देखा है किसी शहर को डूबते हुए?
चौखटों, आंगनों, दीवारों,
किलकारियों, झल्लाहटों को
'गड़प' से मटमैले पानी में
गुम हो जाते देखा है?
चौखटों, आंगनों, दीवारों,
किलकारियों, झल्लाहटों को
'गड़प' से मटमैले पानी में
गुम हो जाते देखा है?
सर पर बर्तन-भांडे, संसार
का बोझ लिए लड़खड़ाती औरतों को देखा है?
लाइन में लग बासी पुरियों और सड़े आलुओं की सब्जी
लेते स्कूल ड्रेस में खड़े बच्चे के कीचड खाए पैरों को देखा है?
देखा है गौमाता की सडती लाशों पर बैठे
कौओं की उत्साह भरी छीना-झपटी को?
आलआउट, एसी, से भगाए मच्छरों के झुण्ड को
रिलीफ कैम्प, बियांड बिलीफ कैम्प की ओर
कॉम्बैट फार्मेशन में बढते हुए देखा है?
देखा है उल्टी करते हुए बड़े गौर से
सरकारी अस्पताल के आँगन में
कोने में पडी पान की पीक को?
देखा है ऊपर मंडराते हेलीकाप्टर को,
उसकी खिड़की में से भोपाल से उड़कर आये
'किसान-पुत्र' को झांकते हुए देखा है?
नर्मदा के आवारा बेटे होशंगाबाद
का अपनी माँ के हाथों
गला घुंटते देखा है?
देखा है विकास को नंगा होते देखा है?
देखा है कल और आज को सरेआम लुटते देखा है?
चलो आज दिल्ली से दक्खिन की ओर
चलो आज आशा के अंतिम छोर
मोटरबोटों, तस्वीरों की चीखों के पार,
डूबती फसलों, तैरती गलियों के पार,
वादों, दावों, करिश्मों के पार,
भरम, मस्ती, मोहभंग के पार,
देखो क्या कोई बच पाता है,
देखो सामने कौन खिलखिलाकर
खींचे लिया आता है,
बाढ़, बाढ़, बाढ़.
का बोझ लिए लड़खड़ाती औरतों को देखा है?
लाइन में लग बासी पुरियों और सड़े आलुओं की सब्जी
लेते स्कूल ड्रेस में खड़े बच्चे के कीचड खाए पैरों को देखा है?
देखा है गौमाता की सडती लाशों पर बैठे
कौओं की उत्साह भरी छीना-झपटी को?
आलआउट, एसी, से भगाए मच्छरों के झुण्ड को
रिलीफ कैम्प, बियांड बिलीफ कैम्प की ओर
कॉम्बैट फार्मेशन में बढते हुए देखा है?
देखा है उल्टी करते हुए बड़े गौर से
सरकारी अस्पताल के आँगन में
कोने में पडी पान की पीक को?
देखा है ऊपर मंडराते हेलीकाप्टर को,
उसकी खिड़की में से भोपाल से उड़कर आये
'किसान-पुत्र' को झांकते हुए देखा है?
नर्मदा के आवारा बेटे होशंगाबाद
का अपनी माँ के हाथों
गला घुंटते देखा है?
देखा है विकास को नंगा होते देखा है?
देखा है कल और आज को सरेआम लुटते देखा है?
चलो आज दिल्ली से दक्खिन की ओर
चलो आज आशा के अंतिम छोर
मोटरबोटों, तस्वीरों की चीखों के पार,
डूबती फसलों, तैरती गलियों के पार,
वादों, दावों, करिश्मों के पार,
भरम, मस्ती, मोहभंग के पार,
देखो क्या कोई बच पाता है,
देखो सामने कौन खिलखिलाकर
खींचे लिया आता है,
बाढ़, बाढ़, बाढ़.
(दिनांक 08-08-12 को जबकि होशंगाबाद में नर्मदा तबाही मचा रही है, और मैं/हम असहाय ख़बरें पढ़ रहे हैं, सन्न हैं, दिमाग कुंद है, तस्वीरें दो दिन पहले होशंगाबाद में ली गयी हैं )
बढ़िया है पुराने व्यंग्य याद आ गये पर ये ज्यादा तीखा है तडका जोरदार है बाबू.बस लगाते रहो और घिसते रहो कलम के धनी हो जाओगे तो फ़िर मत कहना .............और नरम निवेदन ये था कि एक बार चले आओ यहाँ बाढ़ पीड़ित बाट जोह रहे है तुम्हारी और वो ससूरा कनु भी आ जाएगा इस बहाने .................
ReplyDeleteखैर मजाक हो गया पर अच्छा है लिखते रहो बहुत प्यार और ढेर सारी शुभकामनाएं.....
संदीप.
पढ़ ली । कविता में वही आया जो हो रहा है।
ReplyDelete