आदरणीय लक्कड़ सर |
अपना घर (पहली मंजिल पर) |
जो उंगलियाँ गर्मी की छुट्टियों में अष्टा-चंगा-पै खेलने के लिए मचलती रहती थीं, आज की बोर्ड पर आकर ठहर गयी हैं. हमें उस खेल के लिए इमली के बीजे (चिंये) कभी कम नहीं पड़ते थे. वैसे मेरी दीदी इमलियों की दीवानी थी, एक बार में सौ ग्राम इमलियाँ खा डालती थी, इसीलिये दादी सीढ़ियों के नीचे वाली कोठरी में छुपा कर रखती थीं. ये कोठरी मेरे लिए एक रहस्यमयी तहखाने जैसी थी, अलग अलग तरह की मन ललचाती चीज़ें, इमलियाँ, खजूर, पापड़, कभी कभी मेवे, लेकिन साथ ही घुप्प अँधेरा और उसमे बंद रह जाने का डर. शायद जब मैं बहुत छोटा था चार – पांच साल का तब मुझे इसमें बंद कर दिए जाने की धमकियां भी मिली होंगी. रामपुरा का अपना घर वैसे इतनी भी प्राचीन बात नहीं है, 2007 तक चार साल रहा हूँ इसमें और 2008 में आख़िरी बार वहाँ सामान बाँधने में दादी की मदद की थी. लेकिन जब रामपुरा को याद करने बैठता हूँ तो सबसे पहले याद आती हैं गर्मी की छुट्टियाँ और वो विशाल, हवादार आंगनों, छतों और खिडकियों से भरा घर जहां मेरे दादा दादी ने 37 साल गुजारे, किराये पर.
भोपाल से एक बस चलती है, पहले मुख्य बस स्टैंड से चलती थी, अब लालघाटी से, ‘भोपाल- नीमच’. ये सुबह साढ़े सात बजे चलती है, और सबसे पहले आता है नरसिंहगढ़, जहां पहाडी चढ़कर संकरी गलियों में से गुजरकर बसस्टैंड आता है, किला भी दिखता है. फिर ब्यावरा, हाइवे का क़स्बा है. फिर राजगढ़, जहां मेरी दादी का मायका है और ढेरों रिश्तेदार हैं, दादी और पिता से सुनी कहानियाँ हैं, लेकिन उतरा एक ही बार हूँ, खिलचीपुर होते हुए फिर एक बजे आता है अकलेरा, जहां हम अक्सर आम खरीदा करते थे और मैं झूठी तसल्ली से भर जाता था कि आधा रास्ता कट गया अब जल्दी पहुंचेंगे. अचानक राजस्थान शुरू हो जाता है. झालावाड के बाद फिर अरावली में झूमते झामते, बबूल के पेड़ों और चट्टानों में से होकर भानपुरा आने के बाद रास्ता अथाह लगने लगता है. इस बीच मूंगफली आप खा चुके होते हैं और अखबार में विज्ञापन पढ़ चुके होते हैं. पसीने से तरबतर भीड़ चढ़ती उतरती रहती है, साफा बांधे बासाब और लुगड़ा पहने माँसाब कंडक्टर से बहस कर चुके होते हैं. गांधी सागर आने पर नज़ारा बदलता है और नदी की तरफ वाली खिड़की के लिए मन मचलता है. अंत में बेसला पहुँचते पहुँचते मन बस में नहीं रहता, मैं सड़क के मोड़ गिनने लगता हूँ, हम ये दोहराते हैं कि रामपुरा में मिलने वाले सिंघाड़े बेसला के तालाब से ही आते हैं. गांधी सागर के पानी में ढलती शाम की लाली झलकते हुए देखते हुए साढ़े छह बजे रामपूरा पहुँचते हैं. जहां बस स्टैंड पर ‘मधुशालाएँ’ खुली हुई हैं. इससे पहले कि आप मत्त हो उठें, ये गन्ने के रस की दुकाने हैं जहां शाम को टहलने के बाद लोग पहुँचते हैं. फिर एक ठेले पर सामान लादा जाता है और हम पहुँचते हैं 6, मोहिजपुरा, बड़ी बड़ी सीढियां चढ़कर पहली मंजिल पर जहां दादा दादी हमारा इंतज़ार कर रहे होते हैं.
रामपुरा पहुंचना आसान नहीं है, और रामपुरा से निकलना भी. अगर आप रामपुरा से निकल भी जाएँ तो रामपुरा आपके अन्दर से नहीं निकलता. अभी भी मेरी, दीदी की, बुआओं/ काका की जुबां अक्सर फिसल जाती है, हम कह पड़ते हैं कि रामपुरा जाना है. किसी भी ट्रेन से लगभग दो- तीन घंटे दूर और मुख्य लाइन के स्टेशनों जैसे रतलाम/कोटा से चार पांच घंटे दूर, हम अक्सर मजाक में कहा करते थे कि रामपुरा ‘खड्डे’ में है. ये खड्डा सिर्फ यातायात का नहीं था, अवसरों का भी था. सरकारी नौकरी में वहाँ रहे लोग नब्बे के दशक आते आते वहाँ से तबादला कराने को लालायित रहते थे, प्रमोशन, बच्चों के लिए प्राइवेट स्कूल, शौपिंग, अच्छा अस्पताल, ये सब वहाँ नहीं था. वहाँ था देशी पालक, शक्कर से मीठे सीताफल, खिरनी, सुनसान लेकिन अपनी सी लगती गलियाँ, एक तरफ पहाड़ और दूसरी तरफ विशाल जलराशि, अनगिनत मंदिर और मस्जिद और अनगिनत किस्से, जीवन के और जीवटता के.
अपवाद भी थे, दादाजी (डॉ रामप्रताप गुप्ता) और लक्कड़ साब (श्री अरविन्दकुमार जी लक्कड़, मेरे प्रधानाध्यापक) दो ऐसे ही अपवाद थे, कि इन्हें रामपुरा और रामपुरा को ये बहुत प्रिय हुए. तबादला होने पर लोगों ने बार बार रुकवा दिया. इनकी बदौलत रामपुरा का स्कूल और कॉलेज निजीकरण के साथ साथ सरकारी संस्थानों में आयी गिरावट को एक दो दशकों तक रोके रहे और कितने ही लोगों ने इनसे पढ़कर बहुत आगे तक का सफ़र तय किया. दादाजी 93 में रिटायर होकर भी और पंद्रह साल वहीं रहे और स्वास्थ्य, शिक्षा और पर्यावरण के क्षेत्र में काम करते रहे, उनकी बदौलत मैं रामपुरा में जितने लोगों को जानता हूँ उससे कई गुना लोग मुझे जानते हैं.
लक्कड़ सर के साथ पिछले साल एक सर्वे के दौरान बाज़ार में चलने का अनुभव हुआ, और ये महसूस किया कि एक अच्छा शिक्षक कितनी जिंदगियों को छूता है. मुझे ऐसा लगा कि उनके साथ चल पाना भी ऐसी उपलब्धि है जिसे मैं हासिल करने लायक नहीं हूँ. इन्होने कितने छात्रों को घर पर अलग से पढाया (जिसमें मैं भी शामिल हूँ), आर्थिक मदद दी, और अपनी डांट और छुपे हुए प्रेम से कितने ही छात्रों को ‘लाइन पर’ लाए. ये सरकारी स्कूल के ज्यादातर छात्रों का अनुभव रहा है कि 14 से 18 साल की उम्र तक हम सर से थर- थर कांपते हैं और बाद में उन्हें बेहद अपनेपन और आदर से याद करते हैं.
बावड़ियां एवं कुएँ भी बहुत हैं रामपुरा मै।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखा हे इक़बाल 👌
ReplyDeleteपूरा बचपन याद दिला दिया...
ReplyDeleteएक गलती सुधार दूँ क्या ? भोपाल से चलने पर पहले नरसिंहगढ़ आएगा फिर ब्यावरा।
ReplyDeleteसुधार देता हूँ. धन्यवाद.
DeleteVery nice description of Rampura, reminded all my old memories. For me Lakkad Saheb and Dr. RP Gupta ji were the main attractions for visiting Rampura. They really mean a lot for Rampura, have done many good things for Rampura.
ReplyDeleteअभी एक शब्द भी नहीं पढ़ा। कुछ मेहमानों में व्यस्त हूँ। तत्काल न पढ़ पाने से बेचैनी हो रही है। ब्लाग मुझे सीधा ई-मेल से मिलता रहे, ऐसी व्यवस्था नहीं हो सकती?
ReplyDeleteतकनीकी रूप से कमजोर हूँ, लेकिन कोशिश करता हूँ. उत्साहवर्धन के लिए आपका शुक्रिया.
Deleteइकबाल जी,
ReplyDeleteआपकी इन चन्द लकीरों ने मेरे मन छुपी हुई रामपुरा की यादों को जीवन्त कर दिया ।16 फरक्या गली का अपने दादाजी श्री केशरीलाल जी फरक्या का निवास, मढ़िया सेठ की दुकान, पल्लिया सेठ की पपड़ी, पोरवाल नोहरे की कुक,नानी चोटी, कमला नेहरू बाल मन्दिर सब कुछ चल चित्र की भांति आँखों के सामने आता जा रहा है । आपके द्वारा अपने ब्लाग पर इन यादों को ताजा कराने के लिए शुक्रिया।
डा ललित फरक्या
राष्ट्रीय साहित्यकार
9406657522
मेरा भी जन्म रामपूरा में हुवा बचपन भी बिता ,आज भी नाना का मकान और अपना जन्मस्थल जो चामुंडा माता मन्दिर कि दीवार से लगा हुवा है रामपुर का नाम लेते ही आँखों के सामने घूम जाता है ,बचपन में बोहरा मस्जिद की सडक पर अकेले जाने से डरते थे की कोई पकडकर अंदर बंद कर देगा या हो सकता है बड़े लोग घर से इधर उधर न निकल जाये इसलिए डराने के लिए ऐसा कहते होगे याद नही , पहली नोकरी भी वही लगी तब आँखों के सामने बड़ा तालाब ,छोटा तालाब घूम गया ,दोबारा 1997 में वापस मोका मिला 2006 तक रहा हमेशा अपने नाना के घर के सामने से निकलता तो बचपन याद आता ,ऐसा है हमारा रामपुर
ReplyDeleteशब्दों का क्रांतिकारी चयन, जीवंत विवरण।
ReplyDeleteनिःशब्द,,,,।।
ReplyDeleteकुछ भी बयां नही हो रहा।।चित्रण में खोया हुआ हुँ।।धन्यवाद
मैं मूल रूप से खरगोन जिले का निवासी हूं किंतु रामपुरा मेरी कर्मभूमि रही है मैंने रामपुरा में 33 वर्ष गुजारे रामपुरा एक ऐसा स्थान है जो शायद हिंदुस्तान में कहीं नहीं मिलेगा यहां हर चीज अपने आप में खास है रामपुरा का पहाड़ रिंगवाल दादाबाड़ी पंच देवरिया,यहां की किसी भी वस्तु को नजर अंदाज नही किया जा सकता है, मेरी पहचान आदरणीय श्री लक्कड़ सा के सानिध्य से ....
ReplyDeleteरामपुरा की यादों को शब्दों में पिरोना बड़ा मुश्किल है।
गोपाल रोकड़े
बहुत अच्छा लिखा है.एक बार हम भी गए है रामपुरा, हमें बहुत अच्छा लगा.
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