Saturday 25 September 2010

अधर में लटकते हुए..


ऐसे समय में जब गूढ़ को सुन्दर और सरल को गया बीता मानने की परम्परा चल निकली है, मै पिछले एक महीने से क्या लिखूं इस जगह पर यही सोच रहा था। लेकिन अब मैंने तय कर लिया है कि ऐसा लिखूंगा जो कम से कम मुझे तो समझ में आ जाये। हाँ यह बात जरूर है कि जो लिखूंगा वह ज़रूरी नहीं कि एक ही विषय से जुड़ा हो, मेरी आदत है कि मैं लिखते लिखते भटककर कहीं का कहीं पहुँच जाता हूँ।
मेरी ज्यादातर कहानियाँ-आपबीतियाँ बचपन से शुरू होती हैं, वह भी ऐसा बचपन जो सुदूर अतीत में कहीं स्थित है। यह मानते हुए कि अब बचपन नहीं है, और उसे गए हुए काफी अरसा बीत चुका है। ऐसा मानने के पीछे शायद बचपन का एक चाशनी चढ़ा हुआ चित्र और साथ ही वर्तमान की परेशानियों- दुविधाओं के चलते उसे अपने सुन्दर-सहज 'बचपन' से बहुत दूर और अलग मानने की चाह निहित है। लेकिन यहाँ मैं कुछ लिखूंगा जो मेरे बचपन से लेकर आज तक के जीवन में एक हिस्सा रहा है।
यह है अधर में लटकने का एहसास। मैं कहीं भी रहा, गाँव में, कस्बे में, या महानगरीय टापू 'विश्वविद्यालय' में हमेशा से अधर में ही रहा हूँ। मेरा गाँव भुमकापुरा, जहां ज्यादातर बच्चों के माँ बाप मजदूरी-किसानी करते... मेरे माँ बाप राजनैतिक कार्यकर्ता थे। बहुत कम उम्र से ही अपने यार-दोस्तों के साथ कंचे खेलते, कबड्डी खेलते या धूल में लोट-पोट होते हुए कभी भी अजनबीपन का एहसास नहीं हुआ लेकिन यह मालूम था कि मेरे जीवन के कुछ हिस्से उनसे बिलकुल अलग हैं, जैसे छुट्टियों में बाहर रिश्तेदारों के घर जाना, या अपने माँ-बाप से खड़ी बोली में बात करना। कुछ बड़े होने पर जहां वे शिकार खेलने या जंगल घूमने जाते, या खेती के काम में हाथ बंटाते वहीं मैं बस मोहल्लों में घूमता या कभी उनके साथ जाता भी तो उतना कुशल नहीं होता जितना वे... पेड़ पर चढने या शहद का छत्ता तोड़ने में। स्कूल जितना महत्व मेरे जीवन में रखता उतना उनके में नहीं। वहीं दूसरी और स्कूल में कुछ गैर-आदिवासी बच्चे मिलते जिनके भी जीवन मुझसे बिलकुल अलग होती... टीवी और क्रिकेट काफी महत्व रखता था॥ और टीवी के कीड़े ने मुझे काटा भी लेकिन घर पर टीवी नहीं होने से उसका असर कम रहा। मैं खेलों में हमेशा फिसड्डी रहा और कम उम्र में चश्मा लग जाने से कई खेलों से वंचित हो गया। किताबों की लत लग जाने पर एक बड़ा हिस्सा समय के पढने में जाने लगा, मैं अखबार का कोना-कोना चाट जाया करता था...
जब नौवी कक्षा में पढने अपने दादाजी के घर रामपुरा आया तो यहाँ और भी अलग हो गया... दोस्तियाँ स्कूल तक सीमित थीं, क्योंकि घर के आसपास कोई हमउम्र हमखयाल रहता नहीं था। जीवन लगभग टीवी को समर्पित हो गयी या 'न पढने' और अपने दादा-दादी के खिलाफ बेमतलब का विद्रोह करने में। जो दोस्त स्कूल में थे वे भी कई तरह के थे ज्यादातर गरीब - दलित परिवारों से जो छुट्टियों में काम करते, क्रिकेट खेलते, मोहल्लाई दुश्मनियों में हिस्सेदारी करते और 'तेरे नाम' को अपने जीवन का आदर्श मानते। चर्चाएं लड़कियों से शुरू होती, सिनेमा, क्रिकेट, समाज और दुनिया पर से होती हुई फिर लड़कियों पर ही ख़त्म होती, जिनमे मैं अपने आप को बाहरी महसूस करता क्योंकि, मैं शुरू से ही डरपोक किस्म का लड़का था, जो इस तरह की बातों का रस लेते हुए भी अपनी कोई काल्पनिक कथा सुनाने से गुरेज करता था। शाम को रिंगवाल पर घूमते हुए हम कई हवाई किले बनाते और तोड़ते... लेकिन उन सभी को यह एहसास था कि जल्द ही उन्हें रोजी-रोटी की चिंता में जुट जाना है, और एक मैं जिसे कभी यह पता नहीं चल पाया कि उसे क्या करना है। यह कुछ साल बहुत कठिन थे॥ क्योंकि मैं न तो स्कूल में अपेक्षानुरूप नंबर ला रहा था, घर में नालायकी और आलस के नए रिकार्ड कायम कर रहा था, और अन्दर ही अन्दर बहुत परेशान और खालीपन महसूस कर रहा था।
यहाँ विश्वविद्यालय में मामला अलग है, एक ओर वे क्रांतिकारी उच्चवर्गीय छात्र हैं, जिन्हें 'बुद्धिजीविता' घुट्टी में पिलाई गयी है, या वे शहरी बांके छैला जो अपनी ही चकाचौंध, महंगे कपड़ों,पार्टियों और आधुनिकता में डूबती उतराती आरामतलब जिंदगियों के सपने में मस्त हैं। या मेरे अजीज दोस्त हैं, जो अपनी कस्बाई विरासत से निकलकर यहाँ तक पहुंचे हैं और अब किसी भी तरह उससे बाहर निकल एक अदद नौकरी और स्थायित्व से ज्यादा कुछ नहीं चाहते।
और मैं... शायद पलायनवादी हूँ, या आत्ममुग्ध छद्म -क्रांतिकारी, या शायद एक निठल्ला जो कुछ न कर सका....
लेकिन मैं अधर में हूँ...