Monday 4 July 2011

पप्पू की आँखें लाईट ब्लू ...

जब जब ये गाना सुनते हैं नाचीज़ से रहा नहीं जाता, बरबस ही निकल पड़ता हूँ इस पप्पू की तलाश में..मध्य-भारत के किसी भी धूल-धूसरित कसबे में रहते हज़ारों लाखों पप्पुओं में नज़र घूम-घूम कर थक जाती है, लेकिन एक अदद अंग्रेज पप्पू अभी तक मिला नहीं, ब्रेडो की घड़ी पहने कुड़ियों में क्रेज़ बना वह पप्पू न जाने किस गली में मिलेगा... हमारा पप्पू तो रोज सुबह साढ़े आठ बजे सिर में खोपरे का तेल लगा कर चपेट कर बाल काढ़ता है, फिर चटख रंग की बुश्शर्ट और टाईट पैंट 'पाटीदार टेलर्स फैंसी मेंस सूटिंग एंड शर्टिंग' से सिलाई हुई पहन कर घर से निकलता है। जाते जाते मम्मी घर से आवाज़ देती हैं बेटा पप्पू ज़रा चायपत्ती लेते आना, तो भुनभुनाते हुए मम्मी से कुछ पैसे ज्यादा लेकर निकल पड़ता है। तंग गलियों में लड़-झगड़कर पानी भरती आंटियों और दफ्तर या दुकान जाते अंकलों से दुआ सलाम करते हुए पप्पू को वही पुराने यार दोस्त दिखलाई पड़ते हैं चाय की दुकान, पान की गुमटियों और मोबाईल की दुकानों पर रुकते ठहरते पप्पू अपने गंतव्य तक पहुँच जाता है। पप्पू का धंधा उसकी हैसियत के मुताबिक़ कुछ भी हो सकता है, मोटर-मैकेनिक, दुकान में हेल्पर, दफ्तर में क्लर्क-चपरासी, बीमा एजेंट, इलेक्ट्रिशियन, या फिर हम्माल, चपरासी या चाय की दुकान का मजदूर।
इस पप्पू को उस पप्पू को टीवी पर देखने का समय कम ही मिलता है, लेकिन कभी कभार देख कर जेब से कंघी निकाल कर टेढ़ी मांग निकाल लेता है और एक बार आईना देख कर फिर काम पर लग जाता है।
मुझे उस दिन का इंतज़ार है जब हमारे पप्पू पर भी गाने बनेंगे और उस विदेशी पप्पू को खोज कर इस पप्पू के सामने खडा किया जाएगा, देखते हैं दिन भर दुकान पे उस्ताद की गालियाँ खाने के बाद कौन बेहतर डांस करता है, अपने पप्पू ने भी कई बरातों में माहौल जमा दिया था कसम से...

Tuesday 14 June 2011

कबिरा खडा बाजार में..

मेरे गाँव में हर रविवार हाट लगता है... या स्थानीय भाषा में 'बजार' भराता है। आस-पास के १०-१५ गाँव के लोग अपनी साप्ताहिक खरीददारी करने के लिए आते हैं, वैसे पूरे जिले में ही हफ्ते के अलग-अलग दिन अलग अलग गाँव के बजार के लिए तय हैं। मेरे गाँव केसला के आस-पास सुखतवा का बजार गुरूवार, साध्पुरा का सोमवार, भौंरा का शुक्रवार को पड़ता है।
जो इन बाजारों से परिचित न हो उसके लिए इनके रंग और गांववालों के लिए इनका मतलब समझना थोड़ा कठिन है। बहुत पुराने समय से ही बजार हमारे आदिवासी बहुल-क्षेत्र में सिर्फ खरीदने-बेचने से कुछ बढ़कर है... यह एक दिन है जब हमारे बाशिंदे अपनी रोज़ की मेहनत-मजूरी से हटकर अपनी ज़िंदगी में कुछ रंगों की तलाश में पैदल या साइकिल से बजार पहुँचते हैं... होशंगाबाद और बैतूल जिले की आदिवासी पट्टी के किसी भी बजार में आप जाएं तो नजारा एक सा होता है। रंग-बिरंगी पारंपरिक सोलह गज की साड़ियों में आदिवासी महिलाएं थैला लिए कुछ खरीदती, कुछ देखती हुई दिखाई दे जाएंगी, अधिकतर घर के सामान की खरीद महिलाएं ही करती हैं। (इस मामले में आदिवासी समाज अन्यों से अलग हैं जहां 'बाहर' का काम पुरूषों के हवाले और 'अन्दर' का महिलाओं के जिम्मे होता है) पुरुष भी, जिनमे आमतौर पर युवा लड़के ज्यादा होते हैं, अपने दोस्तों के कन्धों पर हाथ रखे चहलकदमी करते हैं।
जितनी दुकानें सब्जियों और अनाज की होती हैं, लगभग उतनी ही कपड़ों, और आईना, बिंदी, चूड़ी, रुमाल, कंघी,पिन, तेल, चप्पल, आदि की होती हैं... ये सभी दुकानदार एक बजार से दूसरे बजार घूम घूमकर अपना धंधा करते हैं।इनके आगे लटके रंग-बिरंगे रुमाल सहज ही ध्यान खींचते हैं(बुंदेलखंड-महाकौशल में लगभग हर मर्द के गले में एक गमछा-रुमाल जरूर होता है, जो तौलिये, चादर, पोटली, रस्सी, और सिर ढंकना आदि के बहुउपयोगी अवतार में इस्तेमाल होता है)
बजार के लिए लोग सज-सवंर कर तैयार होते, यह एक ख़ास मौक़ा होता है गाँव के जीवन में. मुझे आज भी याद है कि रविवार दोपहर हम सब नहा-धोकर सिर में खूब सारा खोपरे का तेल चुपड़ कर साबुत कपडे पहन कर बजार जाने के लिए तैयार हुआ करते थे, (हम में से ज्यादातर के पास केवल एक जोड़ी साबुत-फिट बैठने वाले कपडे थे-स्कूल की यूनिफार्म, आज भी स्थिति कुछ ज्यादा बदली नहीं है) खाकी पैंट और सफ़ेद शर्ट से सुसज्जित चार पांच नन्हे हीरो अकड़ कर निकलते थे, अपने उन छोटे भाई बहनों की तरफ गर्व से देखते, जो अभी बजार जाने की उम्र के नहीं थे। बजार में अलग-अलग चीज़ों की दुकानों को जी भर के देखने के बाद हम पैसे मिलाते और ४-५ रुपये का नमकीन खरीद कर खाते। उसके बाद धुंधलके में धीरे-धीरे गाँव की ओर चल पड़ते, रस्ते में गाँव के लोग मिलते, कुछ हंसी मजाक होता (आजकर ज्यादा हंसी मजाक मेरे विशाल डील-डौल पर होता है) और दिन ढलते सब घर पहुँचते, जहाँ बच्चे सबसे पहले झोलों पर झपटते, जहां नमकीन, जलेबी या कोई और चीज़ उनके लिए रखी होती। मजदूरी के पैसे भी बजार के ही दिन मिलते हैं। गाँव के लोग अपनी वनोपज वगैरह बेचने के लिए लाते हैं और बदले में अपनी जरूरत का सामान ले जाते हैं।
बजार में आस-पड़ोस के गाँव के लोग मिलते हैं, महिलाएं एक तरफ खड़े होकर घर-परिवार की, गाँव की बातें करती हैं, दुःख और सुख साझा किये जाते हैं। इनमे से ज्यादातर गाँवों में किराने की दुकानें नहीं होती थी, इसलिए बजार एक तरह से "बाजार" की उनके जीवन पर एकमात्र दस्तक थी जिनकी ज्यादातर जरूरतें खेत और जंगल पूरा किया करते थे। लालमिर्च, मसाले, कनकी(चावल की चूरी) और कुछ सब्जियां लोगों के झोलों में झाँकने पर दिख जाएंगे। बजार में ही आदिवासी युवक-युवतियों के माँ-बाप उन्हें एक-दूसरे से मिलाने के लिए लाते हैं, सम्भावित रिश्ता पक्का होने से पहले। चूंकि आदिवासी समाज में प्रेम-विवाह भी प्रतिबंधित नहीं है हालांकि उन्हें प्रोत्साहित नहीं किया जाता, इसलिए अनेक प्रेम-कथाओं का जन्म भी बाजारों में हुआ है॥
अपनने बहुत पहले से घर की सब्जी लाने का जिम्मा उठा लिया था, इसलिए आज भी छुट्टियों के दौरान बजार जरूर जाते हैं, और आते-जाते चेहरों में कोई परिचित चेहरा ढूंढते रहते हैं। सब्जियों के बढ़ते दामों को कोसते-कोसते अक्सर ही कोई छठी-सातवीं का सहपाठी मिल जाता है, जिसके चेहरे को ध्यान से देखने पर नाम याद आ जाता है। हाल-चाल पूछने के बाद थोड़ी देर उन दिनों को याद करते हैं जब दोनों निक्कर पहने दुनिया भर की हांका करते थे और यह महसूस कर अजीब लगता है कि अब जब दुनिया देखने के दिन आये हैं तो हांकने के लिए कुछ मिल नहीं रहा है।
पिछले बजार किरार सर मिल गए थे, जो हमारे मिडिल स्कूल में अपने सवा पाव के हाथ के जोर पर गधों को घोड़ों में बदलने की घुडसाल आज भी चलाया करते हैं, सर ने ये उम्मीद जाहिर की कि अपन उनका नाम रोशन करेंगे, (अपन को स्वयं प्रकाश की एक कहानी याद आ गयी, जिसमे एक बच्चा सोचता है कि वो अपने बाप के नाम का बोर्ड लगवा कर उस पर रंग-बिरंगे बल्ब लगवा देगा) अपन ने एक विनम्र मुस्कान से काम चलाया।
बजार भी बदल रहे हैं, दुनिया भी बदल रही है, उम्मीदें लम्बी चौड़ी हो रही हैं और अपन १० रुपये के सवा किलो टमाटर खरीदकर खुल्ले पैसों के लिए बहस कर रहे हैं...

Monday 30 May 2011

न लिख पाने के खिलाफ/ ग्रेट एक्सपेक्टेशन्स

यह तो बड़ी ही अजीब बात मानी जाएगी कि ज़िंदगी में बिना कुछ ज्यादा लिखे हुए ही 'राइटर्स ब्लोंक' हो जाए। दरअसल असल कारण राइटर्स ब्लोंक नहीं बल्कि लिखने की आदत नही होना है। बहरहाल पिछले 20-एक दिन से गाँव में घर पर रह रहा हूँ छुट्टियों में, रोज़ दिन में चार-पांच बार कुछ न कुछ लिखने का ख़याल आता है लेकिन टाल जाता हूँ। आमतौर पर दिमाग में "अहा ! ग्राम्य जीवन" जैसी चीज़ें ही आ रही हैं जो कि साल भर दिल्ली में रहने के बाद काफी स्वाभाविक हो जाता है। लेकिन मैंने ठान लिया है कि अभी के लिए अहा ग्राम्य जीवन से हटकर कुछ कोशिश करूंगा। गर्मी के कारण घर से निकल भी नहीं रहा हूँ, इसलिए भी लिखना बंद है, अगर ज्यादा लोगों से बातचीत हो तो दिमाग में ज्यादा हलचल होती है। पहले कई बार नदी के या तालाब के किनारे बैठकर लिखने की कोशिश की, जब पुरी और मुंबई गया था तो वहाँ समुद्र के किनारे भी लिखने कि कोशिश की, लेकिन कलम ने चलने और शब्दों ने बहने से इनकार कर दिया। कई बार 4-5 लाइन लिख कर छोड़ दिया... बस बैठकर शून्य में ताकता रहा। वैसे सच कहूं तो समुद्र किनारे कुछ लिखने से कहीं ज्यादा सार्थकता लहरों में पैर भिगोने में है..
वैसे इन दिनों स्थानीय रेडियो स्टेशन अपने क्षेत्र के लोकगीत सुन कर बहुत मज़ा आ रहा है, और कुछ लोक-गायकों से मिलने की तमन्ना है, लेकिन अभी कोई प्लान नहीं बन पा रहा है।
पिछले दिनों डिकेंस की 'ग्रेट एक्सपेक्टेशन्स' पढी और खूब मजे से एक ही बैठक में पढ़ गया, अपने नायक 'पिप' की दुविधा के माध्यम से डिकेंस ने एक जबरदस्त रूपक गढ़ा है, जो 'सभ्य समाज' की जड़ों को दिखलाता है... एक साधारण लोहार परिवार में पला-बढ़ा पिप सभ्य, पढ़ा-लिखा और अमीर बनने के चक्कर में अपने सीधे -साधे परिजनों से नाता तोड़ लेता है, लेकिन जब उसे पता चलता है की उसकी अमीरी के पीछे एक सजायाफ्ता कैदी की गुमनाम मदद है, और साथ ही उसके सामने तथाकथित सभ्य लोगों की ज़िंदगी का लिजलिजा और टुच्चा यथार्थ आता है तो उसकी आँखें खुल जाती हैं, लेकिन तब तक वापसी के लिए बहुत देर हो चुकी होती है।
मुझे ऐसा समझ में आया कि ये उपन्यास प्रतीकात्मक ढंग से यह कहता है कि तथाकथित कुलीन वर्ग वास्तव में अपराध और अन्याय के पैसों पर खडा है, और उसके ढाचे को सरासर नाजायज़ ठहराता है..
उन्नीसवी सदी के ब्रिटेन में बसे पात्र मुझे आज भी बहुत ही सच्चे और जाने-पहचाने लगे, फिर चाहे वो झूठी गवाही दिलवाने वाला वकील हो, या अपने अभिजात्य वंश के गरूर में पगलाई माँ और नौकरों की दया पर पलते उसके बच्चे...
अब मन बनाया है कि डिकेंस की कुछ और रचनाएं पढूंगा। 'पिक्विक पेपर्स' पढना शुरू किया है।
वैसे छुट्टियों का "सदुपयोग" क्या होता है? अपन की छुट्टी तो किताब के पन्ने पलटते और घर के छोटेमोटे काम निपटाते हुए ही निपट जाती हैं, या फिर घूमते-फिरते।
एक नाटक करने का मन था लेकिन एक तो गर्मी जबरदस्त है और ऊपर से लोग शादियों में व्यस्त हैं, अपन भी थोड़े -बहुत व्यस्त हैं घर में कुछ निर्माण कार्य चल रहा है, वैसे उसका ज्यादा भार तो बाबा पर है।
न लिख पाने के कारण इतना सरपट लिख दिया, बेतरतीब सा। देखिये आगे कितना लिख पाता हूँ...

Sunday 24 April 2011

मन-सुरंग

कभी कभार भीड़ भरी गलियों में एकांत कहीं ज्यादा जीवंत हो उठता है और कभी कभी एकांत में ख्यालों की भीड़ चैन नहीं लेने देती. ढर्रों पर टिकी ज़िंदगी के फर्श में दरारें ही दरारें हैं, जिनमे झांकते डर लगता है. सालों साल किसी अँधेरे, छुपे कोने से लोगों और चीज़ों को ताकते रहने का अनुभव अंतर्मन को पपड़ीदार बनाने के लिए काफी है.
गीत हैं, हर एकाकी क्षण के साथी. गुनगुनाना प्रार्थना नहीं है, न ही चुटकुला, वह तो बस एक और आदत है, अलबत्ता आदतों में इसकी जगह बहुत ऊपर है.
भटकना जगहों से जगहों तक, विषयों से विषयों तक, चेहरों से चेहरों तक और आवाज़ों से आवाज़ों तक, हर एक ठिठकन अगली भटकन की भूमिका भर है,
अरमान भी हैं, लेकिन वो बड़े पाजी गिरगिट हैं,
उम्मीद हर अगली परछाई में है, वह मरीचिकाओं में अठखेलियाँ करती है... वह रेगिस्तानों में इन्द्रधनुषों की तस्वीर है, वह किसी सरकारी स्कूल की बाउंड्री वाल पर उगता पीपल है. वह पतंग है...जो आसमानों में डूब उतरा रही है,
मैं ढील दिए जा रहा हूँ, मेरी गर्दन अकड़ गयी है, प्यास से गला भी सूख रहा है, आँखों में सूरज जल रहा है ...

Friday 8 April 2011

मुझे असंभव, एकाकी सपनों में जीना है..

ज़िंदगी बहुत ठोस खुरदुरी और पथरीली
धरती गड़ती मेरे पांवों में,
यथार्थ घेर लेता मुझे अकेला पाकर
खड़ी कर देता दीवारें, पिंजरे
मन पंछी के लिए,
दिन-ब-दिन कितने दिन ले आते खींचकर
किस्से अनेक, अनेक अजनबी,
टटोलता खंगालता संभावनाओं को मैं,
सोचता बातें अनकही-अनबनी-अधबनी,
झल्लाता नाहक, अपनी सीमाओं के जाल
को झकझोरता,
पर अब ख़्वाब भी बोझिल-झिलमिल पलों
की कड़ी में पिरोना है,
किसी अकेली धुंधली भोर में, जब खटरागी
मेले- झमेले सो रहे हों,
कुछ सोचकर-बटोरकर,
फिर अव्यक्त आशा-उल्लास से भर जाना है,
मैं न भागूंगा समय और परिस्थितियों से,
लेकिन तुम यह जान लो, कि अब
चुपके-चुपके,
मुझे असंभव, एकाकी सपनों में जीना है

Sunday 3 April 2011

हाफ पैंट में जादुई यथार्थवाद



अप्रैल का महीना है, गाँव शहरों, सुनसान गलियों और व्यस्त बाज़ारों में फिर धूल उड़ने लगी है। उपमहाद्वीप की चार महीने की अभूतपूर्व गर्मी जल्द ही अपनी पूरी प्रचंडता के साथ आ पहुंचेगी। कैम्पस में बोगनवेलिया के फूल छाए हुए हैं और पेड़ों से गिरे पत्ते मुंह और बालों से उलझते फिरते हैं.. दोपहर को अब वही चिरपरिचित सन्नाटा चुपचाप आकर घेर लेता है, जो बचपन से ही हर गर्मी दिलो-दिमाग पर घर कर लेता है।
मैं अगर अब किसी दोपहर आँख बंद कर लूं तो मैं उसी धूल भरे गाँव के किसी घर में चुपचाप अपने आप से कंचे खेलता पाया जाऊंगा, जहां अधिकाँश माँ-बाप सो रहे हैं, और कुछ किसी कोने में बैठ कर चुप-चाप कुछ गप-शप कर रहे हैं। लू के साथ धूल के बवंडर उठाते हैं जो मिट्टी की दीवारों और नन्हे दरवाजों को हराकर घरों के अन्दर तक घुस जाते हैं। माँ-बाप की बाहर न जाने की सख्त हिदायत को जीवन का एक अभिन्न निंदनीय अंग मानते हुए चांडाल-चौकड़ी चुप-चाप बेआवाज़ घरों से बाहर निकल आती है, और फिर या तो पेड़ों से कैरी तोडना या फिर कंचे, पत्ते, छुपन-छुपाई, पिट्टू (सितौलिया) या कोई और खेल खेलना, यही परम धर्म है। और जब भोंपू की आवाज़ कानों तक पहुँचती तो फिर एक रुपये वाली पनीली तथाकथित 'कुल्फी' का अविराम सेवन करना, जिससे पीलिया और हैजा होने की अपार संभावनाएं जताई जाती हैं।
तब ये नहीं पता था कि इंसानी ज़िंदगी में इतने दांव-पेंच होते हैं। तब किसी शाम को यह संभावना नहीं होती थी कि आप इस पर विचार करें कि बोर्खेस में जादुई यथार्थवाद किस तरह परिलक्षित होता है। तब जादुई यथार्थवाद किताबों में खोजना नहीं पड़ता था, वह तो दैन्दिनी ज़िंदगी का हिस्सा था... जब गाँव से स्कूल की और चलते थे तो मुझे याद पड़ता है कि हम सभी जादुई यथार्थवाद के बहुत बड़े समर्थक और प्रचारक हुआ करते थे। (हालाँकि नोबेल कमेटी को हमारी प्रतिभा जानने में अभी वक़्त लगेगा) मुझे याद पड़ता है कि मैंने घर से स्कूल की ओर चलते हुए जादुई यथार्थवादी एक कहानी बनाई थी, जिसमें हमारे ही गाँव के एक लड़के को आंधी उड़ाकर एक किलोमीटर दूर ले गयी थी, और चूंकि उस प्रकार के बवंडर (भंगुरिया) का केंद्र एक भूत माना जाता था, अतः उसके बाद भूत और लड़के की बातों का विषद चित्रण और तत्पश्चात उस लड़के के छूटने का प्रसंग बताया गया था, और चूंकि कथा नायक एक जीता जागता लड़का था. (जो सौभाग्य से उस वक़्त गवाही देने के लिए उपलब्ध नहीं था) अतः हमारे साथी आलोचकों ने न केवल इस कथा पर पूरा विश्वास किया बल्कि उसे हाथों-हाथ लिया।
किस्से-कहानी इतने थे कि ख़त्म होने का नाम नहीं लेते थे और आज अगर याद करने बैठूं तो उन कहानियों की बहुत धुंधली सी ही याद है, विजयदान देथा जी की लोक-कथाओं से कुछ मिलती जुलती होती थीं वो। शायद अब भी जाकर गाँव में किसी अलाव के पास ठण्ड में बैठूं या गर्मी में किसी आम के पेड़ के नीचे, तो फिर उन्हें जी सकूंगा, लेकिन अब मेरा सिनिकल दिमाग शायद उन्हें एक वयस्क पढ़ी-लिखी नज़र से देखेगा। उनका साहित्यिक मूल्यांकन और तारीफ तो अब मैं कर सकता हूँ, लेकिन अब मैं विश्वास कैसे करूंगा कि धूप में बारिश होने पर लड़ैया(सियार) की शादी होती है...
अब जब कभी तालाब के किनारे बैठे हों और पुराने यार-दोस्त मिलते हैं तो यही बातें होती हैं रोजी-रोटी हालचाल की, उनमे से ज्यादातर अब मेहनत-काम धंधे से लग गए हैं, और अपन यूनिवर्सिटी में बैठकर किताबें चाट रहे हैं।
सोचता हूँ इस बार जब गर्मी में घर जाऊंगा तो जाकर जुगन दादा की डैम के पास वाली टपरिया में बैठकर जादुई यथार्थवाद पर विचार करूंगा, देखते हैं बोर्खेस और पप्पू भैया में से किसका पलड़ा भारी बैठता है....

Saturday 19 March 2011

होली पर ऐंवें ही....



बने कविता नहीं अगर तो

लिखो ऊट-पटाँग

जो ज्ञान की बातें फांके

खींचो उसकी टांग

पढ़ा ज्ञान सब धरा रह गया

नहीं लगा कुछ हाथ

अब तू बैठा रह गया

झुका शर्म से माथ

रोना रोते रोते जब

भर जाये तालाब

तालाब में मच्छी पकड़ो

ऊँचे देखो ख्वाब

फूले सेमल टेसू फूले,

फूले अपनी तोंद,

झूले भंवरे फूलों ऊपर

भौंक सिपहिया भौंक

मुंह तो काला हो ही जाये

असमानी हों बाल

नाम ख़ाक रोशन करेंगे

अपने जैसे लाल

रंग गुलाल अबीर उड़े और

रहे नहीं कुछ होश,

अबकी होली ऐसे खेलो

हिरन और खरगोश...

सबको होली मुबारक !


चश्मे वाली फोटो अपनी है और दूसरी दोस्त की...

...

Friday 25 February 2011

एक्झोटिक होने का सुख...


एक शब्दकोष से exotic का मतलब: : strikingly, excitingly, or mysteriously different or unusual
जब से महानगरीय जिन्दगी की छाया पड़ी है, जीवन कुछ ज्यादा ही फिल्मी लगने लगा है। क्लास जाते हुए लगता है मानों शहसवार मैदाने-जंग की ओर भारी कदमों से बढ़ रहा है, उसके मन में डर भी है लेकिन गर्व से सीना ताना हुआ है, आज कितने भी पिरोफेसर आ जायें, कित्ता भी मध्ययुगीन साहित्य सर पर लाद दिया जाए मैं कर्तव्यपालन से पीछे नहीं हटूंगा। कैम्पस में बेमतलब भटकते हुए लगता है कि सारे कवि-साहित्यकारों का जीवन आप खुद जी रहे हैं, और इसी बेमतलब रगड़ने से आदमी की दार्शनिकता का जन्म होता है, सार यह कि बोरियत दार्शनिकता की जननी है।
जिस दिन खाने में कढ़ी हो उस दिन शहीदाना अंदाज़ में ढाबों के आस-पास भटकते हुए लगता है कि जीवन कोई हंसी खेल नहीं..
परीक्षा के दिनों में तो सूरत वास्तव में योद्धाओं जैसी होती है, कोई जान पहचान वाला कुछ पूछे उससे पहले ही तड़ाक से कह दिया जाता है, कि भाई साहब परीक्छा चल रई हे अब बताओ का करें,कल जा बिसय को पेपर है, परसों बा बिसय को... ओर बा फलानी मेडम ने तो दिमागई खराब कर डारो... जित्ता पढाबे हे बासे डेढ़ गुना पूछेगी....
लेकिन सबसे ज्यादा जो असर या कहें कि विकृति आयी है वह है एक्झोटिक दृष्टि... एक्झोटिक दृष्टि से यह होता है कि आप अपनी आस-पास के नकली वातावरण को असलियत समझते हैं और ज़मीनी हकीकत को एक्झोटिक।
नतीजा ये कि बन्दा गाँव जाता है, तो सबसे पहले तो उसे पेड़ एक्झोटिक लगते हैं, फिर जानवर। खुदा ना खास्ता किसी गाय को दुहे जाते हुए देख लिया तो लोग कैमरा निकाल कर फोटो खींचने लगते हैं, अगर ठण्ड में अलाव दिख गया तो मध्यमवर्गीय मन खुशी से उछल उछल जाता है..और हालाँकि अपने महंगे कपड़ों की चिंता करते हुए उन्हें राख और चिंगारियों से बचाते हुए पसर तो नहीं पाता, लेकिन उकडूं बैठे बैठे ही किसी तरह हाथ सेंक कर वह अतीत में गोते लगाने लगता है... अगर गर्मी की रात हो और साफ़ आसमान, तो अचानक एक्झोटिक तारे नज़र आने लगते हैं, और 'हाउ क्यूट' कहते हुए लोग गालों पे हाथ रख लेते हैं...
ये तो हुई चीज़ों की बात, सबसे महान एक्झोटिक अनुभव लोगों को लोगों से बात करते हुए होता है। अगर खड़ी बोली के अलावा कोई बोली बोलने वाला कोई खालिस देहाती मिल गया तब तो हमारे नायक का दिल बल्लियों उछलने लगता है वह तोड़-मरोड़ कर उसी बोली में बे-सिरपैर के प्रश्न पूछने लगता है और मन में सोचता है कि वह एक महान युगपरिवर्तनकारी मानवशास्त्रीय-समाजशास्त्रीय (anthropoligical -sociological) प्रयोग का हिस्सा बन रहा है। लोगों को नदी में नहाना महान क्रांतिकारी काम लगता है, हालांकि दिशा-मैदान अगर जंगल में जाना पड़े तो प्रयोगधर्मिता की इतिश्री हो जाती है।
लेकिन कभी कभार मक्का की रोटी तोड़ते हुए अचानक तड़ित प्रहार की तरह नायक को समझ आता है, कि ये सब एक्झोटिक नहीं, मैं एक्झोटिक हूँ, मैं असामान्य हूँ, क्योंकि मैं जो अपनी सुरक्षित-सुविधासंपन्न आधुनिक ज़िंदगी जी रहा हूँ, ये खोखली है.... इसमें कोई महक नहीं है, कोई किस्से कहानी नहीं हैं, उल्लास नहीं है, यहाँ तक कि ज़िंदा होने का मतलब भी नहीं है, सब एक महान प्रपंच का हिस्सा है जो हम तथाकथित 'समझदारों' ने अपने मन-बहलाव के लिए गढ़ रखा है। प्रकृति 'एक्झोटिक' नहीं है, वह स्वाभाविक है, हम लोगों ने अपनी ज़िंदगी से प्रकृति और स्वाभाविकता को दोनों को गायब कर रखा है, इसलिए हमें exotic destinations की जरूरत पड़ती है। अगर हम अपने आप को प्रकृति और समाज से जोड़ कर देखेंगे तो सारी एक्झोटिकता पल में गायब हो जायेगी और अकल ठिकाने आ जायेगी..
(मैंने कहा था , बोरियत दार्शनिकता की जननी है, इस दार्शनिक पोस्ट से यह सिद्ध हो गया !)
आदतन फोटो गूगल इमेज से चुराया हुआ है..

Tuesday 8 February 2011

सकल बन फूल रही सरसों..





अध्यात्म और मेरा हमेशा छत्तीस का आंकडा रहा है, कुछ का कहना है कि अभी तुम्हारी उम्र नहीं है समझने की। अपन को कुछ समय पहले तक तो कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता था जब बात कुछ दार्शनिक और गहरी हो चली हो..यही कारण है कि उपन्यास छोड़ कर गिनी-चुनी चीजें ही पढ़ी हैं।
खैर वाकया यह है कि कुछ दोस्तों के साथ हजरत निज़ामुद्दीन की दरगाह जा पहुंचा परसों, वहाँ 'बसंत' मनाया जा रहा था। यह जानकारी फेसबुक से मिली.
इसके मनाने के पीछे कहानी यह है कि एक बार हजरत निजामुद्दीन अपने भतीजे कि मौत से गहरी उदासी और शोक में डूब गए ..न किसी से मिलते थे, न बात करते थे, न मुस्कुराते थे। यह देख कर अमीर खुसरो, उनके सबसे प्यारे मुरीद बहुत परेशान थे..इसी उधेड़बुन में कहीं जा रहे थे कि देखा कि कुछ औरतें चटख पीले कपडे पहने कुछ गीत गाती हुई जा रही थीं। खुसरो ने पड़ताल की तो पता चला कि यह बसंत मनाया जा रहा है।
अब खुसरो ने अपने प्यारे औलिया को मनाने के लिए अन्य मुरीदों के साथ वही बसन्ती बाना ओढा..और उन्ही गानों को अपनी तर्ज पर गाते हुए उदास संत के पास पहुंचे. जब महीनों से गम में डूबे हजरत ने अपने मुरीदों का ये लिबास देखा और उनके गाने सुने तो कई दिनों में पहली बार उनके चेहरे पर मुस्कान खिल उठी और उन्होंने अपने प्यारे शिष्य और दोस्त को गले लगा लिया।
वो दिन था और आज का दिन..हर साल बसंत पंचमी के मौके पर हजरत निज़ामुद्दीन औलिया के दीवाने सरसों के रंग का दुपट्टा ओढ़कर उनके दरबार में सरसों के फूल लेकर हाजिर होते हैं, और अपने दरवेश को बसन्ती गाने सुनाते हैं।
सूफी परंपरा को लेकर जो कुछ मालूम है, वह स्कूली किताबों के पन्नों से ही आया है, और ईश्वर की प्रेमिका-रूप में कल्पना-वन्दना, इश्क हकीकी और इश्क मजाजी, इंसानों की आपसी मोहब्बत पर जोर देना आदि बातें दिमाग में कुछ खाली शब्दों के रूप में ही मौजूद थी।
मन में कुछ बेजोड़ सूफी गायकी सुनने का लालच लिए पहली बार निजामुद्दीन दरगाह पहुंचा..एक संकरी गली से होते हुए दरगाह के बाहर पहुँचते ही, फूल चढ़ाइए, चादर चढ़ाइए, प्रसाद चढ़ाइए की आवाजें देते हुए दुकानदार दिखाई दिए। हर बड़े मंदिर, मस्जिद और मज़ार की तरह यहाँ भी श्रद्धा और आस्था के कारण कितने ही लोगों की आजीविका चलती है। एक बेंत की डलिया में फूल, प्रसाद और अगरबत्ती लिए हम तीन अन्दर पहुंचे। काफी लोग थे पर फिर भी वैसी घबरा देने वाली भीड़-भाड़ नहीं थी जैसी हो सकती थी। मैंने चुपचाप मत्था टेका, फूल चढ़ाए और एक धागा भी बांधा। लेकिन क्या माँगू ये समझ में नहीं आया... हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि....
बचपन से ही जब भी भूले-भटके मंदिर-मजार-गुरुद्वारे में घुसा तो हाथ जोड़ दिए, मत्था टेक दिया और कभी टीका भी लगवा लिया। सबसे अलग नज़र न आऊँ इसीलिए चुपचाप सर झुका लेता था ..प्रसाद का लालच भी रहता था। लेकिन मन में पक्का विश्वास कभी नहीं हुआ कि इस सब का अपने जीवन पर कोई प्रत्यक्ष असर होता भी है। हाईस्कूल में परीक्षा के दिनों में कसबे के बाहर बजरंग मंदिर पर भीड़ बढ़ जाती थी। इसी बहाने हवाखोरी और टहलना भी हो जाता था, दोस्तों के लिए एक प्लस पॉइंट ये भी था कि सहपाठिनें भी मंदिर आया करती थीं। अपन ने वहां नारियल भी फोड़े कई और आरती भी करवाई।
बहरहाल हम दरगाह के आँगन में जा बैठे और लोगों को देखने लगे, कुछ देर बाद मुरीद या कव्वाल दाखिल हुए और चटख सरसों के रंग के दुपट्टे बांटे गए जो ख़ास लोगों को ही दिए गए... कुछ बच्चे थे हाथ में सरसों के फूल लिए हुए। आदमी औरत सब इकठ्ठा थे, और गाना शुरू हुआ। पहले मज़ार के अन्दर और फिर बाहर करीब बीस कव्वालों ने समाँ बाँध दिया। इनमे पांच साल से लेकर पचास साल के कव्वाल शामिल थे। पता चला कि कच्ची उम्र से ही ये शागिर्द गाना सीखते हैं.
जब स्वर उठते थे तो मानों लहर सी आती थी, चूंकि एक ही पंक्ति को अलग अलग गायक आगे-पीछे दोहराते थे, खींचते थे और उससे खेलते थे। अपने आप हाथ ताल देने लगे और गर्दन झूमने लगी। अपनी तथाकथित बौद्धिकता हवा हो गयी...और मन मयूर बसन्ती ताल पर नाचने लगा...
लेकिन यह करीब दस पंद्रह मिनट ही चला, फिर वे खुसरो की मज़ार पर गए। खुसरो, जिसने 'हिन्दी' कविता और हिदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की नींव रखी और जो आज भी अपने हरदिल अज़ीज़ गुरु से कुछ गज दूरी पर ही लेटा हुआ है...
एक घंटे में कार्यक्रम ख़त्म हुआ, जिस दौरान फोटो भी खींचे गए और कुछ 'पहुंचे हुए' लोग भी पहुंचे थे। जब मैं खुसरो की कब्र पर सर नवा रहा था तो मैंने एक औरत को देखा जाली के पार रो रही थी..और 'मेरे ख्वाजा' को संबोधित कर अपने दर्द बयान कर रही थी।
मैं अपने मन में यही सोचता हुआ वापस अपनी आधुनिक दुनिया में लौटा, कि काश मुझे भी इतना विश्वास किसी पीर पर होता कि मैं अपनी पीर उससे बयाँ कर लेता।
सूफी मत का वह प्यार जो किसी अमूर्त के प्रति है, वह मानव-मात्र से प्रेम में बदल जाता है, और भाव-विह्वल कर देता है। क्या आस्था को सिर्फ अंधविश्वास, कर्मकांड और पाखण्ड से परिभाषित किया जा सकता है?

इससे ज्यादा गहरे जाऊंगा नहीं, अभी मेरी उम्र नहीं है.... :)
सकल बन फूल रही सरसों
(दोनों फोटो अपनी दोस्त के मोबाइल कैमरे के हैं)

Monday 31 January 2011

प्रेम कविता



पिछली पोस्ट पर कुछ अपनों की ही लानत-मलामत आयी है, कि व्यंग्य लिखना ही है तो कुछ गहराई से लिखो, जिससे कुछ निकल कर आये. सोचने पर मुझे भी लगा कि मैंने कोई बहुत गंभीरतापूर्वक नहीं लिखा था, बस दिल की भड़ास निकाली थी. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या ब्लॉग पर अपनी भड़ास नहीं निकाली जा सकती? सिर्फ इसलिए कि वह 'सार्वजनिक' मंच है. खैर अपन अभी कोई इत्ते तीसमारखां है भी नहीं कि किसी को फर्क पड़े, सो जो मन में आएगा लिखा करेंगे...
फिलहाल अपनी एकमात्र टूटी-फूटी नौसिखिया-नुमा प्रेम-कविता लगा रहा हूँ, जो करीब छह महीने पहले लिखी थी.

प्रेम कविता,
प्रेम कविता कैसे लिखूं?
कैसे करूँ बयाँ?
जो भरा है मन में, जो उमड़ आता है गले तक,
जो छलक आया है चेहरे पर, ज़िंदगी में,
कुछ लफ्ज़, कुछ पक्तियां,कुछ पृष्ठ,
या कुछ नहीं,
उपमाएं, रूपक
कुछ भी तो नहीं,
कोई गीत जो गुनगुना सकूं तुम्हे याद करते हुए,
लिख बैठूं कुछ ऐसा जो पहले न लिखा गया हो,
हमारे बीच जो कुछ है,
या अनुपस्थित है उसे आकार दूं.
उतार दूं कागज़ पर,
दूरियों और नजदीकियों के नक़्शे,
बस अब हार बैठा मैं,
फेंक कर कागज़ कलम,
कर ली हैं बंद आँखें
और तुम्हारा मुस्कुराता हुआ चेहरा सामने है,
कविता प्यार की न लिखी जायेगी आज.

Saturday 29 January 2011

'यमुना तट पर लेनिनवा बंसी बजाए रे'

ये पोस्ट 'असुर' के लिए है, जिनके एक व्यंग्य गीत से इसका विचार उपजा.
सुबह जब रामभरोस काम पर जाने के पहले रोटी खा रहा था, तो उसकी औरत ने उससे पूछा..."सुनो, जे असली क्रांतिकारी कौन है?" रामभरोस ने अपने हाथ का कौर रोककर कहा अरे का बात करती हो? दूर लाल देश में लाल किताब में लिखे को जो लाल कोठी में बैठे-बैठे बांचत हैं, वही असली क्रांतिकारी हैंगे , इस पर सुमरती ने मुंह बिचकाया ओर कहा हटो..आप तो हर चीज़ को हलके-फुल्के में लेत हो..मेरी समझ में तो जो एकई जगह पर बैठ के पूरे देश-दुनिया की क्रान्ति को भविष्य बता दे वही क्रांतिकारी वास्तव में दमदार होत है. ओर हाँ सुनो ज़रा बाजार से आलू-प्याज लेते अइयो.., इस पर रामभरोस भड़क उठा, "अरे ओ क्रान्ति की अम्मा.. प्याज कहाँ से लाऊं? प्याज खरीदने जितनो बैंक बैलेंस नहीं है मेरो . तू खुद ही देख लइयो, जब खेत की तरफ जाएगी" . यह कहकर मन ही मन माओ का भजन करता हुआ वह मजदूरी करने चल पडा.
इधर सुमरती ने भी झटपट तगाड़ी उठाई...और 'यमुना तट पर लेनिनवा बंसी बजाए रे' गुनगुनाती हुई खेत को चली, रस्ते में उसे रामप्यारी मिल गयी, रामप्यारी ने बातों ही बातों में उससे पूछ लिया, कि द्वंदात्मक भौतिकवाद का जो त्रोत्स्कीवादी स्वरुप है उस पर उसके क्या विचार हैं, साथ ही बबलू के ताऊ की लम्बी बीमारी पर भी बात हुई, सुमरती ने पसीना पोंछते हुए कहा... 'देख री, मोहे गलत मत समझियो, पर जे त्रोत्स्की वाले लच्छन हमें कोई ठीक न लगत हैं, हम तो जेई कहें कि जा कछु वा बड़ी किताब में लिखौ है, बई होगो. अब होनी को कोई टार सकत है? अब तुमई बताओ, हमरी भूरी गैया २ किलो दूध देत थी, मगर हमने कितनो इलाज कराओ...पर बेचारी चल बसी'.... एक गहरी उसांस भर दोनों ने अपनी अपनी राह ली.
इधर भूरी, लखन, सुरेश और साबित्री क्रांति-क्रांति खेल रहे थे... इसी बीच भूरी ने लखन को धक्का देकर गिरा दिया, जिससे लखन गुस्से से आग-बबूला हो गया और बोला..-मेंहे तो पेले सेइ पता थो, कि तू प्रतिक्रांतिकारी बुर्जुआ जासूस हैगी .. तू पेटी बुर्जुआ भी है और तेरी नाक भी बह रही है. इस पर भूरी का भाई चमक कर बोला 'तू भी तो कुलक हैगो, निक्कर तो संभाल नई सकत, बड़ो आओ क्रांतिकारी' ! और इस तरह अचानक, क्रांतिकारी और बुर्जुआ ताकतों में संघर्ष छिड़ गया... गुलेल की नली से क्रांति निकलने को ही थी की माँ-बाप ने आकर उन्हें छुड़ाया...
और इस तरह महान क्रान्ति का एक और नया अध्याय लिखते लिखते रह गया.

Monday 24 January 2011

एक सामाजिक मुलाक़ात

तुम खिसियाए से कुछ बात उठाते हो
और हम दोनों ठठाकर हंस पड़ते हैं
मैं अपनी कोहनी निहारता हूँ,
कान खुजाता हूँ,
पैर हिलाता हूँ,
पास बैठे अजनबी को घूरता हूँ
फिर डरते डरते तुम्हारी ओर देखता हूँ,
तब तक तुम्हे अगला चुटकुला याद आ गया है,
मैं राहत के साथ उसे लपक लेता हूँ
हम बारी बारी से मौसम को गलियाते हैं,
तुम खींसे निपोरते हो, मैं खिखियाता हूँ..
और हम बरसाती जमे पानी पर जमाई गयी
ईंटों की तरह कूद कूद कर बात-चीत में
आ गए असहज सन्नाटों को पार करते हैं..
फिर आखिरकार हमें वह ऐतिहासिक काम
याद आ जाता है, जो हमारी मदद के लिए
अरसे से कोने में छपा था...
और घड़ी देखते हुए हम विदा लेते हैं..
चाशनी सी मुस्कान लिए..
मैं पीछे मुड़कर देखता भी हूँ,
कभी कभी तुम्हारी परछाई को
और घर की ओर रपटते हुए सोचता हूँ
कि अगर प्याज की तरह हमारे छिलके उतर जाएँ
तो क्या हम दोनों एक दुसरे की गंध बर्दाश्त कर पाएंगे?

Saturday 22 January 2011

आस

जश्न-ए-ज़िंदगी देखते हैं तमाशबीन की तरह,
और चुपचाप खिसक लेते हैं उस वीराने की ओर,
जहां छुपा कर रखे हैं कुछ सपने बड़े जतन से
और ढँक दी है तन्हाई की चादर बेरंगी सी..
जो वो हवा का काफिर झोंका आ निकला कभी
भूले भटके इस सूने दयार में भी,
उड़ा चादर ये सपने भी जवां होंगे
आसमाँ में खुले-आम बयाँ होंगे
और फिर हम भी इस यक-ब-यक खूबसूरत दुनिया में
बेघर नहीं बा-मकाँ होंगे.