कल शाम से गहरा गया है कोहरा,
कमरे से बाहर निकलते ही गायब हो गया मेरा वजूद,
सिर्फ एक जोड़ी आँखें रह गयी अनिश्चितता को आंकती हुई,
अन्दर बाहर मेरे कोहरा ही कोहरा है,
एक सफ़ेद तिलिस्म है है मेरे और दुनिया के बीच,
लेकिन मेरे अन्दर का कोहरा कहीं गहरा है इस मौसमी धुंध से
मैं सड़क पर घुमते हुए नहीं देख पा रहा कोहरे के उस पार
मेरे-तुम्हारे इस देश का भविष्य
मेरा देश कुछ टुकड़े ज़मीन का नहीं हैं जिसे लेकर
अपार क्रोध से भर जाऊं मैं और कर डालूँ खून उन सभी आवाजों का
जो मेरी पोशाक पर धब्बे दिखाने के लिए उठी हैं,
मेरा देश उन करोड़ों लोगों से बना है,
जिनकी नियति मुझ से अलग नहीं है,
जो आज फुटपाथ पर चलते-फिरते रोबोट हैं,
जो आज धनाधिपतियों के हाथ गिरवी रखे जा चुके हैं,
जो आज सत्ता के गलियारों में कालीन बनकर बिछे हैं,
जो आज जात और धर्म के बक्सों में पैक तैयार माल है जिन्हें बाजार भाव में बेचकर
भाग्य विधाता कमाते हैं 'पुण्य' और 'लक्ष्मी',
घने कोहरे के पार कुछ नहीं दिखाई देता मुझे,
शायद देखना चाहता भी नहीं मैं,
वह भयानक घिनौना यंत्रणापूर्ण दृश्य जो कोहरे के उस पार है,
वहाँ हर एक आदमी-औरत एक ज़िंदा लाश है,
वहाँ हर एक सच प्रहसन है
वहाँ हर एक सच राष्ट्रद्रोह है,
वहाँ हर उठी उंगली काट कर बनी मालाओं से खेलते हैं
राहुल -बाबा-नुमा बाल-गोपाल-अंगुलिमाल,
और समूचा सत्ता-प्रतिसत्ता परिवार खिलखिला उठता है,
इस अद्भुत बाल-लीला पर,
इस घने कोहरे से सिहर उठा हूँ मैं,
और कंपकंपी मेरी हड्डियों तक जा पहुँची है,
आज सुबह मैंने आईने में चेहरा देखा
तो सामने सलाखों में आप नज़र आये
विनायक सेन......
विनायक सेन को आजीवन कारावास की खबर पढ़कर यकीन हो गया है कि हम सचमुच हिन्दुस्तान में ही रह रहे हैं। स्वाभाविक और ईमानदार प्रतिक्रिया ।
ReplyDeleteइस ज़िंदां में कितनी जगह है
ReplyDeleteसुना है हाकिम सारे दीवाने अब ज़िंदां के हवाले होगे
सारे जिनकी आँख ख़ुली है
सारे जिनके लब ख़ुलते हैं
सारे जिनको सच से प्यार
सारे जिनको मुल्क़ से प्यार
और वे सारे जिनके हाथों में सपनों के हथियार
सब ज़िंदां के हवाले होंगे!
ज़ुर्म को अब जो ज़ुर्म कहेंगे
देख के सब जो चुप न रहेगें
जो इस अंधी दौड़ से बाहर
बिन पैसों के जो काम करेंगे
और दिखायेंगे जो पूंजी के चेहरे के पीछे का चेहरा
सब ज़िंदां के हवाले होंगे
जिनके सीनों में आग बची है
जिन होठों में फरियाद बची है
इन काले घने अंधेरों में भी
इक उजियारे की आस बची है
और सभी जिनके ख़्वाबों में इंक़लाब की बात बची है
सब ज़िंदां के हवाले होंगे
आओ हाकिम आगे आओ
पुलिस, फौज, हथियार लिये
पूंजी की ताक़त ख़ूंखार
और धर्म की धार लिये
हम दीवाने तैयार यहां है हर ज़ुर्म तुम्हारा सहने को
इस ज़िंदां में कितनी जगह है!
कितने जिंदां हम दीवानों के
ख़ौफ़ से डरकर बिखर गये
कितने मुसोलिनी, कितने हिटलर
देखो तो सारे किधर गये
और तुम्हें भी जाना वहीं हैं वक़्त भले ही लग जाये
फिर तुम ही ज़िंदां में होगे
"घना कोहरा..और..बिनायक सेन का चेहरा" यह बिम्ब बड़ा मानीखेज है।..........
ReplyDelete........ निठल्ले की डायरी को मैंने बना रहे बनारस से जोड़ लिया है।
@अशोक भाई: आपकी पंक्तियाँ आशा देती हैं.. पिछले कुछ दिनों से मैं दैनिक जीवन में सब कुछ 'नार्मल' होते हुए भी गंभीर निराशा से जूझ रहा हूँ. लेकिन ..हम लड़ेंगे साथी.. उदास मौसम के खिलाफ..
ReplyDelete@रंगनाथ जी : बहुत खुश हूँ कि आपने लिंक डालने लायक समझी, निठल्ले की डायरी एक निठल्ली दोपहर को बतौर टाईमपास शुरू हो गयी थी. बना रहे बनारस का मैं प्रशंसक और लगभग नियमित पाठक हूँ.
ReplyDeleteबेहतरीन लिखा है...................
ReplyDeleteविनायक सेन चिट्ठाचर्चा पर काहे बोलतो?