी गलियों में से गुजरकर बसस्टैंड आता है, किला भी दिखता है. फिर 
ब्यावरा, हाइवे का क़स्बा है. फिर राजगढ़, जहां मेरी दादी का मायका है और ढेरों रिश्तेदार हैं, दादी और पिता से सुनी कहानियाँ हैं, लेकिन उतरा एक ही बार हूँ, खिलचीपुर होते हुए फिर एक बजे आता है अकलेरा, जहां हम अक्सर आम खरीदा करते थे और मैं झूठी तसल्ली से भर जाता था कि आधा रास्ता कट गया अब जल्दी पहुंचेंगे. अचानक राजस्थान शुरू हो जाता है. झालावाड के बाद फिर अरावली में झूमते झामते, बबूल के पेड़ों और चट्टानों में से होकर भानपुरा आने के बाद रास्ता अथाह लगने लगता है. इस बीच मूंगफली आप खा चुके होते हैं और अखबार में विज्ञापन पढ़ चुके होते हैं. पसीने से तरबतर भीड़ चढ़ती उतरती रहती है, साफा बांधे बासाब और लुगड़ा पहने माँसाब कंडक्टर से बहस कर चुके होते हैं. गांधी सागर आने पर नज़ारा बदलता है और नदी की तरफ वाली खिड़की के लिए मन मचलता है. अंत में बेसला पहुँचते पहुँचते मन बस में नहीं रहता, मैं सड़क के मोड़ गिनने लगता हूँ, हम ये दोहराते हैं कि रामपुरा में मिलने वाले सिंघाड़े बेसला के तालाब से ही आते हैं. गांधी सागर के पानी में ढलती शाम की लाली झलकते हुए देखते हुए साढ़े छह बजे रामपूरा पहुँचते हैं. जहां बस स्टैंड पर ‘मधुशालाएँ’ खुली हुई हैं. इससे पहले कि आप मत्त हो उठें, ये गन्ने के रस की दुकाने हैं जहां शाम को टहलने के बाद लोग पहुँचते हैं. फिर एक ठेले पर सामान लादा जाता है और हम पहुँचते हैं 6, मोहिजपुरा, बड़ी बड़ी सीढियां चढ़कर पहली मंजिल पर जहां दादा दादी हमारा इंतज़ार कर रहे होते हैं.


रामपुरा पहुंचना आसान नहीं है, और रामपुरा से निकलना भी. अगर आप रामपुरा से निकल भी जाएँ तो रामपुरा आपके अन्दर से नहीं निकलता. अभी भी मेरी, दीदी की, बुआओं/ काका की जुबां अक्सर फिसल जाती है, हम कह पड़ते हैं कि रामपुरा जाना है. किसी भी ट्रेन से लगभग दो- तीन घंटे दूर और मुख्य लाइन के स्टेशनों जैसे रतलाम/कोटा से चार पांच घंटे दूर, हम अक्सर मजाक में कहा करते थे कि रामपुरा ‘खड्डे’ में है. ये खड्डा सिर्फ यातायात का नहीं था, अवसरों का भी था. सरकारी नौकरी में वहाँ रहे लोग नब्बे के दशक आते आते वहाँ से तबादला कराने को लालायित रहते थे, प्रमोशन, बच्चों के लिए प्राइवेट स्कूल, शौपिंग, अच्छा अस्पताल, ये सब वहाँ नहीं था. वहाँ था देशी पालक, शक्कर से मीठे सीताफल, खिरनी, सुनसान लेकिन अपनी सी लगती गलियाँ, एक तरफ पहाड़ और दूसरी तरफ विशाल जलराशि, अनगिनत मंदिर और मस्जिद और अनगिनत किस्से, जीवन के और जीवटता के.

अपवाद भी थे, दादाजी (डॉ रामप्रताप गुप्ता) और लक्कड़ साब (श्री अरविन्दकुमार जी लक्कड़, मेरे प्रधानाध्यापक) दो ऐसे ही अपवाद थे, कि इन्हें रामपुरा और रामपुरा को ये बहुत प्रिय हुए. तबादला होने पर लोगों ने बार बार रुकवा दिया. इनकी बदौलत रामपुरा का स्कूल और कॉलेज निजीकरण के साथ साथ सरकारी संस्थानों में आयी गिरावट को एक दो दशकों तक रोके रहे और कितने ही लोगों ने इनसे पढ़कर बहुत आगे तक का सफ़र तय किया. दादाजी 93 में रिटायर होकर भी और पंद्रह साल वहीं रहे और स्वास्थ्य, शिक्षा और पर्यावरण के क्षेत्र में काम करते रहे, उनकी बदौलत मैं रामपुरा में जितने लोगों को जानता हूँ उससे कई गुना लोग मुझे जानते हैं.

लक्कड़ सर के साथ पिछले साल एक सर्वे के दौरान बाज़ार में चलने का अनुभव हुआ, और ये महसूस किया कि एक अच्छा शिक्षक कितनी जिंदगियों को छूता है. मुझे ऐसा लगा कि उनके साथ चल पाना भी ऐसी उपलब्धि है जिसे मैं हासिल करने लायक नहीं हूँ. इन्होने कितने छात्रों को घर पर अलग से पढाया (जिसमें मैं भी शामिल हूँ), आर्थिक मदद दी, और अपनी डांट और छुपे हुए प्रेम से कितने ही छात्रों को ‘लाइन पर’ लाए. ये सरकारी स्कूल के ज्यादातर छात्रों का अनुभव रहा है कि 14 से 18 साल की उम्र तक हम सर से थर- थर कांपते हैं और बाद में उन्हें बेहद अपनेपन और आदर से याद करते हैं. 

Monday, 13 June 2016

जे एन यू में राजकीय दमन (भाग 2)

फोटो दैनिक ट्रिब्यून से 

(पिछले भाग से आगे) 

इसके बावजूद दिनों दिन हमले बढ़ते गए. गृहमंत्री ने हमें हाफ़िज़ सईद से जोड़ा, किसी साध्वी ने हमारी फंडिंग को पाकिस्तान से आने वाला बताया, और हमारी जुबां काटने, हमें गोली मांगने की आवाजें मुख्यधारा के मीडिया में जगह पाने लगीं, (जो कन्हैया के भाषण के बाद तक जारी हैं). अचानक जे एन यू के छात्रों पर खर्च होने वाली सब्सिडी के आंकड़े बताये जाने लगे – देखो ये ‘हमारा’ पैसा है जिस पर ‘ये’ पढ़ते हैं. शायद यह सही मौका था कि कम फीस वाले आख़िरी केन्द्रीय विश्वविद्यालय की फीस भी बढ़वाई जा सकती है, ताकि गरीब, पिछड़े, दलित और दूर दराज़ से आने वाले छात्र न पढ़ पायें. उन्हीं के बच्चे महंगे और निजी विश्वविद्यालयों में जाएँ, जो ट्विटर और मीडिया का मानस बनाने की क्षमता रखते हैं, जिन्हें कम फीस खटकती है, और जो ये भूल जाते हैं कि टैक्स गरीब भी देते हैं और सब्सिडी उद्योगपतियों को भी मिलती है. वे टीवी के एंकर और खाए पिए विशेषज्ञ हमारे दुश्मन बन गए, जो यहाँ की राजनीति, बहस, और संवाद को या तो नहीं जानते थे, या उसे अपने लिए खतरा मानते थे.
रोज नए नए बयान आते थे, रोज़ नए नए छात्रों की ‘आतंकी प्रोफाइल’ बनायी जाती थी. बहुत से कम समझ वाले या कम पढ़े लिखे माँ बाप अपने बच्चों को फोन कर करके पूछते थे – ‘’क्या जे एन यू में बम बन रहा है?’’ आखिर ‘मास्टरमाइण्ड’ और ‘टेरर लिंक्स’ जैसी शब्दावली का यही असर होना था.

हमने अगले दिन मानव श्रृंखला बनायी, जिसमें फिर तीन हजार छात्र और शिक्षक जुटे, बार बार कहा गया कि नारों से सबकी सहमति नहीं है, लेकिन नारे राष्ट्रद्रोह नहीं है, हम आतंकवादी नहीं हैं. लेकिन नतीजा कुछ निकलता नहीं दिखता था. मीडिया और सरकार का दुश्चक्र तोडना नामुमकिन सा लग रहा था. सारा समय सर घूमता रहता, रात को नींद नहीं आती, एक दूसरे को मिलते समय छात्र यही पूछते ‘क्या हो रहा है?’ ‘अब आगे क्या होगा?’. सिर्फ एक ही जगह थोडा सुकून मिलता – उन सीढ़ियों के आगे, जहां पता लगता कि धीरे धीरे बाहर भी लोग हमारे समर्थन में बोलने लगे हैं, डर- डर कर ही सही. इसमें दूसरे विश्वविद्यालयों के छात्र और शिक्षक खुलकर सामने आये, जिन्हें पता था कि अगर इस हमले का विरोध नहीं किया गया तो कल उन पर भी दमन हो सकता है, इसके अलावा वे भी सामने आये जो पहले से ही सरकार और मीडिया के दमन से परेशान थे, अलग अलग रूपों में इसे झेल चुके थे. कुछ अखबारों में भी अन्य आवाजों को जगह मिलनी शुरू हुई, जिसमें दूसरा पक्ष लोग रख पा रहे थे.

इसके बाद बड़ा घटनाक्रम हुआ कि कन्हैया को अदालत में पेश किये जाने और सुनवाई को देखने गए लोगों, छात्रों और शिक्षकों पर काले कोट पहने लोगों और कुछ राजनैतिक कार्यकर्ताओं का भी हमला और मारपीट हुई, साथ में मीडियाकर्मियों पर भी. इससे हम और सदमे में पहुँच गए. आखिर अदालत में भी सुनवाई नहीं, वहाँ भी घूंसों की भाषा चलने लगी? पुलिस मूकदर्शक थी, वही पुलिस जो हमें राष्ट्रद्रोही ठहराने के लिए अदालती कार्यवाही से भी पहले बार बार मीडिया में बयान दे रही थी, सबूत हैं, केस सही है, आदि साबित करने में लगी हुई थी. जब तक इससे उबर पाते, अगले दिन फिर उन्हीं लोगों ने बिना किसी डर और पछतावे के कन्हैया को पीटा और एक बार फिर पुलिस इस पर कोई कार्यवाही करने में नाकाम रही और कार्यवाही करने की इच्छाशक्ति भी सरकार और पुलिस ने नहीं दिखाई. (बल्कि आज भी इस मामले में सारे आरोपी खुले घूम रहे हैं, उन्हें कोई बाधा नहीं है, ज्यादातर गिरफ्तार भी नहीं हुए) शायद सरकार और कट्टरपंथी ताकतों से जुड़े संगठनों के उकसावे पर रोज जे एन यू के मुख्य द्वार पर कई लोग झंडा लहराते जमा हो जाते, मुट्ठियाँ तानते, बैरिकेड लांघ कर अन्दर घुसने की धमकी देते, कैमरों पर चीख चीख कर नकली और उन्मादी राष्ट्रवाद का प्रदर्शन करते. गेट बंद रहता, अन्दर बसें नहीं आती जाती. यह गर्व का विषय हो चला था कि जे एन यू के तथाकथित देशद्रोहियों को मार देने, उखाड़ देने और देख लेने की धमकी दी जाए. इस माहौल में जीना सच में वही समझ सकता है जिसने यह झेला हो.
आखिरकार देश के कुछ लोगों को समझ में आने लगा कि जे एन यू के साथ हो रहा व्यवहार ठीक नहीं है, सामान्य नहीं है. लोकतंत्र और न्याय में मारपीट और मनमानी की छूट नहीं दी जा सकती. आवाजें बढीं और आखिरकार टीवी मीडिया में भी रविश कुमार के वापस आने के साथ एक आवाज़ तो आयी जो हमारा पक्ष भी देख पा रही थे. इस मारपीट को कोई भी सही ठहरा पाने में सक्षम नहीं था. अट्ठारह फरवरी को हिम्मत जुटाकर हम कैम्पस के बाहर निकले. (इससे पहले जे एन यू के खिलाफ दिल्ली में बेहद गंदा माहौल था, खुले आम जे एन यू का नाम सुनते ही ताने और धमकियां दी जाती थीं, जश्न – ए – रेख्ता नामक उर्दू के सरकारी कार्यक्रम में से दिल्ली पुलिस ने तीन छात्रों को सिर्फ इसलिए उठा लिया था क्यूंकि वो ‘जे एन यू जैसे दिखते थे – उनकी दाढी थी और उनके बैग से एक लाल झंडा निकला था’; और बहुत दबाव के बाद शाम को उनको ‘पूछताछ के बाद’ छोड़ा गया था. किराए पर बाहर रह रहे जे एन यू के कुछ छात्रों को मकान मालिकों ने घर खाली करने या पुलिस से फिर से वेरिफिकेशन करवाने को कहा था.) जब बाहर निकले तो देखा कि एक सैलाब सा आया, चार हज़ार छात्र कैम्पस से और करीब आठ दस हज़ार लोग बाहर से आये थे. हमने मंडी हाउस से संसद की तरफ कूच किया, टीवी चैनल वालों को गुलाब देकर उनकी सद्बुद्धि की कामना की गयी, अनेकों झंडे लहराए गए, जिनमें लाल, नीला और तिरंगा शामिल थे. हमने अपनी तख्तियों पर लिखा कि कन्हैया, उमर, अनिर्बान, आशुतोष, रमा या और भी कोई न तो देशद्रोही है, न आतंकवादी. हम छात्र हैं जो आपस में बहस करते हैं, जो देश और समाज के मुद्दों की समझ रखते हैं. जो रोहित वेमुला की मौत के कारणों को ख़त्म करना चाहते हैं, उस साज़िश को बेनकाब करना चाहते हैं. जो स्कालरशिप बंद करने के खिलाफ सड़क पर उतरते हैं. राजद्रोह की धारा अक्सर ऐसे ही लोगों पर लगाई जाती है जो सरकार के लिए असुविधाजनक सचों को बोलने लगते हैं. इसके बाद का आन्दोलन एक इतिहास सा है, बाकी छात्र भी निकलकर बाहर आये और अपने बयान या गिरफ्तारियां पुलिस को दीं. उनको कुछ भरोसा आया कि इस देश में न्याय होने की गुंजाइश अभी भी बाकी है क्यूंकि लोग गुंडागर्दी और तानाशाही के खिलाफ एकजुट हो सकते हैं. दो और बड़े जुलूस हुए, एक रोहित वेमुला के मुद्दे को जोड़ते हुए और एक कन्हैया की जमानत को लेकर.

अब हम रोज राष्ट्र और राष्ट्रवाद, इस देश के ज्वलंत मुद्दों, चाहे वो आर्थिक हों, राजनैतिक हों या सामजिक, सभी पर खुले आसमान के नीचे बहस करते हैं, वक्ताओं को बुलाते हैं, जिनमें अलग अलग धारा के लोग होते हैं, आपस में बहस भी होती है. हम यह कहना चाहते हैं कि हमारा राष्ट्र हम सभी का है, जिस पर बात करने  की भी जरूरत है, सरकार से और सत्ता से सवाल पूछने की भी जरूरत है. यही काम हम पहले भी कर रहे थे, जिसके कारण हम पर दमन हुआ है. कन्हैया की जमानत के बाद उसके भाषण को मजबूरी में सभी चैनलों और मीडिया को दिखाना पड़ा, क्यूंकि हमारी आवाज़ को नज़रंदाज़ करना नामुमकिन था. उस भाषण ने दिमागों पर जमे कोहरे को कुछ हद तक साफ़ किया है, हालांकि इस पूरे मामले में जे एन यू, छात्रों और छात्र राजनीति के प्रति पैदा की गयी घृणा को हटाने में शायद सालों की मेहनत लगेगी. बात साफ़ हो गयी कि सरकार और व्यवस्था की बुराइयों का विरोध करना, हर एक मुद्दे पर खुली बहस कर राय बनाना, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की बात करना आज के समय में इतना खतरनाक है कि आपको जेल में डाला जा सकता है, पीटा जा सकता है और बदनाम किया जा सकता है. हम जुलूस भी निकलते रहेंगे, इस लड़ाई को देश की बाकी लडाइयों से जोड़ा जायेगा, प्रतिरोध की एकता बनाने की कोशिश होगी.

हमारा संघर्ष तब तक चलेगा जब तक सभी साथी रिहा नहीं होते, सभी मुक़दमे वापस नहीं होते, विश्वविद्यालय से निलंबित छात्रों को ससम्मान वापस नहीं लिया जाता, उन अधिकारियों पर कार्यवाही नहीं होती जो हमारे नियमों पर चलने, साख बचाने के बजाय पुलिस और सत्ता के इशारों पर कार्यवाही कर रहे थे और बयान दे रहे थे. पुलिस, मीडिया के एक बड़े हिस्से और हमला करने वाले तथाकथित वकीलों – राजनेताओं पर भी कार्यवाही होनी चाहिए. यह भी स्पष्ट है कि एबीवीपी ने पहले से ही मीडिया को बुला लिया था और उनकी योजना जे एन यू प्रशासन के साथ मिलकर कुछ छात्रों पर दमन करवाने और विश्वविद्यालय के आंदोलित और प्रगतिशील चरित्र को ख़त्म करने की थी. यह नया नहीं है, ऍफ़टीआईआई, हैदराबाद केन्द्रीय विश्विद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, अलीगढ़, चेन्नई आइआइटी.. यह सूची लम्बी होती जाती है. जहां से भी अन्याय, शिक्षा के बाजारीकरण और खात्मे, सरकार के छात्रविरोधी क़दमों पर आवाज़ उठी है, उसके जवाब में सरकार, सरकारी मशीनरी और सत्ताधारी पार्टी से जुड़े संगठनों ने अलग अलग बहानों से वहां हमले किये हैं.

मेरी व्यक्तिगत समझ इस आन्दोलन से और मजबूत हुई है, एक समूह के रूप में भी हम सब और परिपक्व हो गए हैं. इस आन्दोलन ने कैम्पस के ज्यादातर छात्रों का राजनीतिकरण किया है, यह शायद इससे पाया हुआ हमारा एकमात्र हासिल है. आखिर इस देश के सिर्फ 6% लोग ही उच्च शिक्षा संस्थानों तक पहुँच पाते हैं, यह हमारी एक प्रिविलेज (विशेष सुविधा) है. हम ही हैं जो न सिर्फ पढ़- लिखकर, बहस करके, सोचकर यह तय कर सकते हैं कि देश और समाज में क्या ठीक नहीं हो रहा है और उसे बेहतर कैसे किया जा सकता है. हम कठिन और नए सवालों पर बहस कर सकते हैं. सबसे महत्वपूर्ण यह है कि आगे चलकर हमारे ही कन्धों पर यह ज़िम्मेदारी है कि हम यहाँ से बाहर निकलने और देश के हर दबे- कुचले, गरीब, शोषित और संघर्षशील तबके के साथ खड़े हों, यह हमारी नैतिक और राजनैतिक जिम्मेदारी है. शिक्षा का मतलब अगर सिर्फ करियर और पैसा कमाना होता तो वह दुकानों में मिल सकती थी, वैसा ही आजकल चलन भी चल पडा है. शिक्षा का मकसद वास्तव में इस ज्ञान, सुविधाओं को हर एक तक पहुँचाना है, जो हमें मिला है; उसे समाज को लौटाना है, यह समझ अब हममें आ रही हैं.

Sunday, 12 June 2016

जे एन यू में राजकीय दमन : एक आँखों देखी (भाग 1)

यह लेख/रपट जल्दी में एक मराठी अखबार के लिए लिखी थी, दस मार्च के आसपास, वहां तो छप नहीं पायी, मैनेजमेंट का दबाव रहता है, तो सोचा यहीं पर डाल देता हूँ. देर से ही सही - इकबाल 

    10 फरवरी की रात, दस दिन तक मध्यप्रदेश के एक छोटे कसबे रामपुरा के आसपास के गाँवों में सर्वे करने के बाद विदाई की बेला में हम युवा साथी गा-बजा रहे थे. अचानक दोस्त संदीप ने कहा ‘अरे इकबाल भाई, आपके जे एन यू में क्या हो गया?’ मैं कई दिनों से समाचार माध्यमों से कटा हुआ था- मेरे पास स्मार्टफोन, व्हाट्सऐप वगैरह भी नहीं हैं.  इसलिए मैं चौंका – मैनें कहा – ‘’क्या हुआ है भाई?’’ तो उसने कहा कि वहाँ कुछ बहुत गलत हो रहा है, देश को तोड़ने की बात हो रही है, देशद्रोह हो रहा है. मैंने पूछा ‘कैसे पता?’ तो उसने कहा कि मीडिया में वीडियो चल रहा है, अफज़ल गुरु के लिए कार्यक्रम हुआ है वगैरह. मैनें इसे ज्यादा तूल नहीं दिया, क्योंकि इससे पहले भी मीडिया के कुछ हिस्सों में जे एन यू को लेकर दुष्प्रचार चलता रहा है, व पहले भी एबीवीपी अनेक कार्यक्रमों में हंगामा करती रही है. 
(फोटो इन्डियन एक्सप्रेस से)

अगले दिन तक फेसबुक एवं अन्य माध्यमों से मुझे धीरे धीरे समझ में आने लगा कि कैसे इस घटना ने एक सुनियोजित अभियान का रूप ले लिया है. टीवी चैनलों पे एकतरफा हमले होने लगे, पूरे जे एन यू को देशद्रोहियों का ‘अड्डा’ और आतंकवादियों का ‘गढ़’ बताने के लिए मीडिया कर्मी, चिल्लाने लगे. जो छात्र अपनी बात रखने स्टूडियो पहुंचे उन्हें सुना नहीं गया और वहीं फैसला कर दिया गया कि वे जो कह रहे हैं वह देशद्रोह है. कुछ वीडियो, उनके संपादित हिस्से बार बार चलाये गए, जिनमें से ज्यादातर बाद में तोड़े-मरोड़े हुए निकले. चूंकि चैनलों का मैनेजमेंट सत्ता और बाज़ार के मुनाफे के संतुलन पर टिका होता है, उन्हें यह मौका ठीक लगा एक ऐसे समूह पर हमला बोलने का, जिसकी आवाज़ बाज़ार और सत्ता के खिलाफ बुलंद हो रही थी.

12 तारीख को ट्रेन में दिल्ली जाते हुए, मेरा दिल बैठा जा रहा था; मैं देख चुका था कि चैनल मेरे विश्वविद्यालय के प्रति एक उन्माद का माहौल बनाने में सफल रहे हैं. लोगों की आपसी बातचीत में ‘जेएनयू’ और ‘देशद्रोह’ जैसे जुमले सुनने को मिल रहे थे. तब अचानक लैपटॉप में फेसबुक से पता चला और फिर मैनें घबराहट में अनेकों दोस्तों को फ़ोन लगाए – कि कैम्पस में पुलिस की रेड हो रही है, सादे भेष में पुलिस वाले पूरे कैम्पस में फैल गए हैं, अनेकों होस्टलों में छापे पड़े हैं – हमारे छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को पुलिस उठाकर ले गयी है. विश्वविद्यालय प्रशासन ने पुलिस को खुला आमंत्रण दिया है और छात्रों के नाम-पते भी सौंपे हैं. मेरे दिमाग में एक ही शब्द गूंजने लगा – ‘आपातकाल’, क्यूंकि इसी कैम्पस के किस्से अपने पिता (वे यहीं पढ़े थे) और उनके दोस्तों से सुनते हुए मुझे पता चला था कि आपातकाल में कैसे पुलिस रातों रात छपे मारकर छात्रों को गिरफ्तार कर लेती थी और उन्हें भागकर इधर उधर छुपना पड़ता था. भय और अविश्वास का माहौल पूरे कैम्पस पर छाया रहता था, आज शायद फिर वैसी ही घड़ी आयी थी. मैनें अपनी मां को फोन किया और अपने डर और गुस्से के बारे में बताया. मेरी मां, जो खुद एक कार्यकर्ता है और देश दुनिया के मामलों पर पकड़ रखती है, उतनी ही गुस्सा हुई जितना मैं, उन्होंने कहा ‘क्या मुझे भी वे गिरफ्तार कर लेंगे? मैं भी कई बातों पर अलग राय रखती हूँ.’

अनेकों फोन आये, मुझसे पूछा गया कि क्या हो रहा है? लोगों का गुस्सा और असमंजस मुझ तक पहुंचा जिसका मैं यही जवाब दे सकता था कि अभी तो मैं ट्रेन में हूँ. कैम्पस में जिसे भी फोन किया वह यही बता पाया कि कन्हैया गिरफ्तार हो गया है, और छापे पड़े हैं. इससे ज्यादा जानकारी किसी को नहीं थी.

 मन ही मन हैरान परेशान मैंने किसी तरह रात काटी और सुबह 13 तारीख को जे एन यू पहुंचा. फिर बात करते – करते, शाम को प्रशासनिक भवन पहुँचने तक बातें साफ़ हुईं. उस दिन कुछ नेता भी पहुंचे, कैम्पस के बाहर से, अखबारों में ख़बरें पढीं, चैनल तो न देखने का फैसला मैं ले चुका था. ये पता चला कि नौ फरवरी को एक कार्यक्रम - वहाँ एबीवीपी के हंगामे, उसकी शिकायत पर भाजपा सांसद के किये ऍफ़ आई आर और सबसे ज्यादा मीडिया के अभियान के चलते पूरे जे एन यू को बंद करने की मांग हो रही है, गिरफ्तारियां हुई हैं, देशद्रोह के मुक़दमे दायर किये गए हैं, कन्हैया गिरफ्तार है और बाकी कई छात्र छुपते फिर रहे हैं. जे एन यू के रजिस्ट्रार और उपकुलपति (वीसी) ने आठ छात्रों को जांच से पहले ही निलंबित कर दिया है और एक ऐसी जांच समिति बनायी है जिसमें उनके पसंदीदा लोग हैं, न कि अलग अलग संस्थानों के शिक्षक. मीटिंग में पहुँचने के बार जब वहाँ उमड़ते छात्रों को देखा तो कुछ राहत मिली, बिना किसी अभियान या आह्वान के करीब दो-ढाई हज़ार से ज्यादा छात्र छात्राएं वहाँ जमा थे, (इससे पहले पिछली रात को जे एन यू शिक्षक संघ के आह्वान पर आये जुलूस में भी सैकड़ों छात्र पहुंचे थे). चेहरों पर हवाइयां उड़ रही थीं. सब रुआंसे और चुप थे, हालांकि नारे जरूर लगाते थे जब छात्रसंघ और हमारे नेता शुरुआत करते. सबके घर से फोन आये थे, मां – बाप ने पूछताछ की थी और डांटा था, (कई छात्रों की घरवालों से बातचीत बंद हो गयी) पढ़ाई –लिखाई ठप पडी थी, सोशल मीडिया पर गंदी गंदी गालियाँ पड़ रही थीं. अगर आप जे एन यू से हैं, तो फिर आप वामपंथी हों, समाजवादी हों, या कांग्रेसी, या दक्षिणपंथी, आप राजनैतिक हों या करियर पर ध्यान देने वाले, लड़के हों या लडकी, घटना की जानकारी हो या न हो; कोई कुछ सुनने को तैयार नहीं था, आप देशद्रोही घोषित कर दिए गए थे. आपकी यूनिवर्सिटी को बंद करने की मांग न केवल सोशल मीडिया बल्कि अखबारों में कई ‘विचारक’ करने लगे थे. आपकी पढ़ाई, मेहनत, विचार, सब को एक झटके में ख़त्म कर दिया जाना संभव लग रहा था. यही कारण है कि उस दिन और उसके बाद से हर रोज प्रशासनिक भवन की उन सीढ़ियों पर (जो अब कन्हैया के भाषण के दिखाए जाने के बाद बहुत पहचानी जाने लगी हैं). मैंने बहुत से चेहरों को देखा जो पहली बार किसी राजनैतिक बहस का हिस्सा बनाने आये थे, जो अब तक सिर्फ कक्षाओं और लाइब्रेरी में ही दिखाई देते थे. मैनें शिक्षकों को देखा जो अपनी नौकरियों, और कक्षाओं की चिंता छोड़कर हमारे साथ खड़े थे, मैनें कई कर्मचारियों को भी देखा. सत्ता, मीडिया और राष्ट्रवाद के नाम पर मुनाफा कमाने वाली राजनीति ने एक ही झटके में हम सब को एक तरफ खडा कर दिया था और खुद को दूसरी तरफ. उस दिन के जमावड़े में लगा कि चलो कुछ लोग तो अपने साथ हैं, ऐसा नहीं है कि मैं अकेला ही असहाय, निहत्था कैमरों और पुलिस की बन्दूक की नोक पर खडा कर दिया गया हूँ, मुझे बिना कुछ कहने का मौका दिए बस चिल्लाया जा रहा है ‘देशद्रोही !!’ ‘देशद्रोही !!’ ‘गद्दार!!  (जारी .......) 

Wednesday, 24 December 2014

कुछ वक़्त और


कुछ वक़्त और

वक़्त ढहता गया
ताश के पत्तों का एक महल
जिस पर मैं खड़ा था
जिस पर मैनें खींच कर
तुमको ला खड़ा किया था
जिस पर सवार हम चले थे
अविश्वास, धोखे, अनिश्चितताओं
के पार
तुम आयी थी अपनी पक्की ज़मीन
छोड़ कर, ये लीप ऑफ़ फेथ था
कि हम उड़ते चले जायेंगे
कि हम बह चलेंगे आगे
और पीछे रह जायंगे दुनियावी मसले
समझौते, दिमागी पेंच,
तुमने थामा था मेरा चेहरा
मेरी आँखों में झाँका था
मैं हर बात में हाँ भरा करता था
मैं अपने लफ़्ज़ों में रहा करता था
मगर मेरी परतें
मुझ पर जमी धूल
उखड़ने लगीं, हवा से
जहां मैं खड़ा था
वह जगह तुम्हारा फूल सा
भार न सकी संभाल
मैनें हम दोनों को ला गिराया
अंधियारे में,
तुम मुझे नहीं देख सकती अब
तुम मुझे छू भी नहीं पा रही
तुम आहत हो, खफा हो
तुम अब मेरे बनाये दलदल में
धंसी हो और रुकी हो निश्चल
कहाँ मैं और कहाँ तुम
और कहाँ अपना रस्ता गुम
पर रुको, मत थामो वो रस्सी
जो तुम्हें निकाल बाहर वापस
असलियत और बोझिलता की ओर
खींचती चली जाएगी
मैं भी तो हूँ यहीं तुम्हारे साथ
मुझे तुम दिखती चमकती हो
मेरे अपार अंधियारे में
देखो यहां भी बस मैं और तुम हैं
मेरा भी सब कुछ पीछे छूटा है
जो कुछ मुझमें कलुषित था
वह मुझसे टूटा है
अब दोनों धीरे धीरे
आंसू से कालिख धो लेंगे
इस गहरे गड्ढे से निकलने ही को
साथ हो लेंगे
वक़्त जो गुजरा वो गुजरा
जो गुजरेगा वो गुजरेगा
कल अगर गड्ढा था
कल को सीढी भी हो जाएगा
शायद चलते चलते
अपना रस्ता
दिख जाए कहीं
चार दिन चार पल
बीत जाएँ यूँहीं
आखिर  दोनों ही तो हैं यहां
इस जगह
इस निहायत अकेलेपन में
शायद नफरत और प्यार में
बहुत पतली दीवार है
चलते चलते लांघ पाओ
तुम शायद कभी
इसलिए अभी तुम मत जाओ
रुक जाओ, थम जाओ
टाल जाओ अपने कड़े और सही फैसले
मैं हक़ से नहीं
उम्मीद से मांगता हूँ
और वक़्त
और अकेलापन हमारा
और सन्नाटे
खिलखिलाहट के इंतज़ार में.





Tuesday, 13 May 2014

बाबा - 1

जब वो चलते थे तो पैर की मांसपेशियों से चटकने की हल्की आवाज़ आती थी, जिसे सुनकर कई बार मेरी नींद टूटती जब मैं अन्दर वाले कमरे में रजाई में दुबका रहता, या गर्मी में चटाई पर सोता  और बगल से वे गुजरते. केसला की गर्मियां तेज और लू वाली होती हैं, और कुछ साल पहले तक पंखा भी नहीं था, तो बाबा हमेशा उघाड़े बदन रहते दिन में, और सन की रस्सियों वाली खटिया के निशान उनकी पीठ पर चारखानेदार पड़ जाते.
जब भी बाबा घर पर होते तो मुझे और शिउली को पढ़ाते. गणित पढ़ाने में उनके जैसा सरल पढ़ाने वाला कोई नहीं मिला. अगर कोई ऐसी चीज़ होती जो उन्होंने अपने समय में नहीं पढी, कोर्स में नयी जुडी हो तो पहले उसे खुद पढ़ते फिर समझाते. व्यस्तता  बढ़ने के साथ पढ़ाना कम भी हुआ, लेकिन मुझे भी पढना हमेशा बोझ लगा, मांगने पर समय हमेशा देते थे. शिउली को कालेज के दिनों तक अर्थशास्त्र में मदद की.

सुबह तडके उठ जाते, और लिखने लगते, हम लोग रात (या भोर) समझ चार-पांच बजे पेशाब करने उठते तो बाबा पालथी मारे लिखते हुए दिखते, कभी लाईट न हो तो चिमनी की रोशनी में. लिखने की आदत जबरदस्त थी, चिट्ठियों के जवाब देते, प्लेटफार्म पर ट्रेन आने से पहले जल्दी जल्दी लिखते ताकि स्टेशन की डाक से जल्दी चली जाएँ. घर में पोस्टकार्ड इधर उधर मिलते हैं जिसमें उनके द्वारा 'जवाब- तारीख' लिखी होती है. हफ्ते में दो लेख सामान्यतः लिखते, उसके अलावा प्रेस विज्ञप्ति, पार्टी के परिपत्र वगैरह भी.

भूतकाल में लिखना कठिन है, मैं हमेशा से उनपर लिखना चाहता था, आज नहीं, आज से बीस साल बाद, जब मेरी लेखनी में इतनी ताकत आ जाये, जब मैं एक बेटे का अपने पिता के प्रति प्यार और आदर नहीं बल्कि उनके काम और विचारों के बारे में लिख सकूं. उनके जीवित रहते ही लिखना चाहता था हालांकि उन्हें पसंद नहीं आता. मैं समग्र में उनके जीवन और काम के बारे में लिखना चाहता था. लेकिन समग्र तो कोई नहीं लिख सकता. श्रद्धांजलि कैसी होती है? भाषण या लेख में नहीं होती, वो जैसी किशन पटनायक को जनपरिषद के जुझारू साथियों ने दी वैसी होती है.

उन्हें मेरी कवितायेँ पसंद आयीं थी, हालाँकि मैं उन्हें नहीं भेजता था, मेरा लिखना अपने दोस्तों, हमउम्रों, अपरिचितों के लिए होता है, जिन्हें मैं प्रभावित कर पाऊं. उनकी पसंद को मैनें अपने लिखे से अलग ही समझा. लेकिन शिउली और अन्य लोगों के जरिये उन तक पहुँची, और एक बार यहीं दिल्ली में मैनें एक सिरे से ब्लॉग की सारी कवितायेँ पढ़ कर सुनाई, जिस पर उनकी मिली जुली प्रतिक्रिया रही, लेकिन मुझे तसल्ली हुई. उन्हें गूढ़ता या शब्दजाल पसंद नहीं था, सीधी बात कहने वाली चीज़ें पसंद थीं. मेरी कविता किसी और के जरिये पहुँची और सामयिक वार्ता में छपी तो मुझे बहुत अच्छा लगा.

मैं ज्यादातर जगहों पर सुनीलजी - स्मिताजी का बेटा बना रहा. अपनी पहचान में भी और अंतर्मन में भी. अभी भी हूँ. अवचेतन में हमेशा याद रहा कि मैं कौन हूँ, हमेशा शर्म आयी कि जनरल डिब्बे, या वेटिंग लिस्ट में सफ़र करने से क्यों घबराता हूँ, या किसी कार्यालय के कर्मचारी से बहस न कर पाने की शर्म, महंगी दुकानों या रेस्तरां में घुसते हुए अपराधबोध जरूर होता है, और जीवन भर रहेगा, भले ही उसे दबा दिया जाए. ये चीज़ें हमारे लिए सामान्य हो गयी, मेरे आलस से बहुत खिन्न रहते थे,

बहुत कुछ याद आ रहा है, आगरा के किले और फतेहपुर सीकरी दिखाते हुए बहुत चाव से समझाया था कि कैसे मुगलों की स्थापत्य कला में ठंडक रहती थी, दीवारों में हवा के गलियारों के जरिये, और मेहराब में कैसे दरवाज़े मजबूत बनते हैं, कैसे बिना मसाले की जुड़ाई के मज़बूत पत्थर की दीवारें तैयार हो जाती हैं. बाबा नीरस - निर्मोही नहीं थे, उन्हें कभी कभार फ़िल्में देखने या जगहें देखने में आनंद आता था. लेकिन काम सबसे आगे था, और काम ही काम था, फुर्सत के क्षणों में किताबें पढ़ते और थ्योरेटिकल ज़मीन मज़बूत करते, कभी कभार फिक्शन भी पढ़ते लेकिन वह भी इधर कुछ सालों में ही शुरू किया था. मेरा अनुमान  यह है कि जब बाबा ने कार्यकर्ता बनने का तय किया तो 'शौक' उठाकर एक कोने रख दिए, हम उन्हें खींचकर कभी कभार फिल्म देखने ले जा पाए, कुल मिलाकर आधा दर्जन से ज्यादा बार नहीं. घूमते बहुत थे आन्दोलन और पार्टी के काम से, और आसपास के दर्शनीय स्थल समय मिलने पर देख लेते. पर निरंतर लिखना और लोगों से चर्चा करना, आन्दोलनों से जुड़ना, दौरा करना. यही उनके समय और सोच पर छाया रहता.

उनकी अपेक्षाएं सब से थीं, सब से, कोई भी छूटा नहीं है. सबसे यह अपेक्षा कि अपने समय का बड़ा हिस्सा समाज या समाजोपयोगी काम के लिए हम दें. लिखें, संगठन करें, गोष्ठियां करें, वार्ता को फैलाएं, या जहां भी हों अपने स्तर पर कुछ करें, अपने हाथ में चीज़ों को लें, परिस्थितियों के गुलाम न बनकर हिलाएं, झकझोर दें !
मुझे तेईस साल उनका साथ मिला, अब आगे जीवन में कितने साल हैं, यह साफ़ नहीं, लेकिन मुझे हमेशा अनकहा गर्व था बाबा पर, अनकहा इसलिए क्योंकि दिखाने पर उसका महत्त्व ख़त्म हो जाता, और हवाई गर्व की कोई कीमत भी नहीं. गर्व के आगे काम है, संघर्ष है. जिम्मेदारी है, उनका बेटा ही नहीं, उनका कार्यकर्ता होने की जिम्मेदारी ज्यादा बड़ी है. इस बैचेनी और ग्लानि  को काम में बदलना है कि उनके रास्ते पर अभी तक चल ही नहीं पाया हूँ. या अपना रास्ता भी बनाना शुरू नहीं किया है.
बड़ी तकलीफ के बावजूद लिख रहा हूँ, क्योंकि वो एक सार्वजनिक व्यक्तित्व थे, जिनका लिखा जाना जरूरी है, ताकि आगे हम बार बार मुड़कर देख सकें, खंगाल सकें एक जीवन को जो अनुकरणीय है/