Sunday 19 February 2012

जनरल नालिज

जनरल नालिज

वह रट रहा है,
वह रट रहा है बासी कानूनों के पास होने की तारीखें,
गुमनाम देशों की राजधानियां,
कोरे सिद्धांत,
थोथे दृष्टान्त.
अनगिनत आंकड़े जकड़े हुए,
वह भूल रहा है
लोग,यादें,शक्लें,
बातें, मुद्दे, बहसें,
गीत,कविता,किस्से,
आँखें, हाथ, मस्से..
वह रट रहा है,
अखबारी तकरीरें,
सरकारी तदबीरें,
जंग खाई जंजीरें,
वही भाषा,
वही आशा,
इम्तेहान दर इम्तेहान,
वह गर्दन झुकाए रट रहा है,
किसी उपनगरीय दड़बे में
मैगी और खिचड़ी
या ढाबे के पराठों को निगल-निगल दोहराता है
तथ्य तथ्य और तथ्य.
जी के,
जनरल नालिज,
'सामान्य' ज्ञान !
हम असामान्य हैं,
हम दुखी हैं,
हम बेरोजगार हैं,
हम रटते नहीं हैं,
सरकार से पटते नहीं हैं,
बाबूजी दुखी हैं,
लोग ताना देते हैं,
बस !
अब ...
हम सवाल नहीं करेंगे,
हम अंड-बंड नहीं पढेंगे,
बस योजना, क्रानिकल,
दर्पण, और कुछ अखबारों में
हम अंगरेजी के कठिन शब्दों को अंडरलाइन करेंगे,
हां, हम भूल जायेंगे,,
अपनी भाषा,
अपने लोग
अपनी समस्या,
अपनी पहचान,
वह सब कुछ जो कोर्स मटेरिअल
में नहीं आता है,
जी. के. में वही आता है
जो दिल में नहीं आता.
तेरी-मेरी, चार लोगों की बातें,
मोहल्लों के इतिहास,
गाँवों के मसले,
बस्तियों की बतकही
खेतों की फसलें
पानी और बिजली
बुखार और खुजली
अपनी इबारतें
सपनों की इमारतें....
इन सब पर एक अदद नौकरी भारी है.
इसलिए अब 'सामान्य ज्ञान'
के फावड़े से
अपनी जड़ खोद कर वहाँ
चार विकल्प दे देंगे
ए. अफसर.
बी, बाबू
सी. क्लर्क
डी. रोबोट !

,

Sunday 5 February 2012

एक खोजी अभियान की भूमिका


बातें जो कही नहीं गयी..
वादे जो निभाए नहीं गए,
सपने जो देखे नहीं गए..
लोग जो ढूंढें नहीं गए.
कहानियाँ जो सुनायी नहीं गयीं.
और कविताएँ जो गले में आकर अटकी,
फिर किसी अकेले पेड़ के नीचे बैठी रह गयीं.
और कहा जा रहा है, मैं 'नेगेटिव' सोचता हूँ.
सच तो ये है कि मैं नेगेटिव नहीं सोचता,
नेगेटिव मुझे सोच रहा है.
एक दिन मैं परछाइयों से गुजर रहा था,
वहीं नेगेटिव ने मुझे पकड़ लिया
और तब से वह मेरे कानों में फुसफुसाए जा रहा है,
हर एक मुनादी के बाद
वह आवाज़ तेज हो जाती है..
अब मैं और नेगेटिव, नेगेटिव और मैं
हम भेष बदलते रहते हैं,
अब मैं उजालों से दूर झुरमुटों में चलता हूँ,
अब मैं समय की पगडंडी की धूल छानता हूँ
शायद कोई सुराग मिल जाये
कहाँ गए वो लोग, वादे, सपने, कहानियां, कविताएँ,
नेगेटिव ने मुझसे कहा है,
कि इन गुमनामों में ही मेरी पहचान की चाबी छुपी है..
तुम्हे पता लगे तो बताना,
आखिर सवाल मेरा नहीं
अंधेरों का है,
सन्नाटे का,चुप्पी का है,
डर का है,
गुस्से का है
और कहीं ज्यादा
सवाल सच का है
जो खुद बहुरूपिया बने
किसी पीछे छूट गए हरकारे की राह तक रहा है,
सहमा सा .