रामपुरा का जो चेहरा मेरे मन में उभरता है, वह सिर्फ अपने अनुभवों पर
ही आधारित नहीं है. अपने परिवार वालों, दोस्तों, बड़ों से सुने और पढ़े पहलुओं का भी
इसमें जुड़ाव है. अरावली के दक्षिणी छोर पर पहाड़ के नीचे बसा है यह क़स्बा. मध्यकाल
में उत्तर-पश्चिम से दक्षिण की ओर आते कारवां यहाँ ठहरते थे, उस दौर की समृद्धि की
कहानियाँ अब यहाँ के खँडहर बयान करते हैं.
लेकिन यहाँ का इतिहास तो उससे कहीं और पुराना है, ये इलाका मूल रूप से
भीलों का रहा है, और उन्हीं में से एक सरदार, रामा भील ने इस गाँव को बसाया. बाद
में जैसे- जैसे ताकतवर राजपूत और अन्य मैदानी जातियों का प्रभुत्व बढ़ा, भील पहाड
के ऊपर के गाँवों की और खिसकते गए. आज रामपुरा में भील परिवारों की संख्या नगण्य
है, पिछले साल आसपास के गाँवों में सर्वे करने पर पाया कि वहाँ भील सबसे गरीब और
बुरी हालत में रहते हैं. किसी जमाने में जंगल और प्रकृति से जुडी जीवनशैली और
स्वच्छंद प्रकृति के ये लोग, आज समाज के निचले पायदान पर हैं. जंगल बहुत कम हो गए
हैं और वन विभाग के हाथ में हैं, खेती की ज़मीन इनके पास नहीं के बराबर है, मजदूरी
कर जैसे तैसे अपना काम चलाते हैं. संस्कृति के स्तर पर भी इस इलाके में इनकी भाषा
बहुत पहले विलुप्त हो गयी है और प्रकृति पूजन के रीति रिवाज, भगोरिया जैसे उत्सव
अब कहीं नहीं हैं. आदिवासी जीवन का जो अहम् पहलू उल्लास और प्रकृति से नज़दीकी होता
है, उसे भी मैं नहीं ढूंढ पाया.
ये एक सबक है, आदिवासी/प्रकृति आधारित लोगों को समाज, धर्म और
व्यवस्था की ‘मुख्यधारा’ में लाने की बात करने वालों के लिए. स्कूल में मेरे साथ
बंजारा जाति के लड़के भी थे, यह समाज भी अब आधुनिकता के बीच अपनी पहचान और जगह
खोजने को संघर्षरत है. घुमक्कड़ और व्यापारिक जीवन आधुनिकता के साथ ख़त्म कर दिया
गया है, ऐसे में पुलिस और बाकी समाज इन जैसी जातियों को नाहक ही अपराधी घोषित कर
देते हैं, और कई बार हाशिये पर और विकल्पहीन होने के कारण वे उस तरफ धकेल भी दिए
जाते हैं.
खैर, समय के साथ रामपुरा एक
बड़ा व्यापारिक केंद्र बन के उभरा और न केवल आसपास की उपजाऊ जमीन के कारण बल्कि,
व्यापारिक पथ पर होने के कारण यहाँ की मंडियां खूब विकसित हुईं. आज भी यहाँ की
गलियों के नाम इसकी गवाही देते हैं कि एक एक सामान के लिए एक पूरा बाज़ार निर्धारित
था. तम्बाखू गली, श्रृंगार गली (बाद में नाम बिगड़ कर सिंघाड़ा गली हो गया), लालबाग,
छोटा बाजार, बड़ा बाजार, धानमंडी जैसे मोहल्ले अब बस इतिहास के गवाह रह गए हैं.
सिलावट (पारंपरिक रूप से राजमिस्त्री), बोहरा, बनियों, स्वर्णकारों की अपेक्षाकृत
बड़ी संख्या भी दिखाती है कि व्यापार, निर्माण का बड़ा केंद्र होने से कारीगर और
व्यापारी जातियां यहाँ जमा हुईं. सत्रहवी शताब्दी में रामपुरा का विकास एक बड़े व्यापारिक
केंद्र के रूप में हुआ, जो अगली दो शताब्दियों तक कायम रहा. विभिन्न राजपूत राज्यों
के एक मनसब/दीवानी रहते हुए बाद में यह इंदौर की होलकर रियासत के अधीन रहा जिन्हें
यहाँ के दीवान भेंट/कर देते थे. रामपुरा के बड़े मंदिर होलकर काल के ही हैं, जिनमें
प्रमुख कल्याणरावजी का मंदिर और जगदीश मंदिर हैं, मध्यकालीन स्थापत्य कला का
उत्कृष्ट उदाहरण ये दोनों मंदिर आज भी स्थानीय लोगों की आस्था के केंद्र हैं. इसके
अलावा रानी का महल (जिसमें उपतहसील कार्यालय हुआ करता था), दीवान साहब का महल, और
किले के भग्नावशेष आज भी इतिहास के लिए एक रोमांच पैदा करते हैं.
मेरी पसंदीदा जगह है – पंच देवरिया, पांच मंदिरों का एक प्रांगण जो
बड़े तालाब के किनारे एक शांत कोने में है, आज सभी मंदिरों पर घास और झाड़ियाँ उग
रही हैं, दिन में भी यहाँ सन्नाटा पसरा रहता है, बड़े तालाब के अतिरिक्त पानी
निकलने की जगह (चद्दर) इसके बाजू से गुजरती है उसी से यहाँ की बावडी में पानी आता
है. स्कूल के दिनों में अक्सर मैं यहाँ भटका करता था. चद्दर के दूसरी ओर है एक
विशालकाय खिरनी का पेड़ और दादावाडी, जैन मुनियों के ठहरने का स्थान. दिल्ली की
धूल. शोर और भागमभाग के बीच अगर मुझसे कोई पूछे कि सुकून की तुम्हारी परिकल्पना
क्या है, तो मुझे यही जगह याद आयेगी.
पहाड़ के ऊपर एक मंदिर है और एक मस्जिद, और तलहटी में रानी का महल,
मेरा स्कूल और दूसरी तरफ दीवान साहब का महल और बड़ा तालाब. अक्सर स्कूली समय से ही
मुझे लगता था कि रामपुरा इतना विविध, दिलचस्प और ऐतिहासिक है कि इसे पर्यटन स्थल
बनाना चाहिए. अभी भी कितने ही दोस्तों को मैंने इसके बारे में बताया है, इसके फोटो
दिखाकर ललचाया है.
लेकिन पिछले कुछ दिनों से कुछ और भी सोच रहा हूँ, अगर ये पर्यटन स्थल
बन गया तो क्या ये नीरवता, शान्ति, सुकून कायम रह पायेगा? आकिर कौन सा ऐसा पर्यटन
स्थल बचा है जहां कचरा, भीडभाड, व्यावसायीकरण, हो-हल्ला नहीं है. जहां हर अनुभव की
एक कीमत न हो और जहां सब कुछ एक ढर्रे पर न चल पडा हो. हम भागभागकर शिमला या जयपुर
पहुँचते हैं, हर जगह फोटो खिंचाते हैं और खाने से लेकर इतिहास के बनावटी अनुभवों
को खरीदते हुए फिर दफ्तरी या दुकानी बोरियत में वापस घुस जाते हैं. हमारा किसी जगह
से जीवंत, रोमांचक, रहस्यों और जिज्ञासाओं से भरा कोई रिश्ता शायद ही बनता हो. मैं
चाहता हूँ कि रामपुरा के खँडहर बचें, उनका इतिहास खंगाला जाए, लेकिन साथ ही यह
नहीं चाहता कि दुकानों और टूरिस्ट गाइडों का शोर, गाड़ियों का धुंआ, होटलों का
दिखावटी वैभव रामपुरा को उसके अपने रहवासियों से ही छीन ले. बड़ी असंभव सी इच्छाएं
हैं मेरी.
स्कूल के पास किले का बुर्ज और शहर का दृश्य |
पञ्च देवरिया |
पहाड़ से बड़े तालाब का दृश्य |
पहाड़ पर मस्जिद |
बड़े तालाब में पहाड़ की विहंगम परछाई |
माणिक चौक भी है रामपुरा का एक इलाक़ा ( जहाँ अपने स्कूल है।)
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर वर्णन इक़बाल ��
ReplyDeleteअतिसुदंर
ReplyDeleteदेखना पड़ेगा एक बार :)
ReplyDeleteदिल को छू लिया भाई
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ReplyDeleteरामपुरा का वर्णन बहुत अच्छे शब्दों में है। धन्यवाद भाई।
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