Friday 8 April 2011

मुझे असंभव, एकाकी सपनों में जीना है..

ज़िंदगी बहुत ठोस खुरदुरी और पथरीली
धरती गड़ती मेरे पांवों में,
यथार्थ घेर लेता मुझे अकेला पाकर
खड़ी कर देता दीवारें, पिंजरे
मन पंछी के लिए,
दिन-ब-दिन कितने दिन ले आते खींचकर
किस्से अनेक, अनेक अजनबी,
टटोलता खंगालता संभावनाओं को मैं,
सोचता बातें अनकही-अनबनी-अधबनी,
झल्लाता नाहक, अपनी सीमाओं के जाल
को झकझोरता,
पर अब ख़्वाब भी बोझिल-झिलमिल पलों
की कड़ी में पिरोना है,
किसी अकेली धुंधली भोर में, जब खटरागी
मेले- झमेले सो रहे हों,
कुछ सोचकर-बटोरकर,
फिर अव्यक्त आशा-उल्लास से भर जाना है,
मैं न भागूंगा समय और परिस्थितियों से,
लेकिन तुम यह जान लो, कि अब
चुपके-चुपके,
मुझे असंभव, एकाकी सपनों में जीना है

3 comments:

  1. "सुपर लाईक" का बटन किथ्थे है?

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  2. bahut achche. dadaji bhi khush aapki pragti dekh kar.

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  3. Bahut khoob...asambhav sapnoan mein jeeney waaley hee asli maayney mein paristithiyoan se takkar ke paatey haen!

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