Monday, 30 May 2011

न लिख पाने के खिलाफ/ ग्रेट एक्सपेक्टेशन्स

यह तो बड़ी ही अजीब बात मानी जाएगी कि ज़िंदगी में बिना कुछ ज्यादा लिखे हुए ही 'राइटर्स ब्लोंक' हो जाए। दरअसल असल कारण राइटर्स ब्लोंक नहीं बल्कि लिखने की आदत नही होना है। बहरहाल पिछले 20-एक दिन से गाँव में घर पर रह रहा हूँ छुट्टियों में, रोज़ दिन में चार-पांच बार कुछ न कुछ लिखने का ख़याल आता है लेकिन टाल जाता हूँ। आमतौर पर दिमाग में "अहा ! ग्राम्य जीवन" जैसी चीज़ें ही आ रही हैं जो कि साल भर दिल्ली में रहने के बाद काफी स्वाभाविक हो जाता है। लेकिन मैंने ठान लिया है कि अभी के लिए अहा ग्राम्य जीवन से हटकर कुछ कोशिश करूंगा। गर्मी के कारण घर से निकल भी नहीं रहा हूँ, इसलिए भी लिखना बंद है, अगर ज्यादा लोगों से बातचीत हो तो दिमाग में ज्यादा हलचल होती है। पहले कई बार नदी के या तालाब के किनारे बैठकर लिखने की कोशिश की, जब पुरी और मुंबई गया था तो वहाँ समुद्र के किनारे भी लिखने कि कोशिश की, लेकिन कलम ने चलने और शब्दों ने बहने से इनकार कर दिया। कई बार 4-5 लाइन लिख कर छोड़ दिया... बस बैठकर शून्य में ताकता रहा। वैसे सच कहूं तो समुद्र किनारे कुछ लिखने से कहीं ज्यादा सार्थकता लहरों में पैर भिगोने में है..
वैसे इन दिनों स्थानीय रेडियो स्टेशन अपने क्षेत्र के लोकगीत सुन कर बहुत मज़ा आ रहा है, और कुछ लोक-गायकों से मिलने की तमन्ना है, लेकिन अभी कोई प्लान नहीं बन पा रहा है।
पिछले दिनों डिकेंस की 'ग्रेट एक्सपेक्टेशन्स' पढी और खूब मजे से एक ही बैठक में पढ़ गया, अपने नायक 'पिप' की दुविधा के माध्यम से डिकेंस ने एक जबरदस्त रूपक गढ़ा है, जो 'सभ्य समाज' की जड़ों को दिखलाता है... एक साधारण लोहार परिवार में पला-बढ़ा पिप सभ्य, पढ़ा-लिखा और अमीर बनने के चक्कर में अपने सीधे -साधे परिजनों से नाता तोड़ लेता है, लेकिन जब उसे पता चलता है की उसकी अमीरी के पीछे एक सजायाफ्ता कैदी की गुमनाम मदद है, और साथ ही उसके सामने तथाकथित सभ्य लोगों की ज़िंदगी का लिजलिजा और टुच्चा यथार्थ आता है तो उसकी आँखें खुल जाती हैं, लेकिन तब तक वापसी के लिए बहुत देर हो चुकी होती है।
मुझे ऐसा समझ में आया कि ये उपन्यास प्रतीकात्मक ढंग से यह कहता है कि तथाकथित कुलीन वर्ग वास्तव में अपराध और अन्याय के पैसों पर खडा है, और उसके ढाचे को सरासर नाजायज़ ठहराता है..
उन्नीसवी सदी के ब्रिटेन में बसे पात्र मुझे आज भी बहुत ही सच्चे और जाने-पहचाने लगे, फिर चाहे वो झूठी गवाही दिलवाने वाला वकील हो, या अपने अभिजात्य वंश के गरूर में पगलाई माँ और नौकरों की दया पर पलते उसके बच्चे...
अब मन बनाया है कि डिकेंस की कुछ और रचनाएं पढूंगा। 'पिक्विक पेपर्स' पढना शुरू किया है।
वैसे छुट्टियों का "सदुपयोग" क्या होता है? अपन की छुट्टी तो किताब के पन्ने पलटते और घर के छोटेमोटे काम निपटाते हुए ही निपट जाती हैं, या फिर घूमते-फिरते।
एक नाटक करने का मन था लेकिन एक तो गर्मी जबरदस्त है और ऊपर से लोग शादियों में व्यस्त हैं, अपन भी थोड़े -बहुत व्यस्त हैं घर में कुछ निर्माण कार्य चल रहा है, वैसे उसका ज्यादा भार तो बाबा पर है।
न लिख पाने के कारण इतना सरपट लिख दिया, बेतरतीब सा। देखिये आगे कितना लिख पाता हूँ...

2 comments:

  1. खुशवंत सिंह ने एक बार कहीं लिखा था कि वो रोज दो पेज न्यूनतम तो लिखते ही हैं. भले ही बकवास क्यों न हो. यदि वो दो दिन भी गैप कर देते हैं, तो फिर से कलम उठाना बेहद भारी पड़ता है....

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