गीत हैं, हर एकाकी क्षण के साथी. गुनगुनाना प्रार्थना नहीं है, न ही चुटकुला, वह तो बस एक और आदत है, अलबत्ता आदतों में इसकी जगह बहुत ऊपर है.
भटकना जगहों से जगहों तक, विषयों से विषयों तक, चेहरों से चेहरों तक और आवाज़ों से आवाज़ों तक, हर एक ठिठकन अगली भटकन की भूमिका भर है,
अरमान भी हैं, लेकिन वो बड़े पाजी गिरगिट हैं,
उम्मीद हर अगली परछाई में है, वह मरीचिकाओं में अठखेलियाँ करती है... वह रेगिस्तानों में इन्द्रधनुषों की तस्वीर है, वह किसी सरकारी स्कूल की बाउंड्री वाल पर उगता पीपल है. वह पतंग है...जो आसमानों में डूब उतरा रही है,
मैं ढील दिए जा रहा हूँ, मेरी गर्दन अकड़ गयी है, प्यास से गला भी सूख रहा है, आँखों में सूरज जल रहा है ...
लिखना क्या चाह रहे हो ?
ReplyDelete@बुआ: ये गद्य अनायास की कुछ उत्तर-आधुनिक सा बन गया है, जिसका एक सदिश मतलब निकालना असंभव है.. बस रूपकों की एक श्रृंखला है
ReplyDeleteअरमान पाजी गिरगिट हैं... सही है!
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