रात सरकती है पलकों पे बेआवाज़
बोल तैरते हैं हवा में बुलबुले
कविता मगर छिटक जा गिरती है दूर
हाथ लगाते ही यकायक
अँधेरा चेहरा छुपाने के काम आएगा
कसकर कम्बल सा लपेट लिए चलता हूँ इसे
बेशुमार काम बाकी हैं
कल,
और आज को लंबा खींच
नींद के खिलाफ मोर्चा खोले
बुदबुदाता हूँ
अनगढ़ तुकबन्दियाँ
मेरी आँखों के सामने से
गुजरते हैं अनगिनत सपने
देखे जाते कमरों में, छतों के नीचे,
फुटपाथ पर,
नए बने फ्लाईओवर की ओट में
देखे जाते चुपचाप सपने
जहां ऊपर गुजरती तुम्हारी
मुश्किल से जुबां पे आते नामों वाली
विदेशी कारें,
उनके पहिये भी न कुचल पाते वसंत की रातों में तैरते सपनों को
(भले कुचला उन्होंने बार बार
देश के दोयम दर्जे के बाशिंदों को खुद )
रेल की पटरी के दोनों ओर
काली-नीली प्लास्टिक की झुग्गियों में से
मच्छरों की तरह भिनभिनाते बाहर आते सपने
रात में
जब दक्षिण दिल्ली की सड़कें,
मॉल, दुकानें, साउथ बॉम्बे, श्यामला हिल्स
या राजपथ-लुटियन की दिल्ली में भी
सपनों का प्रवेश निषेध नहीं करवाया जा सकता किसी
वर्दीधारी से,
वे निकल आते-नाचते गाते हैं सपने
फ़ैल जाते इस देश के काले आकाश पर रात में
मैं पढ़ने कि कोशिश करता हूँ इन्हें
या छोड़ देता यूं ही
गुम अपने सपनों में ही
और खुद को सांत्वना देता
'पाश' को भी..
अभी सपने जिंदा हैं,
सपनों की सीढियां बढ़ रही हैं
आसमान की ओर धीरे धीरे चुपचाप, दबे पांव
एक दिन सुबह होने पर भी वापस न उतरेंगे सपने
तब तक ढील दे रहा हूँ मैं
अँधेरे में बैठा कमरे में
और गुनता बूझता खेलता
सपनों से ..
बोल तैरते हैं हवा में बुलबुले
कविता मगर छिटक जा गिरती है दूर
हाथ लगाते ही यकायक
अँधेरा चेहरा छुपाने के काम आएगा
कसकर कम्बल सा लपेट लिए चलता हूँ इसे
बेशुमार काम बाकी हैं
कल,
और आज को लंबा खींच
नींद के खिलाफ मोर्चा खोले
बुदबुदाता हूँ
अनगढ़ तुकबन्दियाँ
मेरी आँखों के सामने से
गुजरते हैं अनगिनत सपने
देखे जाते कमरों में, छतों के नीचे,
फुटपाथ पर,
नए बने फ्लाईओवर की ओट में
देखे जाते चुपचाप सपने
जहां ऊपर गुजरती तुम्हारी
मुश्किल से जुबां पे आते नामों वाली
विदेशी कारें,
उनके पहिये भी न कुचल पाते वसंत की रातों में तैरते सपनों को
(भले कुचला उन्होंने बार बार
देश के दोयम दर्जे के बाशिंदों को खुद )
रेल की पटरी के दोनों ओर
काली-नीली प्लास्टिक की झुग्गियों में से
मच्छरों की तरह भिनभिनाते बाहर आते सपने
रात में
जब दक्षिण दिल्ली की सड़कें,
मॉल, दुकानें, साउथ बॉम्बे, श्यामला हिल्स
या राजपथ-लुटियन की दिल्ली में भी
सपनों का प्रवेश निषेध नहीं करवाया जा सकता किसी
वर्दीधारी से,
वे निकल आते-नाचते गाते हैं सपने
फ़ैल जाते इस देश के काले आकाश पर रात में
मैं पढ़ने कि कोशिश करता हूँ इन्हें
या छोड़ देता यूं ही
गुम अपने सपनों में ही
और खुद को सांत्वना देता
'पाश' को भी..
अभी सपने जिंदा हैं,
सपनों की सीढियां बढ़ रही हैं
आसमान की ओर धीरे धीरे चुपचाप, दबे पांव
एक दिन सुबह होने पर भी वापस न उतरेंगे सपने
तब तक ढील दे रहा हूँ मैं
अँधेरे में बैठा कमरे में
और गुनता बूझता खेलता
सपनों से ..
सपने ही तो है जो सबको जीने का मकसद देते है
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता.
bahut bhavpurn, arthpurn aur gahri kavita hai.........Paash ise padh pate to shayad kuchh santosh kar pate....ki Sapne mare nahi, vo zinda hain yahan-vahan.
ReplyDeletei thank my good-luck that i came across your literature and got a chance to relish it. i just read your 'Gao ka Barish' on HindiSamay. no need to mention that it was overwhelming and dragged me to my childhood and my village life in childhood. i'm also struck in a weird city of Bangalore as you expressed in the header of your blog. i hope, i'll have enough time to read all your blogs. i also hope and pray that you would continue to write wonderful blogs and surprise us with your feelings and expressions. i also wish you good luck, name and fame in the world of literature.
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