Friday 31 December 2010

दूर तक याद -ए -वतन आई थी समझाने को

हैफ हम जिसपे कि तैयार थे मर जाने को

जीते जी हमने छुडाया उसी काशाने को
क्या न था और बहाना कोई तडपाने को
आसमान क्या यही बाकी था सितम ढाने को
लाके ग़ुरबत में जो रक्खा हमें तरसाने को

फिर न गुलशन में हमें लाएगा सैयाद कभी
याद आयेगा किसे यह दिल -ए -नाशाद कभी
क्यों सुनेगा तू हमारी कोई फ़रियाद कभी
हम भी इस बाग़ में थे क़ैद से आज़ाद कभी
अब तो काहे को मिलेगी ये हवा खाने को

दिल फ़िदा करते हैं कुर्बान जिगर करते हैं
पास जो कुछ है वो माता की नज़र करते हैं
खाना वीरान कहाँ देखिये घर करते हैं
खुश रहो अहल -ए -वतन , हम तो सफ़र करते हैं
जाके आबाद करेंगे किसी वीराने को

न मयस्सर हुआ राहत से कभी मेल हमें
जान पर खेल के भाया न कोई खेल हमें
एक दिन का भी न मंजूर हुआ बेल हमें
याद आयेगा अलीपुर का बहुत जेल हमें
लोग तो भूल गए होंगे उस अफसाने को

अंदमान ख़ाक तेरी क्यों न हो दिल में नाजां
छके चरणों को जो 'पिंगले' के हुई है जीशां
मरतबा इतना बढे तेरी भी तकदीर कहाँ
आते आते जो रहे ‘बाल तिलक ’ भी मेहमान
‘मांडले’ को ही यह एजाज़ मिला पाने को *

बात तो जब है कि इस बात की जिदें ठानें
देश के वास्ते कुर्बान करें हम जानें
लाख समझाए कोई , उसकी न हरगिज़ मानें
बहते हुए खून में अपना न गरेबाँ सानें
नासेहा, आग लगे इस तेरे समझाने को

अपनी किस्मत में अज़ल से ही सितम रक्खा था
रंज रक्खा था , मेहन रक्खा था , गम रक्खा था
किसको परवाह थी और किस्में ये दम रक्खा था
हमने जब वादी -ए -ग़ुरबत में क़दम रक्खा था
दूर तक याद -ए -वतन आई थी समझाने को

हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर
हम भी माँ बाप के पाले थे, बड़े दुःख सह कर
वक़्त -ए -रुखसत उन्हें इतना भी न आये कह कर
गोद में आंसू जो टपके कभी रुख से बह कर
तिफ्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने को

देश -सेवा का ही बहता है लहू नस -नस में
हम तो खा बैठे हैं चित्तौड़ के गढ़ की कसमें
सरफरोशी की अदा होती हैं यों ही रसमें
भाले -खंजर से गले मिलते हैं सब आपस में
बहनों , तैयार चिताओं में हो जल जाने को

अब तो हम डाल चुके अपने गले में झोली
एक होती है फकीरों की हमेशा बोली
खून में फाग रचाएगी हमारी टोली
जब से बंगाल में खेले हैं कन्हैया होली
कोई उस दिन से नहीं पूछता बरसाने को

अपना कुछ गम नहीं पर हमको ख़याल आता है
मादर -ए -हिंद पर कब तक जवाल आता है
‘हरदयाल’ आता है ‘यूरोप’ से न ‘लाल ’ आता है **
देश के हाल पे रह रह मलाल आता है
मुन्तजिर रहते हैं हम ख़ाक में मिल जाने को

नौजवानों , जो तबीयत में तुम्हारी खटके
याद कर लेना हमें भी कभी भूले -भटके
आप के जुज्वे बदन होवे **** जुदा कट -कट के
और साद चाक हो माता का कलेजा फटके
पर न माथे पे शिकन आये क़सम खाने को

देखें कब तक ये असीरां -ए -मुसीबत छूटें
मादर -ए -हिंद के कब भाग खुलें या फूटें
‘गांधी आफ्रीका की बाज़ारों में सड़कें कूटें
और हम चैन से दिन रात बहारें लूटें
क्यों न तरजीह दें इस जीने पे मर जाने को

कोई माता की उम्मीदों पे न डाले पानी
ज़िंदगी भर को हमें भेज के काले पानी
मुंह में जल्लाद हुए जाते हैं छाले पानी
आब -ए -खंजर का पिला करके दुआ ले पानी
भरने क्यों जाएँ कहीं उम्र के पैमाने को

मैकदा किसका है ये जाम -ए -सुबू किसका है
वार किसका है जवानों ये गुलू किसका है
जो बहे कौम की खातिर वो लहू किसका है
आसमान साफ़ बता दे तू अदू किसका है
क्यों नए रंग बदलता है तू तड़पाने को

दर्दमंदों से मुसीबत की हलावत पूछो
मरने वालों से ज़रा लुत्फ़ -ए -शहादत पूछो
चश्म -ए -गुस्ताख से कुछ दीद की हसरत पूछो
कुश्ताय -ए -नाज़ से ठोकर की क़यामत पूछो
सोज़ कहते हैं किसे पूछ लो परवाने को


नौजवानों यही मौक़ा है उठो खुल खेलो

और सर पर जो बला आये खुशी से झेलो
कौम के नाम पे सदके पे जवानी दे दो
फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएं ले लो
देखें कौन आता है इरशाद बजा लाने को


- राम प्रसाद बिस्मिल

हैफ=हाय !
काशाना=ठिकाना
बेल= जमानत
मरतबा=ओहदा
एजाज़= इज्जत, सम्मान
नासेहा= उपदेशक (जो नसीहत दे)
अज़ल=शुरुआत
मेहन=पीड़ा
ग़ुरबत=घर/वतन से दूर परदेस में/गरीबी
तिफ्ल=बच्चे
जुज्वे-बदन होना=एकरूप हो जाना, मिल जाना
असीरान-इ-मुसीबत= गुलाम होने का एहसास
आब=पानी/तलवार की धार
जाम-ए-सुबू= जाम और सुराही
गुलू=गर्दन
हलावत=मिठास
कुश्ताय-ए-नाज़=जिसे नजाकत से मार दिया गया हो..
सोज़= गर्मी / जूनून
इरशाद=हुकुम
* यहाँ मांडले और अंडमान जेलों का जिक्र है, जहां बाल गंगाधर तिलक और विष्णु गणेश पिंगले बंद थे..
**लाला हरदयाल: ग़दर पार्टी के सदस्य, 'लाल' भी संभवतया किसी क्रांतिकारी की और इंगित करता है.

यह कविता यहाँ से लेकर लिप्यांतरित की गयी है, हिज्जे या मतलब में गलती हो तो क्षमायाचना सहित..

Saturday 25 December 2010

कोहरा और विनायक सेन


कल शाम से गहरा गया है कोहरा,
कमरे से बाहर निकलते ही गायब हो गया मेरा वजूद,
सिर्फ एक जोड़ी आँखें रह गयी अनिश्चितता को आंकती हुई,
अन्दर बाहर मेरे कोहरा ही कोहरा है,
एक सफ़ेद तिलिस्म है है मेरे और दुनिया के बीच,
लेकिन मेरे अन्दर का कोहरा कहीं गहरा है इस मौसमी धुंध से
मैं सड़क पर घुमते हुए नहीं देख पा रहा कोहरे के उस पार
मेरे-तुम्हारे इस देश का भविष्य
मेरा देश कुछ टुकड़े ज़मीन का नहीं हैं जिसे लेकर
अपार क्रोध से भर जाऊं मैं और कर डालूँ खून उन सभी आवाजों का
जो मेरी पोशाक पर धब्बे दिखाने के लिए उठी हैं,
मेरा देश उन करोड़ों लोगों से बना है,
जिनकी नियति मुझ से अलग नहीं है,
जो आज फुटपाथ पर चलते-फिरते रोबोट हैं,
जो आज धनाधिपतियों के हाथ गिरवी रखे जा चुके हैं,
जो आज सत्ता के गलियारों में कालीन बनकर बिछे हैं,
जो आज जात और धर्म के बक्सों में पैक तैयार माल है जिन्हें बाजार भाव में बेचकर
भाग्य विधाता कमाते हैं 'पुण्य' और 'लक्ष्मी',
घने कोहरे के पार कुछ नहीं दिखाई देता मुझे,
शायद देखना चाहता भी नहीं मैं,
वह भयानक घिनौना यंत्रणापूर्ण दृश्य जो कोहरे के उस पार है,
वहाँ हर एक आदमी-औरत एक ज़िंदा लाश है,
वहाँ हर एक सच प्रहसन है
वहाँ हर एक सच राष्ट्रद्रोह है,
वहाँ हर उठी उंगली काट कर बनी मालाओं से खेलते हैं
राहुल -बाबा-नुमा बाल-गोपाल-अंगुलिमाल,
और समूचा सत्ता-प्रतिसत्ता परिवार खिलखिला उठता है,
इस अद्भुत बाल-लीला पर,
इस घने कोहरे से सिहर उठा हूँ मैं,
और कंपकंपी मेरी हड्डियों तक जा पहुँची है,
आज सुबह मैंने आईने में चेहरा देखा
तो सामने सलाखों में आप नज़र आये
विनायक सेन......

Friday 29 October 2010

गाँव बनाम शहर बनाम अकेलापन बनाम निठल्लापन.....

गाँव और शहर दोनों में सालों-साल रह लेने के बाद दोनों की तासीर, कम से कम अपने मिजाज़ के मुताबिक़ तो मुझे समझ में आ गयी है। जैसा कि आमतौर पर सारे लोग कहते हैं, शहर में अकेलापन बहुत ज्यादा है, या यूं कहें कि विश्वविद्यालय में अकेलापन ज्यादा है... गाँव में घर से निकलते ही जाने-पहचाने लोग, जगहें और परिवेश दिखाई देते थे, जिनसे जुड़ाव भी था और आप अनुमान लगा सकते थे कि सामने वाले कि मनोस्थिति-परिस्थिति क्या होगी, किसी से बात-चीत शुरू करने से पहले दस बार सोचना नहीं पड़ता था। विश्वविद्यालय में भी तीन-साढ़े तीन साल रहने के बाद जहां जान-पहचान काफी है वहीं आत्मीयता बहुत ही थोड़े लोगों से, यहाँ भीड़ में भी अपनी ही परछाई दिखाई देती है।
खैर जैसा कि मैंने अपनी पिछली पोस्ट में भी किया था, मुझे अपने नज़रिए की भी थोड़ी छान-बीन करनी होगी॥ जब मैं गाँव में रहता था..तो मेरी उम्र पंद्रह साल से कम की थी, और यहाँ शहर में आकर १७-२० साल, याने अब और तब में बहुत बदलाव मुझमे भी आया है, तब जहां गप्पें लड़ाना और धींगा-मुश्ती ही आनंद की पराकाष्ठा थी, वहीं अब कुछ गहरे स्तर पर समझे जाने, और अपनी अलग पहचान बनाने की भी अपेक्षा शायद कहीं जुडी हुई है। दूसरों के बारे में तरह तरह के पूर्वाग्रह अब पहली मुलाकात से ही दिमाग में घर कर जाते हैं, जो आगे बढ़कर किसी से जुड़ने से रोक देते हैं...
खैर ये तो हुई अपने अनुभव और रिश्तों की बात, वहीं शहर में जो दिन-रात जिन्दगी की जंग में लगे हुए हैं...उनकी और मेरी क्या तुलना? मैं रोज होस्टल का खाना खा के हरे-भरे कैम्पस में टहलता हूँ और अपने तमाम सहपाठियों की तरह व्यवस्था को कोसता हूँ, लेकिन कैम्पस के अन्दर जो मजदूर निर्माण कार्य में लगे हैं, या वसंत कुञ्ज में देश के सबसे महंगे माल के आने से पहले जो झुग्गियां नज़र आती हैं उनके बाशिंदे? जहरीले कचरे के खिलौनों से खेलने वाले और ट्रैफिक सिग्नल पर अंग्रेज़ी की लाइफस्टाइल मैगजीन बेचने वाले बच्चे... उनके पास तो अपना कोई कोना नहीं है, जिसे वे अपना कहकर जुड़ाव महसूस कर सकें... १४ घंटे फैक्ट्री में काम कर लौटने और उमस और गर्मी भरे माहौल में चूल्हे पर खाना पकाने की कोशिश कर रहे मजदूर, की अनुभूति क्या है?
पलायन की त्रासदी और उसके कारणों के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है, और मेरी जानकारी वैसे भी ज्यादा नहीं है। लेकिन यह तो समझ में आता है कि जब गाँव के गाँव ट्रेनों के डब्बों में दब-कुचलकर असहनीय हालात में रहने के लिए महानगरों में आते हैं, तो यह केवल उनकी आजीविका का नहीं बल्कि उनकी पहचान और अस्तित्व का संकट है, गाँव में उसकी पहचान है और अस्मिता है, शहर में एक सिकुड़ा हुआ अस्तित्व... जहां अपने जैसे हज़ारों और तो मिल जायेंगे लेकिन वह अधिकार-बोध कहाँ से आएगा?
यहाँ हिन्दी फिल्मों का एक सन्दर्भ याद आ रहा है..(इससे मेरे मुख्यधारा के सिनेमा के प्रति तिरस्कार को कम न माना जाए)... "रंग दे बसन्ती" का नायक एक दृश्य में विदेशी नायिका को कहता है, कि "यहाँ यूनिवर्सिटी में सब मुझे जानते हैं कि मैं डी. जे. हूँ, लेकिन बाहर की दुनिया से मुझे डर लगता है, क्योंकि वहाँ मुझे कोई नहीं जानता।" हालांकि इसे एकदम समानांतर तो नहीं माना जा सकता, लेकिन कुछ यही मेरे साथ गाँव से बाहर आने पर हुआ है, मुझे अपनी पहचान खोजनी पड़ रही है... और फिर आप अपने से जुडी चीज़ों से ही पहचाने जाते हैं, मुझे ऐसा कुछ यहाँ नज़र नहीं आता जो अपना हो... जुड़ाव हो जिससे। जो कर रहे हैं उसे ठीक से न कर पाने से तो एक बैचैनी है ही, जिसका कोई बचाव नहीं है, आलस के सिवा (पढाई के सिलसिले में) लेकिन साथ ही, जैसा मेरे परिचय में भी है, अपने होने की जरूरत और मतलब भी परेशानी का सबब है।
मुझे अपनी स्थिति उन निकृष्ट बुद्धिवादियों जैसी लग रही है, जो हर विचार और कार्य की सार्थकता पर प्रश्न उठाते रहते हैं, और इस तरह अपनी अकर्मण्यता को जायज़ टहराते हैं..

Saturday 25 September 2010

अधर में लटकते हुए..


ऐसे समय में जब गूढ़ को सुन्दर और सरल को गया बीता मानने की परम्परा चल निकली है, मै पिछले एक महीने से क्या लिखूं इस जगह पर यही सोच रहा था। लेकिन अब मैंने तय कर लिया है कि ऐसा लिखूंगा जो कम से कम मुझे तो समझ में आ जाये। हाँ यह बात जरूर है कि जो लिखूंगा वह ज़रूरी नहीं कि एक ही विषय से जुड़ा हो, मेरी आदत है कि मैं लिखते लिखते भटककर कहीं का कहीं पहुँच जाता हूँ।
मेरी ज्यादातर कहानियाँ-आपबीतियाँ बचपन से शुरू होती हैं, वह भी ऐसा बचपन जो सुदूर अतीत में कहीं स्थित है। यह मानते हुए कि अब बचपन नहीं है, और उसे गए हुए काफी अरसा बीत चुका है। ऐसा मानने के पीछे शायद बचपन का एक चाशनी चढ़ा हुआ चित्र और साथ ही वर्तमान की परेशानियों- दुविधाओं के चलते उसे अपने सुन्दर-सहज 'बचपन' से बहुत दूर और अलग मानने की चाह निहित है। लेकिन यहाँ मैं कुछ लिखूंगा जो मेरे बचपन से लेकर आज तक के जीवन में एक हिस्सा रहा है।
यह है अधर में लटकने का एहसास। मैं कहीं भी रहा, गाँव में, कस्बे में, या महानगरीय टापू 'विश्वविद्यालय' में हमेशा से अधर में ही रहा हूँ। मेरा गाँव भुमकापुरा, जहां ज्यादातर बच्चों के माँ बाप मजदूरी-किसानी करते... मेरे माँ बाप राजनैतिक कार्यकर्ता थे। बहुत कम उम्र से ही अपने यार-दोस्तों के साथ कंचे खेलते, कबड्डी खेलते या धूल में लोट-पोट होते हुए कभी भी अजनबीपन का एहसास नहीं हुआ लेकिन यह मालूम था कि मेरे जीवन के कुछ हिस्से उनसे बिलकुल अलग हैं, जैसे छुट्टियों में बाहर रिश्तेदारों के घर जाना, या अपने माँ-बाप से खड़ी बोली में बात करना। कुछ बड़े होने पर जहां वे शिकार खेलने या जंगल घूमने जाते, या खेती के काम में हाथ बंटाते वहीं मैं बस मोहल्लों में घूमता या कभी उनके साथ जाता भी तो उतना कुशल नहीं होता जितना वे... पेड़ पर चढने या शहद का छत्ता तोड़ने में। स्कूल जितना महत्व मेरे जीवन में रखता उतना उनके में नहीं। वहीं दूसरी और स्कूल में कुछ गैर-आदिवासी बच्चे मिलते जिनके भी जीवन मुझसे बिलकुल अलग होती... टीवी और क्रिकेट काफी महत्व रखता था॥ और टीवी के कीड़े ने मुझे काटा भी लेकिन घर पर टीवी नहीं होने से उसका असर कम रहा। मैं खेलों में हमेशा फिसड्डी रहा और कम उम्र में चश्मा लग जाने से कई खेलों से वंचित हो गया। किताबों की लत लग जाने पर एक बड़ा हिस्सा समय के पढने में जाने लगा, मैं अखबार का कोना-कोना चाट जाया करता था...
जब नौवी कक्षा में पढने अपने दादाजी के घर रामपुरा आया तो यहाँ और भी अलग हो गया... दोस्तियाँ स्कूल तक सीमित थीं, क्योंकि घर के आसपास कोई हमउम्र हमखयाल रहता नहीं था। जीवन लगभग टीवी को समर्पित हो गयी या 'न पढने' और अपने दादा-दादी के खिलाफ बेमतलब का विद्रोह करने में। जो दोस्त स्कूल में थे वे भी कई तरह के थे ज्यादातर गरीब - दलित परिवारों से जो छुट्टियों में काम करते, क्रिकेट खेलते, मोहल्लाई दुश्मनियों में हिस्सेदारी करते और 'तेरे नाम' को अपने जीवन का आदर्श मानते। चर्चाएं लड़कियों से शुरू होती, सिनेमा, क्रिकेट, समाज और दुनिया पर से होती हुई फिर लड़कियों पर ही ख़त्म होती, जिनमे मैं अपने आप को बाहरी महसूस करता क्योंकि, मैं शुरू से ही डरपोक किस्म का लड़का था, जो इस तरह की बातों का रस लेते हुए भी अपनी कोई काल्पनिक कथा सुनाने से गुरेज करता था। शाम को रिंगवाल पर घूमते हुए हम कई हवाई किले बनाते और तोड़ते... लेकिन उन सभी को यह एहसास था कि जल्द ही उन्हें रोजी-रोटी की चिंता में जुट जाना है, और एक मैं जिसे कभी यह पता नहीं चल पाया कि उसे क्या करना है। यह कुछ साल बहुत कठिन थे॥ क्योंकि मैं न तो स्कूल में अपेक्षानुरूप नंबर ला रहा था, घर में नालायकी और आलस के नए रिकार्ड कायम कर रहा था, और अन्दर ही अन्दर बहुत परेशान और खालीपन महसूस कर रहा था।
यहाँ विश्वविद्यालय में मामला अलग है, एक ओर वे क्रांतिकारी उच्चवर्गीय छात्र हैं, जिन्हें 'बुद्धिजीविता' घुट्टी में पिलाई गयी है, या वे शहरी बांके छैला जो अपनी ही चकाचौंध, महंगे कपड़ों,पार्टियों और आधुनिकता में डूबती उतराती आरामतलब जिंदगियों के सपने में मस्त हैं। या मेरे अजीज दोस्त हैं, जो अपनी कस्बाई विरासत से निकलकर यहाँ तक पहुंचे हैं और अब किसी भी तरह उससे बाहर निकल एक अदद नौकरी और स्थायित्व से ज्यादा कुछ नहीं चाहते।
और मैं... शायद पलायनवादी हूँ, या आत्ममुग्ध छद्म -क्रांतिकारी, या शायद एक निठल्ला जो कुछ न कर सका....
लेकिन मैं अधर में हूँ...

Tuesday 31 August 2010

ऐ अजनबी तू भी कभी....

तुम कौन हो? कहाँ रहते हो? खुश हो या दुखी...तुम्हे इनकम टैक्स की चिंता है या दो जून की रोटी की? तुम आज ऑफिस में झगड़ कर आयी हो या तुम्हारा सुबह नल पर पानी के लिए झगडा हुआ है? तुम क्या चाहते हो? तुम्हारी पसंद-नापसंद, तुम्हारे अरमान, तुम्हारे सपने, तुम्हारी विकृतियाँ, तुम्हारा दृष्टिकोण दुनिया के प्रति... कुछ भी तो नहीं जानता मैं। लेकिन यूं ही सड़क पर चलते हुए, लिफ्ट में, बस में, लाइब्रेरी में, मेट्रो में, पार्क में, गली में या जंगल में भी जब कभी एकांत को तोड़ कर तुम सामने आते हो, तो देखता हूँ तुम्हारे चेहरे को यूं ही नज़र उठाकर। कई बार नज़रें मिलती हैं, कई बार नहीं। आमतौर पर हम नज़रें मिलते ही हटा लेते हैं और हो जाते हैं रवाना गंतव्यों के अंतहीन सिलसिलों में एक और गंतव्य की ओर....
लेकिन कई बार उस एक पल में ही मैं सोचता हूँ, पूछता हूँ खुद से, कि क्या तुम्हारी ज़िंदगी, तुम्हारी दुनिया मेरे जैसी है? या अलग है... तुम्हारे सपने क्या वही हैं? जो मेरे हैं... जब तुम खुश होते/होती हो तो क्या अकेले सड़क पर घूमते हुए पुराने फ़िल्मी गाने गाते हो मेरी तरह? क्या तुम दुःख में तकिये के नीचे सर रख पड़ जाते हो? क्या तुम्हारे साथ वैसा ही सब कुछ घटता है जैसा मेरे साथ?
आखिर क्या है, जो मुझे तुमसे जोड़ता है? क्यों मै कौतुहल से भर जाता हूँ? तुम्हारी निंदा या प्रशंसा करने नहीं, न ही रिएलिटी शो की भांति तुम्हारे व्यक्तिगत जीवन का तमाशा देखने। मैं तो बस जानना चाहता हूँ कि तुम और मैं, हम 'होमो सेपियंस' कितने मिलते हैं? क्या हमें जोड़ता या अलग करता है शारीरिक संरचना के अलावा? मैं महसूस करता हूँ कि मेरे और तुम्हारे लिए देश, दुनिया, धरती, किताबें, विचार, घर, परिवार, दोस्ती, राजनीति, वास्तविकता .......... का मतलब एक नहीं ! बल्कि ६ सौ करोड़ संसार हैं, और हर एक का अपना संसार इतना गहरा, इतना अलग है कि मुझे अचम्भा होता है कि लोग इन संसारों को खंगालते क्यों नहीं? अन्वेषण क्यों नहीं करते... मैं तो अब तक अपने सबसे गहरे दोस्तों के संसारों में भी कुछ कदम से आगे नहीं बढ़ पाया हूँ, और न ही खुद अपने संसार के विस्तार को पहचानता हूँ। शायद जीवन भर मैं इससे बहुत ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाउँगा...
लेकिन तुम्हारा चेहरा मेरे लिए तुम्हारे संसार की खिड़की है, इसीलिये गोदावरी ढाबा, गंगा ढाबा, बस स्टॉप, स्कूल, शहर, गाँव, यहाँ- वहाँ, सुबह-शाम, इधर-उधर शुतुरमुर्ग की तरह गर्दन घुमा कर ताकता रहता हूँ आते-जाते लोगों के अन्दर खिडकियों में झाँकने की कोशिश लिए। लेकिन ये कमबख्त दुनियादारी, शिष्टाचार, दैनिक जीवन की समस्याएं, "सभ्य" होने का दायित्व वगैरह वगैरह मिलकर मुझे तुम्हारे संसार का दरवाजा खटखटाने से रोक देते हैं।
प्रिय अजनबी, अंततः तुम अजनबी ही रहे और शायद अजनबी होना ही तुम्हारी और मेरी, याने हमारी नियति है... अगर भूले भटके कभी परिचय हो जाये तो ठीक, नहीं तो तुम्हारी अजनबियत भी तुम्हे मेरी ज़िंदगी का एक हिस्सा बना देती है, अन्य कई अजनबियों की तरह... लेकिन मैं जानता हूँ कि तुम्हारी अजनबियत अन्य अजनबियों से अलग है, क्योंकि तुम्हारे अन्दर जो दुनिया बसती है, वो एलिस इन वंडरलैंड वाले वंडरलैंड से कहीं ज्यादा अनूठी है !!

एक गाना सुनिए...

Monday 23 August 2010

गाँव में बारिश कुछ और होती है...

टप- टप, टिप- टिप.. झर झर..... खिड़की से झांकते हुए आँख बंद भी कर लूं तो आवाजें दस्तक देती रहती हैं, इस बार मानसून दिल्ली पर कुछ ज्यादा मेहरबान है. पिछले ३ सालों से तो बारिश के लिए तरसता रहता था. गाँव की बारिश याद आती थी जो एक बार शुरू होने पर कई दिनों तक सरोबार कर देती थी,स्कूल की छुट्टियाँ हो जाती थी क्योंकि खपरैल की छत वाले स्कूल के अन्दर हर कमरे में एक तालाब मौजूद होता था... और अगर ज्यादा बरसात हो तो गाँव और स्कूल के बीच की नदी चढ़ते -चढ़ते पुल के ऊपर तक आ जाती थी.... बरसात में घर से छपा-छप कर निकलना, पानी से खेलना, बरसाती कीड़ों से बचना, अन्धेरा होने से पहले खाना खा लेना.. जामुन खाने के लिए नदी किनारे जाना.. घर की टपकती हुई छत के नीचे कोई सूखे कोना तलाश कर वहाँ खटिया डाल कर सोने की कोशिश करना, और मन ही मन घबराना यह सोचकर कि अपनी मच्छरदानी मच्छरों से तो बचा सकती है लेकिन नागदेवता अगर पधार गए तो क्या होगा ? और पकौड़े तो जीवन का अभिन्न अंग होते थे... और जब बरसात खात्मे की ओर होती तो, ककड़ी(खीरा) और अपने बाड़े के भुट्टे सेंक कर खाना..साथ ही दूसरों के बाड़े से चुराना ...इस सब मज़े के साथ ही आती थी परेशानियां.. कीचड, कीचड और कीचड... स्कूल जाते समय ट्रक वाले सफ़ेद युनिफोर्म का कबाड़ा करते हुए चले जाते थे.. शाम को इतने कीड़े निकलते कि खाना खाना, पढ़ना, बैठना मुश्किल !! छत तो टपकती ही थी, साथ ही सब लकडियाँ गीली हो जाने से चूल्हा जलाना दूभर हो जाता था..खैर अपन तो ठहरे मनमौजी, ये सब चिंता माँ- पिताजी के सुपुर्द कर मस्ती करने निकल पड़ते.. तब तक कीचड में खेल-कूद जब तक माँ कान पकड़ कर वापस न ले आये....अब ना गाँव साथ है, ना ही खेत के भुट्टे, ना नदी है न स्कूल लेकिन जब भी सुनता हूँ ये टिप -टप, और देखता हूँ कि आसमान से उतारते हुए पानी ने एक झीना सा जाल फैला दिया है, जब सौंधी सौंधी गंध उठती है, जब आंधी चलती है, तो अनायास मूड अच्छा हो जाता है, ये जानते हुए कि इस बारिश में वो ताकत नहीं जो ज़िंदगी को बचपन सा बना दे..

Tuesday 17 August 2010

जूतों का वर्ग चरित्र और छपा-छप.....

बरसात के मौसम में स्लीपर चप्पल फटकारते हुए चलने और अपनी पैंट के संपूर्ण पार्श्व-भाग तथा अगर ज्यादा जल्दी में हों तो शर्ट तक को कीचड के छीटों से आच्छादित कर देने वाले लोगों के प्रति मेरा विशेष मोह है, क्योंकि उन्हें मैं अपनी ही जमात का प्राणी समझता हूँ। बचपन से लेकर आज तक स्लीपर चप्पल हर दुःख-सुख में मेरी संगिनी रही है, कितनी ही बार जूते- सैंडल - फ्लोटर खरीदे गए लेकिन जो पहला प्यार स्लीपर से हुआ वो आज भी बरकरार है। सबसे बड़ी बात ये कि जब चाहा पहन ली जब चाहा उतार दी..(गौरतलब है कि उतार देने की इस आजादी ने बचपन में दर्जनों जोड़ी चप्पलें गुमवाई हैं, इधर नाचीज़ कंचे खेलने में मगन है उधर चप्पल किसी और की संगिनी बन चुकी होती थी... और धूल धक्कड़ में खेलते हुए चप्पल कहाँ छूट जाती थी.... पता नहीं और बाद में हर गली कूचे में ढूँढने पर भी नहीं मिलती थी)
आजकल तो "विश्वविद्यालय" का विद्यार्थी हूँ, यहाँ आदमी की पहचान जूतों से हर-एक तो नहीं लेकिन एक बड़ा तबका करता है, कुछ लोग तो जमीन की ओर देखते हुए चलते हैं और आप भ्रम में पड़ जाते हैं कि बड़ा ही विनम्र और 'हम्बल' किस्म का व्यक्ति है लेकिन असलियत में वो जूते नापते चलते हैं। जूते से आदमी की हैसियत, कुलीनता, अड्डों यहाँ तक कि राज्य का भी पता लगाना लोग जानते हैं। इस मामले में चचा शरलौक होम्स को भी इन्होंने पीछे छोड़ दिया है....
बीच-बीच में पढने में आता है कि बालीभूड-हालीभूड की फलानी अभिनेत्री के पास १०० जोड़ी या २०० जोड़ी पादुकाएं हैं, मन करता है उन्ही जूतों का हार बनाकर पहना दिया जाए॥ इधर हमारे प्रिय साहित्यकार मुंशी जी के फटे जूते इतने प्रसिद्ध हैं कि क्या किसी हिरोईनी- फिरोइनी के होंगे! उनपर दद्दा मुक्तिबोध, और हरिशंकर परसाई ने रचनाएं लिख मारी हैं...
और अगर आज के हिदी साहित्यकारों को प्रेमचंद से और कोई प्रेरणा लेने में असमर्थता हो,( जैसा कि लग रहा है) तो उनको चाहिए कि कम-अज-कम अपने जूते मोज़े फड़वा कर पहने और इस तरह एक नए क्रांतिकारी फैशन की शुरुआत करें।
मेरे पैरों को कभी जूते भाए ही नहीं, कुछ घंटों में ही अंगूठे अथवा छोटी उंगली का विद्रोह शुरू हो जाता है, और जब पर बाहर निकालो तो लोग स्ट्रेचर पर बेहोश मरीजों को लेकर आने लगते हैं... यहाँ तक कि यात्रा पर भी मैं स्लीपर ही पहन कर चला जाता हूँ, जिन्हें ट्रेन में चोरी कर लेने के प्रति लोगों के मन में कम उत्साह रहता है। शायद यही कारण है कि मेरी एडियाँ अक्सर फटी रहती हैं और मन में पराई पीर को जानने का घमंड घर कर गया है...
अब लोग चाहे बरसात के, दौड़ने के, घूमने के, नाचने के, पार्टियों के, योगा के, मंदिर के, शादी के, ट्रेन के, बाथरूम के, किचन के, बेडरूम के, लान के, और पैर छुआने के अलग अलग जूते पहनते हों, अपने लिए तो स्लीपर ही जिंदाबाद है (हालाँकि इधर कुछ दिनों से एक सेंडल लेकर आये हैं, लेकिन उतारने-पहनने में इतनी कोफ़्त होती है कि मत पूछिए॥)
इति श्री जूता पुराणं समाप्तम !!
जोहार !!

Wednesday 11 August 2010

देख सखी सावन दिल्ली को॥

हाँ तो सखियों और सखाओं, एक बार फिर सावन का दौर है, काली घटाएं छाई हुई हैं, मोरों ने वनों में पंख फैला दिए हैं... दिल्ली की सडकों पर बने गड्ढे पोखरों और तालों में बदल रहे हैं, जिनमे अकस्मात् स्नान का अवसर राहगीरों और दोपहिया चालकों को चारपहिया पर सवार देवदूत अक्सर प्रदान करते हैं। इस इन्द्रप्रस्थ नगरी के स्वर्णिम पथ २ से ३ फीट कीचड से सुशोभित हैं और इस पावन बेला में संगीत सुनाने का जिम्मा भीमकाय मच्छरों को प्रदान किया गया है, जिसे वे बखूबी निभा रहे हैं साथ ही हमारे प्रदूषित रेडियोधर्मी रक्त का रसास्वादन कर मुंह बिचका रहे हैं, (क्या यार ये तो बड़ा बेकार फ्लेवर है, दिल्ली में टेस्टी चीज़ मिलती ही नहीं, लगता है वापस गाँव जाना पड़ेगा !)
इस नगरी में रहने वाले यक्ष-यक्षिनियाँ दिन भर अपने कार्यालय में कार्य और अकार्य कर जब डी टी सी अथवा ब्लू लाइन नामक पुष्पक विमानों में लटक कर अपने गंतव्य की ओर रवाना होते हैं, तो स्वेद बिन्दुओं से सुशोभित उनके ललाट चमक उठते हैं। इन यानों में मानव मात्र एक दूसरे के इतने समीप आ जाता है कि सारी दूरियां समाप्त हो जाती हैं। इनके परिचालकों में वो अद्भुत क्षमता है कि वे एक ही यान में सैकड़ों यात्रियों को एक दूसरे के अत्यंत निकट पहुँचने का अवसर भी देते हैं और आगे वालों को पीछे और पीछे वालों को आगे भेजते भेजते इस असार संसार के निस्सार जीवन की व्यर्थता का साक्षात्कार करा देते हैं। यहाँ तक कि आगे-पीछे करते हुए यात्री इस मर्त्य लोक से ही विलुप्त हो जाता है, उसकी सारी इन्द्रियां निष्क्रिय हो जाती हैं और वह इस लोक का वासी नहीं रहकर भव -बंधन को तोड़ देने की इच्छा करता है।
यह अद्वितीय अनुभव दिल्ली के हर बस यात्री को प्रतिदिन होता है.... साथ ही इस नीरस जीवन में कुछ रोचकता लाने के लिए दिल्ली की सडकों पर विशेष व्यवस्था की गयी है, अब आप दिल्ली की सडकों से सीधे पाताल लोक जाने की सुविधा का लाभ ले सकते हैं॥ कल्पना कीजिए !! एक क्षण आप हरित उद्यान (ग्रीन पार्क) के राजपथ पर हैं, अगले ही क्षण एक रोमांचकारी खटके के साथ आप "गड़प" जमीन के अन्दर समा गए... ऐसा रोमांच तो विडियो गेम में भी नसीब नहीं होता... इसीलिए दिल्ली के सारे फुटपाथ खोद दिए गए हैं ताकि आप एक शहर में नहीं एडवेंचर आईलेंड में घूमने का मज़ा उठा सकें...
तो छोड़िये सावन के झूलों का मोह , और ब्लू लाइन के झूले का मज़ा लीजिये और यह सावन मच्छरों और दिल्ली की सडकों के साथ मनाइए...
ऐसी यादगार बारिश हिन्दी साहित्य के नायक नायिकाओं को भी नसीब नहीं होती...
गरज-बरस सावन घिर आयो...

Friday 6 August 2010

निठल्ले का आत्मावलोकन

क्या लिखूं, कि लिखने के लिए बहुत कुछ है और कुछ भी नहीं। पिछले एक साल से यह योजना बना रहा था कि कुछ लिखूंगा लेकिन लगता रहा कि लिखने के अलावा और भी बहुत काम हैं जमाने में, लेकिन अंततः ये लगा कि अगर २० साल की उम्र में ज़िंदगी में नोस्टाल्जिया सबसे अहम् पहलुओं में से एक हो जाए, तो लिखना मजबूरी है।
नाम की चोरी के लिए स्वर्गीय हरिशंकर परसाई से माफी मांग लेता हूँ। दरअसल वे मेरे पसंदीदा साहित्यकार हैं, और मुझे लगा कि मुझ निठल्ले के लिए निठल्ले की डायरी लिखना ही सही रहेगा।
आज का दिन भी अनेकों अनाम दिनों में से एक है, दिल्ली, जहाँ मै रहता हूँ, में बादलों और सूरज में प्रतियोगिता जारी है, उमस से जीना बेहाल है और बारिश जब होती है तो मानो शरमाई सकुचाई सी आते ही भागने की तैयारी में जुट जाती है। मैं यूनिवर्सिटी में आये नवागंतुकों के चेहरों को घूरता हुआ कमरे से निकलता हूँ, और रोज़ की तरह टहलता हुआ लाइब्रेरी पहुँच जाता हूँ अपने खालीपन की पुनर्हत्या करने। मुझे अपने शुरुआती दिनों की याद आती है, जब मै अकुलाए छौने सा कैम्पस में रगड़ता फिरता था, उस समय लगता था मानो अपनी आखों से हर चीज़ को हजम कर जाऊं, अब हर एक चीज़ पुरानी लगती है, हालाँकि चीज़ों के पुरानेपन में एक सांत्वना भी है, कि मैं अकेला ही पुराना नहीं हो रहा हूँ। क्लासेस अभी शुरू नहीं हुई हैं इसलिए निठल्लेपन का एहसास और बढ़ गया है। मेरे ख़याल से कुछ अति पढ़ाकुओं को छोड़ दें तो हमारी पीढी के सब छात्रों ने ये महसूस किया होगा, कि जब क्लासेस नहीं लगती तो उनकी कमी खलने लगती है, और जब लगती हैं तो काटने को दौडती हैं। कितनी ही बार कक्षा में बैठे हुए खिड़की से बाहर झांकते हुए मैंने अपने समय के अन्य सदुपयोग करने कि योजना बनाई है, लेकिन छुट्टियाँ आते ही सब हवा- हवाई हो जाता है।
खैर छोडिये जनाब हम निठल्ले ही भले हैं, क्योंकि निठल्लेपन में हरेक कामकाजी का मजाक उड़ाने और खिल्ली उड़ाने कि आजादी निहित होती है....