Wednesday 3 April 2013

सपनों की खेती

रात सरकती है पलकों पे बेआवाज़ 
बोल तैरते हैं हवा में बुलबुले 
कविता मगर छिटक जा गिरती है दूर 
हाथ लगाते ही यकायक 
अँधेरा चेहरा छुपाने के काम आएगा 
कसकर कम्बल सा लपेट लिए चलता हूँ इसे 
बेशुमार काम बाकी हैं 
कल,
और आज को लंबा खींच
नींद के खिलाफ मोर्चा खोले 
बुदबुदाता हूँ
अनगढ़ तुकबन्दियाँ
मेरी आँखों के सामने से
गुजरते हैं अनगिनत सपने
देखे जाते कमरों में, छतों के नीचे,
फुटपाथ पर,
नए बने फ्लाईओवर की ओट में
देखे जाते चुपचाप सपने
जहां ऊपर गुजरती तुम्हारी
मुश्किल से जुबां पे आते नामों वाली
विदेशी कारें,
उनके पहिये भी न कुचल पाते वसंत की रातों में तैरते सपनों को
(भले कुचला उन्होंने बार बार
देश के दोयम दर्जे के बाशिंदों को खुद )
रेल की पटरी के दोनों ओर
काली-नीली प्लास्टिक की झुग्गियों में से
मच्छरों की तरह भिनभिनाते बाहर आते सपने
रात में
जब दक्षिण दिल्ली की सड़कें,
मॉल, दुकानें, साउथ बॉम्बे, श्यामला हिल्स
या राजपथ-लुटियन की दिल्ली में भी
सपनों का प्रवेश निषेध नहीं करवाया जा सकता किसी
वर्दीधारी से,
वे निकल आते-नाचते गाते हैं सपने
फ़ैल जाते इस देश के काले आकाश पर रात में
मैं पढ़ने कि कोशिश करता हूँ इन्हें
या छोड़ देता यूं ही
गुम अपने सपनों में ही
और खुद को सांत्वना देता
'पाश' को भी..
अभी सपने जिंदा हैं,
सपनों की सीढियां बढ़ रही हैं
आसमान की ओर धीरे धीरे चुपचाप, दबे पांव
एक दिन सुबह होने पर भी वापस न उतरेंगे सपने
तब तक ढील दे रहा हूँ मैं
अँधेरे में बैठा कमरे में
और गुनता बूझता खेलता
सपनों से ..