Wednesday 11 April 2012

कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं...



आजकल बाज़ार में टूथपेस्ट के नए विज्ञापनों का चलन है.. जो दावा करते हैं कि वे आपके दांतों की 'सेंसेटीवीटी'
याने संवेदना खत्म कर देंगे.. याने ठंडा-गरम खाने-पीने से होने वाली तकलीफ/अहसास खत्म हो जाएँगे. जैसा कि चलन है, एक के बाद और कंपनियों ने भी यह फार्मूला अपना लिया, जैसा कि पुरुषों के गोरेपन की क्रीम से लेकर अभी तक चला आ रहा है. एक कंपनी अपनी तथाकथित मार्केट रिसर्च के बाद जो शिगूफा छोडती है, वो आग की तरह सारे दिमागों तक पहुंचाया जाने लगता है. यह नहीं कि आप ठंडा-गरम कम खाएं और दांतों का ख़याल रखें. उनकी संवेदना ही कुंद कर दी जाएगी..

लेकिन मैं रिमूव सेंसेटीवीटी.. की 'कैचलाइन' सुनकर सोच में पड़ गया. मुझे समझ में आने लगा कि यह सिर्फ दांतों का मामला नहीं है, दरअसल हर किस्म की संवेदनशीलता को खत्म करने का अभियान जारी है.

भावों, खासकर सहानुभूति, पीड़ा, ग्लानि -जैसे तथाकथित 'नकारात्मक' भावों को दबाने के लिए जनाब श्री श्री से लेकर तमाम बाबाओं की दुकानें चलती हैं. कोई माने या न माने.. लेकिन यह इंसान का एक मूल स्वभाव है, कि वो औरों के दुःख से दुखी, द्रवित होता है, साथ ही यह सोचने पर भी मजबूर होता है, कि आखिर क्या कारण है कि इतने लोग इतने बुरे हालत में जी-मर रहे हैं.

लेकिन यह ज़माना देखकर भी न देखने का ज़माना है, इसीलिए सालों से शहर के बीच में रह रहे मजदूरों-कारीगरों की झुग्गियों को अस्सी के दशक से ही उठाकर शहर से बाहर फेंका जाने लगा, ये कालोनियां 'अवैध', 'गंदी', अपराधियों का अड्डा या फिर विकास का अवरोध आदि कई कई नामों से हटाई गयी.. वहीं बिल्डरों के अवैध निर्माण चुपचाप वैध हो गए.. रेसिडेंट वेलफेयर असोसिएशन वगैरह की त्रासदी को मीडिया में भी जगह मिली, पर पिछले दिनों से देखता हूँ कि झुग्गियां तभी सुर्ख़ियों में आती हैं जब वहाँ आग लगती है, जहरीली शराब पीकर लोग मरते हैं या फिर लाठी चार्ज/पथराव होता है.

सौन्दर्यीकरण या शंघाईकरण का मतलब बस यही है कि कांक्रीट के जंगलों में गिने चुने इंसान बचें जो काले शीशों में बंद ठंडी हवा खाते रहें, और उनके गुलाम हमेशा परदे के पीछे रहें.. अदृश्य, मानो किसी आधुनिक मशीन के पुर्जे.. जो बोनट में बंद हैं..

दिल्ली में अस्सी के एशियाड में बड़े पैमाने पर बस्तियों को उजाडा गया.. फ्लाईओवर बने जो जल्द ही बढती कारों के बोझ तले कम पड़ गए.. मजदूर सुबह शाम खचाखच भरी बसों में लथपथ दो तीन घंटे सफर कर काम करने जाते और लौटकर अपने दस बाय बारह के दडबे में सो जाते, जहां पानी,शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी चीज़ों के भी सपने ही पाए जाते. इस तरह शहर का वो थोड़ा बहुत आम चेहरा टूटा जो पुरानेपन की पहचान था, जब गरीब भी अमीर के मोहल्ले में दुआ-सलाम कर रहा करता था, ये आधुनिक अपार्थाइड था.. अब शहर खास थे.. शहर के कुछ हिस्से खास थे. जहां कृष्णों को सुदामा पर मेहरबानी करने की भी जहमत नहीं उठानी पड़ती थी. सुदामा को अपहरण कर गायब कर दिया गया ताकि कृष्ण की मौज में खलल नहीं पड़े..

अभी कामनवेल्थ खेलों में तो सरकार ने झुग्गियों के सामने बड़े बड़े परदे-होर्डिंग लगवा दिए, ताकि हमारे नफीस मेहमानों को हमारे जाहिल देशवासी दिखाई न पड़ें, ताकि महाशक्ति बनाने के ख्वाब पर फटे तलवों, पसीने और निराश निगाहों के दाग न लगें, ताकि दक्षिण दिल्ली की चिकनी सड़कों पर दौडती लक्झरी कारों और पंचसितारा होटलों में मयनोशी करते अमीरजादों में ही हिन्दुस्तान की परछाई नुमाया हो. यह बात अलग है कि इन खेलों को देखने कोई आया ही नहीं और इस बहाने बहुत से होटल वालों को सस्ती ज़मीन मिल गयी.

तो यह तय है कि हमारे समय में संवेदना की जरूरत और अस्तित्व को खत्म करने की पुरजोर कोशिश जारी है, डाक्टर और बाबा सलाह देते हैं कि हमेशा खुश रहो, पाजीटिव सोचो, बल्कि सोचो ही मत तो सबसे अच्छा.. अपने घर-दफ्तर और बाजार में बस अगले प्रमोशन, अगली छुट्टी, अगले मोबाइल, अगली फिल्म, अगले चुटकुले का इंतज़ार करो. अगर सड़क पर, गली में, फुटपाथ पर या बस की खिड़की से कुछ ऐसे लोग दिखाई पड़ जाएँ जो कुछ अजनबी से हों, जिन्होंने ब्रांड के कपडे नहीं पहने हों, या जो खिली खिली क्रीम छाप त्वचा के मालिक नहीं हों, जिनकी आँखों में अभी भी कमरे के किराए और माँ की बीमारी और गाँव की फसल की चिंता हो, तो समझ लो कि वह सीनरी का हिस्सा है, बल्कि वह तुम्हारे मनोरंजन-विविधता के लिये ही वहाँ खडा किया गया है. कि वो जहां हैं वहीं खुश है, कि वे उसी लायक है, कि उनकी किस्मत में वही लिखा है, कि वो इसीलिए नहीं मुस्कुराते क्योंकि वे कोलगेट नहीं कोयले से दांत मांजते हैं. कि वे इंसान नहीं खच्चर हैं..

जी हाँ यह संवेदनाओं का कब्रिस्तान है मेरा देश, यह समय छोटी याददाश्त और टुच्चे सपनों का समय है. जब कानों में हेडफोन लगे हैं और चीख-पुकार सुनाई नहीं देती, न ही खौफनाक मंज़र दिखाई पड़ते हैं फैशनेबुल धुप के चश्मों में. पांच हज़ार लोग भूख हड़ताल पर बैठते हैं, जो देशद्रोही हैं, जो विकास विरोधी हैं, जो 'एंटीला' जैसे बंगलों को बिजली देने के लिए अपने भविष्य की कुर्बानी देने को तैयार नहीं हैं..

नोंनाडांगा में माँ माटी और मानुष वाली नेत्री.. उक्त तीनों पर हमला करती है, दो सौ बेघर परिवार, जो अपनी तारपलीन की झुग्गियों में तूफ़ान से उजड जाने के बाद रह रहे थे.. उजाड दिए जाते हैं, यकायक, उनके पास कागजात नहीं है, लेकिन उससे भी बड़ी बात यह कि वो अमीर-जात नहीं हैं.. वो रिक्शा खींचने, बर्तन मांजने, ईंट धोने वाले हाथ हैं, वो 'हीरा है सदा के लिए ', पहनने वाले और वैक्सिंग करवाने वाले हाथ नहीं हैं. कुछ हाथ और भी उठे इनका साथ देने को.. लेकिन हथकडियां अब तैयार बैठी हैं, क़ानून बन चुके हैं.. जो हाथों को उठने से रोकते और सलाम करने पर मजबूर करते हैं.

मुझे ठंडा-गर्म महसूस होता है अब भी, मेरी रगें सनसना उठती हैं.. मैं हर एक को झकझोर कर कहना चाहता हूँ, ऐसा टूथपेस्ट-क्रीम मत लगाना कि, किसी उजड़ते हुए परिवार को देखकर रोना न आये, कि किसी पिटते हुए मजदूर को देखकर गुस्सा न आये, कि किसी लड़ते हुए किसान को देखकर प्रेरणा न मिले .. ऐसे मत बन जाना कि हमारे सामने ये देश, समाज, लोग खत्म किये जाते रहें.. कि न्याय, समता, इंसानियत सब विज्ञापन बन कर रह जाएँ जो चमकती दीवारों पर सजे हों, जिनके नीचे लाशों पर बाजार के फूल खिलें हो, और हम खड़े शून्य में ताकते रहें या मौज मनाते रहें. अभी भी समय बाकी है, अभी भी लड़ाई जारी है..
मुक्तिबोध के शब्दों में -
इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर-जाल –
केवल एक जलता सत्य देने टाल।
छोड़ो हाय, केवल घृणा औ' दुर्गंध
तेरी रेशमी वह शब्द-संस्कृति अंध
देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध...

फोटो नोनाडांगा के विस्थापितों की एक तस्वीर है जो 'डाउन टू अर्थ' पत्रिका से ली गयी है,

5 comments:

  1. आजकल सब जगह संवेदनाओं का ही कारोबार है।

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  2. हां ये विज्ञापन दांतों की नहीं हमारे दिल-दिमाग़ को सेंसिटीविटी से मुक्त कर रहे हैं जो `गलीज़` दृश्यों को देखकर नाहक ही विचलित हो सकता है। बेहद ईमानदारी से और जेनुइन दुख से लिखा गया लेख है।

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  3. excellent, remarkable, I am agree

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  4. झकझोरने वाला लेख. मन भींग गया लेकिन क्या करें! करें तो क्या करें!!

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