Tuesday, 31 August 2010

ऐ अजनबी तू भी कभी....

तुम कौन हो? कहाँ रहते हो? खुश हो या दुखी...तुम्हे इनकम टैक्स की चिंता है या दो जून की रोटी की? तुम आज ऑफिस में झगड़ कर आयी हो या तुम्हारा सुबह नल पर पानी के लिए झगडा हुआ है? तुम क्या चाहते हो? तुम्हारी पसंद-नापसंद, तुम्हारे अरमान, तुम्हारे सपने, तुम्हारी विकृतियाँ, तुम्हारा दृष्टिकोण दुनिया के प्रति... कुछ भी तो नहीं जानता मैं। लेकिन यूं ही सड़क पर चलते हुए, लिफ्ट में, बस में, लाइब्रेरी में, मेट्रो में, पार्क में, गली में या जंगल में भी जब कभी एकांत को तोड़ कर तुम सामने आते हो, तो देखता हूँ तुम्हारे चेहरे को यूं ही नज़र उठाकर। कई बार नज़रें मिलती हैं, कई बार नहीं। आमतौर पर हम नज़रें मिलते ही हटा लेते हैं और हो जाते हैं रवाना गंतव्यों के अंतहीन सिलसिलों में एक और गंतव्य की ओर....
लेकिन कई बार उस एक पल में ही मैं सोचता हूँ, पूछता हूँ खुद से, कि क्या तुम्हारी ज़िंदगी, तुम्हारी दुनिया मेरे जैसी है? या अलग है... तुम्हारे सपने क्या वही हैं? जो मेरे हैं... जब तुम खुश होते/होती हो तो क्या अकेले सड़क पर घूमते हुए पुराने फ़िल्मी गाने गाते हो मेरी तरह? क्या तुम दुःख में तकिये के नीचे सर रख पड़ जाते हो? क्या तुम्हारे साथ वैसा ही सब कुछ घटता है जैसा मेरे साथ?
आखिर क्या है, जो मुझे तुमसे जोड़ता है? क्यों मै कौतुहल से भर जाता हूँ? तुम्हारी निंदा या प्रशंसा करने नहीं, न ही रिएलिटी शो की भांति तुम्हारे व्यक्तिगत जीवन का तमाशा देखने। मैं तो बस जानना चाहता हूँ कि तुम और मैं, हम 'होमो सेपियंस' कितने मिलते हैं? क्या हमें जोड़ता या अलग करता है शारीरिक संरचना के अलावा? मैं महसूस करता हूँ कि मेरे और तुम्हारे लिए देश, दुनिया, धरती, किताबें, विचार, घर, परिवार, दोस्ती, राजनीति, वास्तविकता .......... का मतलब एक नहीं ! बल्कि ६ सौ करोड़ संसार हैं, और हर एक का अपना संसार इतना गहरा, इतना अलग है कि मुझे अचम्भा होता है कि लोग इन संसारों को खंगालते क्यों नहीं? अन्वेषण क्यों नहीं करते... मैं तो अब तक अपने सबसे गहरे दोस्तों के संसारों में भी कुछ कदम से आगे नहीं बढ़ पाया हूँ, और न ही खुद अपने संसार के विस्तार को पहचानता हूँ। शायद जीवन भर मैं इससे बहुत ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाउँगा...
लेकिन तुम्हारा चेहरा मेरे लिए तुम्हारे संसार की खिड़की है, इसीलिये गोदावरी ढाबा, गंगा ढाबा, बस स्टॉप, स्कूल, शहर, गाँव, यहाँ- वहाँ, सुबह-शाम, इधर-उधर शुतुरमुर्ग की तरह गर्दन घुमा कर ताकता रहता हूँ आते-जाते लोगों के अन्दर खिडकियों में झाँकने की कोशिश लिए। लेकिन ये कमबख्त दुनियादारी, शिष्टाचार, दैनिक जीवन की समस्याएं, "सभ्य" होने का दायित्व वगैरह वगैरह मिलकर मुझे तुम्हारे संसार का दरवाजा खटखटाने से रोक देते हैं।
प्रिय अजनबी, अंततः तुम अजनबी ही रहे और शायद अजनबी होना ही तुम्हारी और मेरी, याने हमारी नियति है... अगर भूले भटके कभी परिचय हो जाये तो ठीक, नहीं तो तुम्हारी अजनबियत भी तुम्हे मेरी ज़िंदगी का एक हिस्सा बना देती है, अन्य कई अजनबियों की तरह... लेकिन मैं जानता हूँ कि तुम्हारी अजनबियत अन्य अजनबियों से अलग है, क्योंकि तुम्हारे अन्दर जो दुनिया बसती है, वो एलिस इन वंडरलैंड वाले वंडरलैंड से कहीं ज्यादा अनूठी है !!

एक गाना सुनिए...

Monday, 23 August 2010

गाँव में बारिश कुछ और होती है...

टप- टप, टिप- टिप.. झर झर..... खिड़की से झांकते हुए आँख बंद भी कर लूं तो आवाजें दस्तक देती रहती हैं, इस बार मानसून दिल्ली पर कुछ ज्यादा मेहरबान है. पिछले ३ सालों से तो बारिश के लिए तरसता रहता था. गाँव की बारिश याद आती थी जो एक बार शुरू होने पर कई दिनों तक सरोबार कर देती थी,स्कूल की छुट्टियाँ हो जाती थी क्योंकि खपरैल की छत वाले स्कूल के अन्दर हर कमरे में एक तालाब मौजूद होता था... और अगर ज्यादा बरसात हो तो गाँव और स्कूल के बीच की नदी चढ़ते -चढ़ते पुल के ऊपर तक आ जाती थी.... बरसात में घर से छपा-छप कर निकलना, पानी से खेलना, बरसाती कीड़ों से बचना, अन्धेरा होने से पहले खाना खा लेना.. जामुन खाने के लिए नदी किनारे जाना.. घर की टपकती हुई छत के नीचे कोई सूखे कोना तलाश कर वहाँ खटिया डाल कर सोने की कोशिश करना, और मन ही मन घबराना यह सोचकर कि अपनी मच्छरदानी मच्छरों से तो बचा सकती है लेकिन नागदेवता अगर पधार गए तो क्या होगा ? और पकौड़े तो जीवन का अभिन्न अंग होते थे... और जब बरसात खात्मे की ओर होती तो, ककड़ी(खीरा) और अपने बाड़े के भुट्टे सेंक कर खाना..साथ ही दूसरों के बाड़े से चुराना ...इस सब मज़े के साथ ही आती थी परेशानियां.. कीचड, कीचड और कीचड... स्कूल जाते समय ट्रक वाले सफ़ेद युनिफोर्म का कबाड़ा करते हुए चले जाते थे.. शाम को इतने कीड़े निकलते कि खाना खाना, पढ़ना, बैठना मुश्किल !! छत तो टपकती ही थी, साथ ही सब लकडियाँ गीली हो जाने से चूल्हा जलाना दूभर हो जाता था..खैर अपन तो ठहरे मनमौजी, ये सब चिंता माँ- पिताजी के सुपुर्द कर मस्ती करने निकल पड़ते.. तब तक कीचड में खेल-कूद जब तक माँ कान पकड़ कर वापस न ले आये....अब ना गाँव साथ है, ना ही खेत के भुट्टे, ना नदी है न स्कूल लेकिन जब भी सुनता हूँ ये टिप -टप, और देखता हूँ कि आसमान से उतारते हुए पानी ने एक झीना सा जाल फैला दिया है, जब सौंधी सौंधी गंध उठती है, जब आंधी चलती है, तो अनायास मूड अच्छा हो जाता है, ये जानते हुए कि इस बारिश में वो ताकत नहीं जो ज़िंदगी को बचपन सा बना दे..

Tuesday, 17 August 2010

जूतों का वर्ग चरित्र और छपा-छप.....

बरसात के मौसम में स्लीपर चप्पल फटकारते हुए चलने और अपनी पैंट के संपूर्ण पार्श्व-भाग तथा अगर ज्यादा जल्दी में हों तो शर्ट तक को कीचड के छीटों से आच्छादित कर देने वाले लोगों के प्रति मेरा विशेष मोह है, क्योंकि उन्हें मैं अपनी ही जमात का प्राणी समझता हूँ। बचपन से लेकर आज तक स्लीपर चप्पल हर दुःख-सुख में मेरी संगिनी रही है, कितनी ही बार जूते- सैंडल - फ्लोटर खरीदे गए लेकिन जो पहला प्यार स्लीपर से हुआ वो आज भी बरकरार है। सबसे बड़ी बात ये कि जब चाहा पहन ली जब चाहा उतार दी..(गौरतलब है कि उतार देने की इस आजादी ने बचपन में दर्जनों जोड़ी चप्पलें गुमवाई हैं, इधर नाचीज़ कंचे खेलने में मगन है उधर चप्पल किसी और की संगिनी बन चुकी होती थी... और धूल धक्कड़ में खेलते हुए चप्पल कहाँ छूट जाती थी.... पता नहीं और बाद में हर गली कूचे में ढूँढने पर भी नहीं मिलती थी)
आजकल तो "विश्वविद्यालय" का विद्यार्थी हूँ, यहाँ आदमी की पहचान जूतों से हर-एक तो नहीं लेकिन एक बड़ा तबका करता है, कुछ लोग तो जमीन की ओर देखते हुए चलते हैं और आप भ्रम में पड़ जाते हैं कि बड़ा ही विनम्र और 'हम्बल' किस्म का व्यक्ति है लेकिन असलियत में वो जूते नापते चलते हैं। जूते से आदमी की हैसियत, कुलीनता, अड्डों यहाँ तक कि राज्य का भी पता लगाना लोग जानते हैं। इस मामले में चचा शरलौक होम्स को भी इन्होंने पीछे छोड़ दिया है....
बीच-बीच में पढने में आता है कि बालीभूड-हालीभूड की फलानी अभिनेत्री के पास १०० जोड़ी या २०० जोड़ी पादुकाएं हैं, मन करता है उन्ही जूतों का हार बनाकर पहना दिया जाए॥ इधर हमारे प्रिय साहित्यकार मुंशी जी के फटे जूते इतने प्रसिद्ध हैं कि क्या किसी हिरोईनी- फिरोइनी के होंगे! उनपर दद्दा मुक्तिबोध, और हरिशंकर परसाई ने रचनाएं लिख मारी हैं...
और अगर आज के हिदी साहित्यकारों को प्रेमचंद से और कोई प्रेरणा लेने में असमर्थता हो,( जैसा कि लग रहा है) तो उनको चाहिए कि कम-अज-कम अपने जूते मोज़े फड़वा कर पहने और इस तरह एक नए क्रांतिकारी फैशन की शुरुआत करें।
मेरे पैरों को कभी जूते भाए ही नहीं, कुछ घंटों में ही अंगूठे अथवा छोटी उंगली का विद्रोह शुरू हो जाता है, और जब पर बाहर निकालो तो लोग स्ट्रेचर पर बेहोश मरीजों को लेकर आने लगते हैं... यहाँ तक कि यात्रा पर भी मैं स्लीपर ही पहन कर चला जाता हूँ, जिन्हें ट्रेन में चोरी कर लेने के प्रति लोगों के मन में कम उत्साह रहता है। शायद यही कारण है कि मेरी एडियाँ अक्सर फटी रहती हैं और मन में पराई पीर को जानने का घमंड घर कर गया है...
अब लोग चाहे बरसात के, दौड़ने के, घूमने के, नाचने के, पार्टियों के, योगा के, मंदिर के, शादी के, ट्रेन के, बाथरूम के, किचन के, बेडरूम के, लान के, और पैर छुआने के अलग अलग जूते पहनते हों, अपने लिए तो स्लीपर ही जिंदाबाद है (हालाँकि इधर कुछ दिनों से एक सेंडल लेकर आये हैं, लेकिन उतारने-पहनने में इतनी कोफ़्त होती है कि मत पूछिए॥)
इति श्री जूता पुराणं समाप्तम !!
जोहार !!

Wednesday, 11 August 2010

देख सखी सावन दिल्ली को॥

हाँ तो सखियों और सखाओं, एक बार फिर सावन का दौर है, काली घटाएं छाई हुई हैं, मोरों ने वनों में पंख फैला दिए हैं... दिल्ली की सडकों पर बने गड्ढे पोखरों और तालों में बदल रहे हैं, जिनमे अकस्मात् स्नान का अवसर राहगीरों और दोपहिया चालकों को चारपहिया पर सवार देवदूत अक्सर प्रदान करते हैं। इस इन्द्रप्रस्थ नगरी के स्वर्णिम पथ २ से ३ फीट कीचड से सुशोभित हैं और इस पावन बेला में संगीत सुनाने का जिम्मा भीमकाय मच्छरों को प्रदान किया गया है, जिसे वे बखूबी निभा रहे हैं साथ ही हमारे प्रदूषित रेडियोधर्मी रक्त का रसास्वादन कर मुंह बिचका रहे हैं, (क्या यार ये तो बड़ा बेकार फ्लेवर है, दिल्ली में टेस्टी चीज़ मिलती ही नहीं, लगता है वापस गाँव जाना पड़ेगा !)
इस नगरी में रहने वाले यक्ष-यक्षिनियाँ दिन भर अपने कार्यालय में कार्य और अकार्य कर जब डी टी सी अथवा ब्लू लाइन नामक पुष्पक विमानों में लटक कर अपने गंतव्य की ओर रवाना होते हैं, तो स्वेद बिन्दुओं से सुशोभित उनके ललाट चमक उठते हैं। इन यानों में मानव मात्र एक दूसरे के इतने समीप आ जाता है कि सारी दूरियां समाप्त हो जाती हैं। इनके परिचालकों में वो अद्भुत क्षमता है कि वे एक ही यान में सैकड़ों यात्रियों को एक दूसरे के अत्यंत निकट पहुँचने का अवसर भी देते हैं और आगे वालों को पीछे और पीछे वालों को आगे भेजते भेजते इस असार संसार के निस्सार जीवन की व्यर्थता का साक्षात्कार करा देते हैं। यहाँ तक कि आगे-पीछे करते हुए यात्री इस मर्त्य लोक से ही विलुप्त हो जाता है, उसकी सारी इन्द्रियां निष्क्रिय हो जाती हैं और वह इस लोक का वासी नहीं रहकर भव -बंधन को तोड़ देने की इच्छा करता है।
यह अद्वितीय अनुभव दिल्ली के हर बस यात्री को प्रतिदिन होता है.... साथ ही इस नीरस जीवन में कुछ रोचकता लाने के लिए दिल्ली की सडकों पर विशेष व्यवस्था की गयी है, अब आप दिल्ली की सडकों से सीधे पाताल लोक जाने की सुविधा का लाभ ले सकते हैं॥ कल्पना कीजिए !! एक क्षण आप हरित उद्यान (ग्रीन पार्क) के राजपथ पर हैं, अगले ही क्षण एक रोमांचकारी खटके के साथ आप "गड़प" जमीन के अन्दर समा गए... ऐसा रोमांच तो विडियो गेम में भी नसीब नहीं होता... इसीलिए दिल्ली के सारे फुटपाथ खोद दिए गए हैं ताकि आप एक शहर में नहीं एडवेंचर आईलेंड में घूमने का मज़ा उठा सकें...
तो छोड़िये सावन के झूलों का मोह , और ब्लू लाइन के झूले का मज़ा लीजिये और यह सावन मच्छरों और दिल्ली की सडकों के साथ मनाइए...
ऐसी यादगार बारिश हिन्दी साहित्य के नायक नायिकाओं को भी नसीब नहीं होती...
गरज-बरस सावन घिर आयो...

Friday, 6 August 2010

निठल्ले का आत्मावलोकन

क्या लिखूं, कि लिखने के लिए बहुत कुछ है और कुछ भी नहीं। पिछले एक साल से यह योजना बना रहा था कि कुछ लिखूंगा लेकिन लगता रहा कि लिखने के अलावा और भी बहुत काम हैं जमाने में, लेकिन अंततः ये लगा कि अगर २० साल की उम्र में ज़िंदगी में नोस्टाल्जिया सबसे अहम् पहलुओं में से एक हो जाए, तो लिखना मजबूरी है।
नाम की चोरी के लिए स्वर्गीय हरिशंकर परसाई से माफी मांग लेता हूँ। दरअसल वे मेरे पसंदीदा साहित्यकार हैं, और मुझे लगा कि मुझ निठल्ले के लिए निठल्ले की डायरी लिखना ही सही रहेगा।
आज का दिन भी अनेकों अनाम दिनों में से एक है, दिल्ली, जहाँ मै रहता हूँ, में बादलों और सूरज में प्रतियोगिता जारी है, उमस से जीना बेहाल है और बारिश जब होती है तो मानो शरमाई सकुचाई सी आते ही भागने की तैयारी में जुट जाती है। मैं यूनिवर्सिटी में आये नवागंतुकों के चेहरों को घूरता हुआ कमरे से निकलता हूँ, और रोज़ की तरह टहलता हुआ लाइब्रेरी पहुँच जाता हूँ अपने खालीपन की पुनर्हत्या करने। मुझे अपने शुरुआती दिनों की याद आती है, जब मै अकुलाए छौने सा कैम्पस में रगड़ता फिरता था, उस समय लगता था मानो अपनी आखों से हर चीज़ को हजम कर जाऊं, अब हर एक चीज़ पुरानी लगती है, हालाँकि चीज़ों के पुरानेपन में एक सांत्वना भी है, कि मैं अकेला ही पुराना नहीं हो रहा हूँ। क्लासेस अभी शुरू नहीं हुई हैं इसलिए निठल्लेपन का एहसास और बढ़ गया है। मेरे ख़याल से कुछ अति पढ़ाकुओं को छोड़ दें तो हमारी पीढी के सब छात्रों ने ये महसूस किया होगा, कि जब क्लासेस नहीं लगती तो उनकी कमी खलने लगती है, और जब लगती हैं तो काटने को दौडती हैं। कितनी ही बार कक्षा में बैठे हुए खिड़की से बाहर झांकते हुए मैंने अपने समय के अन्य सदुपयोग करने कि योजना बनाई है, लेकिन छुट्टियाँ आते ही सब हवा- हवाई हो जाता है।
खैर छोडिये जनाब हम निठल्ले ही भले हैं, क्योंकि निठल्लेपन में हरेक कामकाजी का मजाक उड़ाने और खिल्ली उड़ाने कि आजादी निहित होती है....