Monday 31 January 2011

प्रेम कविता



पिछली पोस्ट पर कुछ अपनों की ही लानत-मलामत आयी है, कि व्यंग्य लिखना ही है तो कुछ गहराई से लिखो, जिससे कुछ निकल कर आये. सोचने पर मुझे भी लगा कि मैंने कोई बहुत गंभीरतापूर्वक नहीं लिखा था, बस दिल की भड़ास निकाली थी. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या ब्लॉग पर अपनी भड़ास नहीं निकाली जा सकती? सिर्फ इसलिए कि वह 'सार्वजनिक' मंच है. खैर अपन अभी कोई इत्ते तीसमारखां है भी नहीं कि किसी को फर्क पड़े, सो जो मन में आएगा लिखा करेंगे...
फिलहाल अपनी एकमात्र टूटी-फूटी नौसिखिया-नुमा प्रेम-कविता लगा रहा हूँ, जो करीब छह महीने पहले लिखी थी.

प्रेम कविता,
प्रेम कविता कैसे लिखूं?
कैसे करूँ बयाँ?
जो भरा है मन में, जो उमड़ आता है गले तक,
जो छलक आया है चेहरे पर, ज़िंदगी में,
कुछ लफ्ज़, कुछ पक्तियां,कुछ पृष्ठ,
या कुछ नहीं,
उपमाएं, रूपक
कुछ भी तो नहीं,
कोई गीत जो गुनगुना सकूं तुम्हे याद करते हुए,
लिख बैठूं कुछ ऐसा जो पहले न लिखा गया हो,
हमारे बीच जो कुछ है,
या अनुपस्थित है उसे आकार दूं.
उतार दूं कागज़ पर,
दूरियों और नजदीकियों के नक़्शे,
बस अब हार बैठा मैं,
फेंक कर कागज़ कलम,
कर ली हैं बंद आँखें
और तुम्हारा मुस्कुराता हुआ चेहरा सामने है,
कविता प्यार की न लिखी जायेगी आज.

Saturday 29 January 2011

'यमुना तट पर लेनिनवा बंसी बजाए रे'

ये पोस्ट 'असुर' के लिए है, जिनके एक व्यंग्य गीत से इसका विचार उपजा.
सुबह जब रामभरोस काम पर जाने के पहले रोटी खा रहा था, तो उसकी औरत ने उससे पूछा..."सुनो, जे असली क्रांतिकारी कौन है?" रामभरोस ने अपने हाथ का कौर रोककर कहा अरे का बात करती हो? दूर लाल देश में लाल किताब में लिखे को जो लाल कोठी में बैठे-बैठे बांचत हैं, वही असली क्रांतिकारी हैंगे , इस पर सुमरती ने मुंह बिचकाया ओर कहा हटो..आप तो हर चीज़ को हलके-फुल्के में लेत हो..मेरी समझ में तो जो एकई जगह पर बैठ के पूरे देश-दुनिया की क्रान्ति को भविष्य बता दे वही क्रांतिकारी वास्तव में दमदार होत है. ओर हाँ सुनो ज़रा बाजार से आलू-प्याज लेते अइयो.., इस पर रामभरोस भड़क उठा, "अरे ओ क्रान्ति की अम्मा.. प्याज कहाँ से लाऊं? प्याज खरीदने जितनो बैंक बैलेंस नहीं है मेरो . तू खुद ही देख लइयो, जब खेत की तरफ जाएगी" . यह कहकर मन ही मन माओ का भजन करता हुआ वह मजदूरी करने चल पडा.
इधर सुमरती ने भी झटपट तगाड़ी उठाई...और 'यमुना तट पर लेनिनवा बंसी बजाए रे' गुनगुनाती हुई खेत को चली, रस्ते में उसे रामप्यारी मिल गयी, रामप्यारी ने बातों ही बातों में उससे पूछ लिया, कि द्वंदात्मक भौतिकवाद का जो त्रोत्स्कीवादी स्वरुप है उस पर उसके क्या विचार हैं, साथ ही बबलू के ताऊ की लम्बी बीमारी पर भी बात हुई, सुमरती ने पसीना पोंछते हुए कहा... 'देख री, मोहे गलत मत समझियो, पर जे त्रोत्स्की वाले लच्छन हमें कोई ठीक न लगत हैं, हम तो जेई कहें कि जा कछु वा बड़ी किताब में लिखौ है, बई होगो. अब होनी को कोई टार सकत है? अब तुमई बताओ, हमरी भूरी गैया २ किलो दूध देत थी, मगर हमने कितनो इलाज कराओ...पर बेचारी चल बसी'.... एक गहरी उसांस भर दोनों ने अपनी अपनी राह ली.
इधर भूरी, लखन, सुरेश और साबित्री क्रांति-क्रांति खेल रहे थे... इसी बीच भूरी ने लखन को धक्का देकर गिरा दिया, जिससे लखन गुस्से से आग-बबूला हो गया और बोला..-मेंहे तो पेले सेइ पता थो, कि तू प्रतिक्रांतिकारी बुर्जुआ जासूस हैगी .. तू पेटी बुर्जुआ भी है और तेरी नाक भी बह रही है. इस पर भूरी का भाई चमक कर बोला 'तू भी तो कुलक हैगो, निक्कर तो संभाल नई सकत, बड़ो आओ क्रांतिकारी' ! और इस तरह अचानक, क्रांतिकारी और बुर्जुआ ताकतों में संघर्ष छिड़ गया... गुलेल की नली से क्रांति निकलने को ही थी की माँ-बाप ने आकर उन्हें छुड़ाया...
और इस तरह महान क्रान्ति का एक और नया अध्याय लिखते लिखते रह गया.

Monday 24 January 2011

एक सामाजिक मुलाक़ात

तुम खिसियाए से कुछ बात उठाते हो
और हम दोनों ठठाकर हंस पड़ते हैं
मैं अपनी कोहनी निहारता हूँ,
कान खुजाता हूँ,
पैर हिलाता हूँ,
पास बैठे अजनबी को घूरता हूँ
फिर डरते डरते तुम्हारी ओर देखता हूँ,
तब तक तुम्हे अगला चुटकुला याद आ गया है,
मैं राहत के साथ उसे लपक लेता हूँ
हम बारी बारी से मौसम को गलियाते हैं,
तुम खींसे निपोरते हो, मैं खिखियाता हूँ..
और हम बरसाती जमे पानी पर जमाई गयी
ईंटों की तरह कूद कूद कर बात-चीत में
आ गए असहज सन्नाटों को पार करते हैं..
फिर आखिरकार हमें वह ऐतिहासिक काम
याद आ जाता है, जो हमारी मदद के लिए
अरसे से कोने में छपा था...
और घड़ी देखते हुए हम विदा लेते हैं..
चाशनी सी मुस्कान लिए..
मैं पीछे मुड़कर देखता भी हूँ,
कभी कभी तुम्हारी परछाई को
और घर की ओर रपटते हुए सोचता हूँ
कि अगर प्याज की तरह हमारे छिलके उतर जाएँ
तो क्या हम दोनों एक दुसरे की गंध बर्दाश्त कर पाएंगे?

Saturday 22 January 2011

आस

जश्न-ए-ज़िंदगी देखते हैं तमाशबीन की तरह,
और चुपचाप खिसक लेते हैं उस वीराने की ओर,
जहां छुपा कर रखे हैं कुछ सपने बड़े जतन से
और ढँक दी है तन्हाई की चादर बेरंगी सी..
जो वो हवा का काफिर झोंका आ निकला कभी
भूले भटके इस सूने दयार में भी,
उड़ा चादर ये सपने भी जवां होंगे
आसमाँ में खुले-आम बयाँ होंगे
और फिर हम भी इस यक-ब-यक खूबसूरत दुनिया में
बेघर नहीं बा-मकाँ होंगे.