Sunday 24 April 2011

मन-सुरंग

कभी कभार भीड़ भरी गलियों में एकांत कहीं ज्यादा जीवंत हो उठता है और कभी कभी एकांत में ख्यालों की भीड़ चैन नहीं लेने देती. ढर्रों पर टिकी ज़िंदगी के फर्श में दरारें ही दरारें हैं, जिनमे झांकते डर लगता है. सालों साल किसी अँधेरे, छुपे कोने से लोगों और चीज़ों को ताकते रहने का अनुभव अंतर्मन को पपड़ीदार बनाने के लिए काफी है.
गीत हैं, हर एकाकी क्षण के साथी. गुनगुनाना प्रार्थना नहीं है, न ही चुटकुला, वह तो बस एक और आदत है, अलबत्ता आदतों में इसकी जगह बहुत ऊपर है.
भटकना जगहों से जगहों तक, विषयों से विषयों तक, चेहरों से चेहरों तक और आवाज़ों से आवाज़ों तक, हर एक ठिठकन अगली भटकन की भूमिका भर है,
अरमान भी हैं, लेकिन वो बड़े पाजी गिरगिट हैं,
उम्मीद हर अगली परछाई में है, वह मरीचिकाओं में अठखेलियाँ करती है... वह रेगिस्तानों में इन्द्रधनुषों की तस्वीर है, वह किसी सरकारी स्कूल की बाउंड्री वाल पर उगता पीपल है. वह पतंग है...जो आसमानों में डूब उतरा रही है,
मैं ढील दिए जा रहा हूँ, मेरी गर्दन अकड़ गयी है, प्यास से गला भी सूख रहा है, आँखों में सूरज जल रहा है ...

Friday 8 April 2011

मुझे असंभव, एकाकी सपनों में जीना है..

ज़िंदगी बहुत ठोस खुरदुरी और पथरीली
धरती गड़ती मेरे पांवों में,
यथार्थ घेर लेता मुझे अकेला पाकर
खड़ी कर देता दीवारें, पिंजरे
मन पंछी के लिए,
दिन-ब-दिन कितने दिन ले आते खींचकर
किस्से अनेक, अनेक अजनबी,
टटोलता खंगालता संभावनाओं को मैं,
सोचता बातें अनकही-अनबनी-अधबनी,
झल्लाता नाहक, अपनी सीमाओं के जाल
को झकझोरता,
पर अब ख़्वाब भी बोझिल-झिलमिल पलों
की कड़ी में पिरोना है,
किसी अकेली धुंधली भोर में, जब खटरागी
मेले- झमेले सो रहे हों,
कुछ सोचकर-बटोरकर,
फिर अव्यक्त आशा-उल्लास से भर जाना है,
मैं न भागूंगा समय और परिस्थितियों से,
लेकिन तुम यह जान लो, कि अब
चुपके-चुपके,
मुझे असंभव, एकाकी सपनों में जीना है

Sunday 3 April 2011

हाफ पैंट में जादुई यथार्थवाद



अप्रैल का महीना है, गाँव शहरों, सुनसान गलियों और व्यस्त बाज़ारों में फिर धूल उड़ने लगी है। उपमहाद्वीप की चार महीने की अभूतपूर्व गर्मी जल्द ही अपनी पूरी प्रचंडता के साथ आ पहुंचेगी। कैम्पस में बोगनवेलिया के फूल छाए हुए हैं और पेड़ों से गिरे पत्ते मुंह और बालों से उलझते फिरते हैं.. दोपहर को अब वही चिरपरिचित सन्नाटा चुपचाप आकर घेर लेता है, जो बचपन से ही हर गर्मी दिलो-दिमाग पर घर कर लेता है।
मैं अगर अब किसी दोपहर आँख बंद कर लूं तो मैं उसी धूल भरे गाँव के किसी घर में चुपचाप अपने आप से कंचे खेलता पाया जाऊंगा, जहां अधिकाँश माँ-बाप सो रहे हैं, और कुछ किसी कोने में बैठ कर चुप-चाप कुछ गप-शप कर रहे हैं। लू के साथ धूल के बवंडर उठाते हैं जो मिट्टी की दीवारों और नन्हे दरवाजों को हराकर घरों के अन्दर तक घुस जाते हैं। माँ-बाप की बाहर न जाने की सख्त हिदायत को जीवन का एक अभिन्न निंदनीय अंग मानते हुए चांडाल-चौकड़ी चुप-चाप बेआवाज़ घरों से बाहर निकल आती है, और फिर या तो पेड़ों से कैरी तोडना या फिर कंचे, पत्ते, छुपन-छुपाई, पिट्टू (सितौलिया) या कोई और खेल खेलना, यही परम धर्म है। और जब भोंपू की आवाज़ कानों तक पहुँचती तो फिर एक रुपये वाली पनीली तथाकथित 'कुल्फी' का अविराम सेवन करना, जिससे पीलिया और हैजा होने की अपार संभावनाएं जताई जाती हैं।
तब ये नहीं पता था कि इंसानी ज़िंदगी में इतने दांव-पेंच होते हैं। तब किसी शाम को यह संभावना नहीं होती थी कि आप इस पर विचार करें कि बोर्खेस में जादुई यथार्थवाद किस तरह परिलक्षित होता है। तब जादुई यथार्थवाद किताबों में खोजना नहीं पड़ता था, वह तो दैन्दिनी ज़िंदगी का हिस्सा था... जब गाँव से स्कूल की और चलते थे तो मुझे याद पड़ता है कि हम सभी जादुई यथार्थवाद के बहुत बड़े समर्थक और प्रचारक हुआ करते थे। (हालाँकि नोबेल कमेटी को हमारी प्रतिभा जानने में अभी वक़्त लगेगा) मुझे याद पड़ता है कि मैंने घर से स्कूल की ओर चलते हुए जादुई यथार्थवादी एक कहानी बनाई थी, जिसमें हमारे ही गाँव के एक लड़के को आंधी उड़ाकर एक किलोमीटर दूर ले गयी थी, और चूंकि उस प्रकार के बवंडर (भंगुरिया) का केंद्र एक भूत माना जाता था, अतः उसके बाद भूत और लड़के की बातों का विषद चित्रण और तत्पश्चात उस लड़के के छूटने का प्रसंग बताया गया था, और चूंकि कथा नायक एक जीता जागता लड़का था. (जो सौभाग्य से उस वक़्त गवाही देने के लिए उपलब्ध नहीं था) अतः हमारे साथी आलोचकों ने न केवल इस कथा पर पूरा विश्वास किया बल्कि उसे हाथों-हाथ लिया।
किस्से-कहानी इतने थे कि ख़त्म होने का नाम नहीं लेते थे और आज अगर याद करने बैठूं तो उन कहानियों की बहुत धुंधली सी ही याद है, विजयदान देथा जी की लोक-कथाओं से कुछ मिलती जुलती होती थीं वो। शायद अब भी जाकर गाँव में किसी अलाव के पास ठण्ड में बैठूं या गर्मी में किसी आम के पेड़ के नीचे, तो फिर उन्हें जी सकूंगा, लेकिन अब मेरा सिनिकल दिमाग शायद उन्हें एक वयस्क पढ़ी-लिखी नज़र से देखेगा। उनका साहित्यिक मूल्यांकन और तारीफ तो अब मैं कर सकता हूँ, लेकिन अब मैं विश्वास कैसे करूंगा कि धूप में बारिश होने पर लड़ैया(सियार) की शादी होती है...
अब जब कभी तालाब के किनारे बैठे हों और पुराने यार-दोस्त मिलते हैं तो यही बातें होती हैं रोजी-रोटी हालचाल की, उनमे से ज्यादातर अब मेहनत-काम धंधे से लग गए हैं, और अपन यूनिवर्सिटी में बैठकर किताबें चाट रहे हैं।
सोचता हूँ इस बार जब गर्मी में घर जाऊंगा तो जाकर जुगन दादा की डैम के पास वाली टपरिया में बैठकर जादुई यथार्थवाद पर विचार करूंगा, देखते हैं बोर्खेस और पप्पू भैया में से किसका पलड़ा भारी बैठता है....