Tuesday 14 June 2011

कबिरा खडा बाजार में..

मेरे गाँव में हर रविवार हाट लगता है... या स्थानीय भाषा में 'बजार' भराता है। आस-पास के १०-१५ गाँव के लोग अपनी साप्ताहिक खरीददारी करने के लिए आते हैं, वैसे पूरे जिले में ही हफ्ते के अलग-अलग दिन अलग अलग गाँव के बजार के लिए तय हैं। मेरे गाँव केसला के आस-पास सुखतवा का बजार गुरूवार, साध्पुरा का सोमवार, भौंरा का शुक्रवार को पड़ता है।
जो इन बाजारों से परिचित न हो उसके लिए इनके रंग और गांववालों के लिए इनका मतलब समझना थोड़ा कठिन है। बहुत पुराने समय से ही बजार हमारे आदिवासी बहुल-क्षेत्र में सिर्फ खरीदने-बेचने से कुछ बढ़कर है... यह एक दिन है जब हमारे बाशिंदे अपनी रोज़ की मेहनत-मजूरी से हटकर अपनी ज़िंदगी में कुछ रंगों की तलाश में पैदल या साइकिल से बजार पहुँचते हैं... होशंगाबाद और बैतूल जिले की आदिवासी पट्टी के किसी भी बजार में आप जाएं तो नजारा एक सा होता है। रंग-बिरंगी पारंपरिक सोलह गज की साड़ियों में आदिवासी महिलाएं थैला लिए कुछ खरीदती, कुछ देखती हुई दिखाई दे जाएंगी, अधिकतर घर के सामान की खरीद महिलाएं ही करती हैं। (इस मामले में आदिवासी समाज अन्यों से अलग हैं जहां 'बाहर' का काम पुरूषों के हवाले और 'अन्दर' का महिलाओं के जिम्मे होता है) पुरुष भी, जिनमे आमतौर पर युवा लड़के ज्यादा होते हैं, अपने दोस्तों के कन्धों पर हाथ रखे चहलकदमी करते हैं।
जितनी दुकानें सब्जियों और अनाज की होती हैं, लगभग उतनी ही कपड़ों, और आईना, बिंदी, चूड़ी, रुमाल, कंघी,पिन, तेल, चप्पल, आदि की होती हैं... ये सभी दुकानदार एक बजार से दूसरे बजार घूम घूमकर अपना धंधा करते हैं।इनके आगे लटके रंग-बिरंगे रुमाल सहज ही ध्यान खींचते हैं(बुंदेलखंड-महाकौशल में लगभग हर मर्द के गले में एक गमछा-रुमाल जरूर होता है, जो तौलिये, चादर, पोटली, रस्सी, और सिर ढंकना आदि के बहुउपयोगी अवतार में इस्तेमाल होता है)
बजार के लिए लोग सज-सवंर कर तैयार होते, यह एक ख़ास मौक़ा होता है गाँव के जीवन में. मुझे आज भी याद है कि रविवार दोपहर हम सब नहा-धोकर सिर में खूब सारा खोपरे का तेल चुपड़ कर साबुत कपडे पहन कर बजार जाने के लिए तैयार हुआ करते थे, (हम में से ज्यादातर के पास केवल एक जोड़ी साबुत-फिट बैठने वाले कपडे थे-स्कूल की यूनिफार्म, आज भी स्थिति कुछ ज्यादा बदली नहीं है) खाकी पैंट और सफ़ेद शर्ट से सुसज्जित चार पांच नन्हे हीरो अकड़ कर निकलते थे, अपने उन छोटे भाई बहनों की तरफ गर्व से देखते, जो अभी बजार जाने की उम्र के नहीं थे। बजार में अलग-अलग चीज़ों की दुकानों को जी भर के देखने के बाद हम पैसे मिलाते और ४-५ रुपये का नमकीन खरीद कर खाते। उसके बाद धुंधलके में धीरे-धीरे गाँव की ओर चल पड़ते, रस्ते में गाँव के लोग मिलते, कुछ हंसी मजाक होता (आजकर ज्यादा हंसी मजाक मेरे विशाल डील-डौल पर होता है) और दिन ढलते सब घर पहुँचते, जहाँ बच्चे सबसे पहले झोलों पर झपटते, जहां नमकीन, जलेबी या कोई और चीज़ उनके लिए रखी होती। मजदूरी के पैसे भी बजार के ही दिन मिलते हैं। गाँव के लोग अपनी वनोपज वगैरह बेचने के लिए लाते हैं और बदले में अपनी जरूरत का सामान ले जाते हैं।
बजार में आस-पड़ोस के गाँव के लोग मिलते हैं, महिलाएं एक तरफ खड़े होकर घर-परिवार की, गाँव की बातें करती हैं, दुःख और सुख साझा किये जाते हैं। इनमे से ज्यादातर गाँवों में किराने की दुकानें नहीं होती थी, इसलिए बजार एक तरह से "बाजार" की उनके जीवन पर एकमात्र दस्तक थी जिनकी ज्यादातर जरूरतें खेत और जंगल पूरा किया करते थे। लालमिर्च, मसाले, कनकी(चावल की चूरी) और कुछ सब्जियां लोगों के झोलों में झाँकने पर दिख जाएंगे। बजार में ही आदिवासी युवक-युवतियों के माँ-बाप उन्हें एक-दूसरे से मिलाने के लिए लाते हैं, सम्भावित रिश्ता पक्का होने से पहले। चूंकि आदिवासी समाज में प्रेम-विवाह भी प्रतिबंधित नहीं है हालांकि उन्हें प्रोत्साहित नहीं किया जाता, इसलिए अनेक प्रेम-कथाओं का जन्म भी बाजारों में हुआ है॥
अपनने बहुत पहले से घर की सब्जी लाने का जिम्मा उठा लिया था, इसलिए आज भी छुट्टियों के दौरान बजार जरूर जाते हैं, और आते-जाते चेहरों में कोई परिचित चेहरा ढूंढते रहते हैं। सब्जियों के बढ़ते दामों को कोसते-कोसते अक्सर ही कोई छठी-सातवीं का सहपाठी मिल जाता है, जिसके चेहरे को ध्यान से देखने पर नाम याद आ जाता है। हाल-चाल पूछने के बाद थोड़ी देर उन दिनों को याद करते हैं जब दोनों निक्कर पहने दुनिया भर की हांका करते थे और यह महसूस कर अजीब लगता है कि अब जब दुनिया देखने के दिन आये हैं तो हांकने के लिए कुछ मिल नहीं रहा है।
पिछले बजार किरार सर मिल गए थे, जो हमारे मिडिल स्कूल में अपने सवा पाव के हाथ के जोर पर गधों को घोड़ों में बदलने की घुडसाल आज भी चलाया करते हैं, सर ने ये उम्मीद जाहिर की कि अपन उनका नाम रोशन करेंगे, (अपन को स्वयं प्रकाश की एक कहानी याद आ गयी, जिसमे एक बच्चा सोचता है कि वो अपने बाप के नाम का बोर्ड लगवा कर उस पर रंग-बिरंगे बल्ब लगवा देगा) अपन ने एक विनम्र मुस्कान से काम चलाया।
बजार भी बदल रहे हैं, दुनिया भी बदल रही है, उम्मीदें लम्बी चौड़ी हो रही हैं और अपन १० रुपये के सवा किलो टमाटर खरीदकर खुल्ले पैसों के लिए बहस कर रहे हैं...

1 comment:

  1. इस तरह के हाट-बाज़ार लगभग सारे भारत में प्रचलित है. और इसी प्रकार अलग अलग दिन तय रहते है विभिन्न गांवों के लिए. यहाँ तक कि उज्जैन जैसे शहरों में भी इलाके तय है हाट के लिए और हाट के दिन के नाम से ही उस इलाके के नाम होते है जैसे सोमवारिया, बुधवरिया आदि. तुमने लिखा बहुत अच्छा है एक दम हाट का माहोल आँखों के सामने आ गया.

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