Friday 25 February 2011

एक्झोटिक होने का सुख...


एक शब्दकोष से exotic का मतलब: : strikingly, excitingly, or mysteriously different or unusual
जब से महानगरीय जिन्दगी की छाया पड़ी है, जीवन कुछ ज्यादा ही फिल्मी लगने लगा है। क्लास जाते हुए लगता है मानों शहसवार मैदाने-जंग की ओर भारी कदमों से बढ़ रहा है, उसके मन में डर भी है लेकिन गर्व से सीना ताना हुआ है, आज कितने भी पिरोफेसर आ जायें, कित्ता भी मध्ययुगीन साहित्य सर पर लाद दिया जाए मैं कर्तव्यपालन से पीछे नहीं हटूंगा। कैम्पस में बेमतलब भटकते हुए लगता है कि सारे कवि-साहित्यकारों का जीवन आप खुद जी रहे हैं, और इसी बेमतलब रगड़ने से आदमी की दार्शनिकता का जन्म होता है, सार यह कि बोरियत दार्शनिकता की जननी है।
जिस दिन खाने में कढ़ी हो उस दिन शहीदाना अंदाज़ में ढाबों के आस-पास भटकते हुए लगता है कि जीवन कोई हंसी खेल नहीं..
परीक्षा के दिनों में तो सूरत वास्तव में योद्धाओं जैसी होती है, कोई जान पहचान वाला कुछ पूछे उससे पहले ही तड़ाक से कह दिया जाता है, कि भाई साहब परीक्छा चल रई हे अब बताओ का करें,कल जा बिसय को पेपर है, परसों बा बिसय को... ओर बा फलानी मेडम ने तो दिमागई खराब कर डारो... जित्ता पढाबे हे बासे डेढ़ गुना पूछेगी....
लेकिन सबसे ज्यादा जो असर या कहें कि विकृति आयी है वह है एक्झोटिक दृष्टि... एक्झोटिक दृष्टि से यह होता है कि आप अपनी आस-पास के नकली वातावरण को असलियत समझते हैं और ज़मीनी हकीकत को एक्झोटिक।
नतीजा ये कि बन्दा गाँव जाता है, तो सबसे पहले तो उसे पेड़ एक्झोटिक लगते हैं, फिर जानवर। खुदा ना खास्ता किसी गाय को दुहे जाते हुए देख लिया तो लोग कैमरा निकाल कर फोटो खींचने लगते हैं, अगर ठण्ड में अलाव दिख गया तो मध्यमवर्गीय मन खुशी से उछल उछल जाता है..और हालाँकि अपने महंगे कपड़ों की चिंता करते हुए उन्हें राख और चिंगारियों से बचाते हुए पसर तो नहीं पाता, लेकिन उकडूं बैठे बैठे ही किसी तरह हाथ सेंक कर वह अतीत में गोते लगाने लगता है... अगर गर्मी की रात हो और साफ़ आसमान, तो अचानक एक्झोटिक तारे नज़र आने लगते हैं, और 'हाउ क्यूट' कहते हुए लोग गालों पे हाथ रख लेते हैं...
ये तो हुई चीज़ों की बात, सबसे महान एक्झोटिक अनुभव लोगों को लोगों से बात करते हुए होता है। अगर खड़ी बोली के अलावा कोई बोली बोलने वाला कोई खालिस देहाती मिल गया तब तो हमारे नायक का दिल बल्लियों उछलने लगता है वह तोड़-मरोड़ कर उसी बोली में बे-सिरपैर के प्रश्न पूछने लगता है और मन में सोचता है कि वह एक महान युगपरिवर्तनकारी मानवशास्त्रीय-समाजशास्त्रीय (anthropoligical -sociological) प्रयोग का हिस्सा बन रहा है। लोगों को नदी में नहाना महान क्रांतिकारी काम लगता है, हालांकि दिशा-मैदान अगर जंगल में जाना पड़े तो प्रयोगधर्मिता की इतिश्री हो जाती है।
लेकिन कभी कभार मक्का की रोटी तोड़ते हुए अचानक तड़ित प्रहार की तरह नायक को समझ आता है, कि ये सब एक्झोटिक नहीं, मैं एक्झोटिक हूँ, मैं असामान्य हूँ, क्योंकि मैं जो अपनी सुरक्षित-सुविधासंपन्न आधुनिक ज़िंदगी जी रहा हूँ, ये खोखली है.... इसमें कोई महक नहीं है, कोई किस्से कहानी नहीं हैं, उल्लास नहीं है, यहाँ तक कि ज़िंदा होने का मतलब भी नहीं है, सब एक महान प्रपंच का हिस्सा है जो हम तथाकथित 'समझदारों' ने अपने मन-बहलाव के लिए गढ़ रखा है। प्रकृति 'एक्झोटिक' नहीं है, वह स्वाभाविक है, हम लोगों ने अपनी ज़िंदगी से प्रकृति और स्वाभाविकता को दोनों को गायब कर रखा है, इसलिए हमें exotic destinations की जरूरत पड़ती है। अगर हम अपने आप को प्रकृति और समाज से जोड़ कर देखेंगे तो सारी एक्झोटिकता पल में गायब हो जायेगी और अकल ठिकाने आ जायेगी..
(मैंने कहा था , बोरियत दार्शनिकता की जननी है, इस दार्शनिक पोस्ट से यह सिद्ध हो गया !)
आदतन फोटो गूगल इमेज से चुराया हुआ है..

Tuesday 8 February 2011

सकल बन फूल रही सरसों..





अध्यात्म और मेरा हमेशा छत्तीस का आंकडा रहा है, कुछ का कहना है कि अभी तुम्हारी उम्र नहीं है समझने की। अपन को कुछ समय पहले तक तो कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता था जब बात कुछ दार्शनिक और गहरी हो चली हो..यही कारण है कि उपन्यास छोड़ कर गिनी-चुनी चीजें ही पढ़ी हैं।
खैर वाकया यह है कि कुछ दोस्तों के साथ हजरत निज़ामुद्दीन की दरगाह जा पहुंचा परसों, वहाँ 'बसंत' मनाया जा रहा था। यह जानकारी फेसबुक से मिली.
इसके मनाने के पीछे कहानी यह है कि एक बार हजरत निजामुद्दीन अपने भतीजे कि मौत से गहरी उदासी और शोक में डूब गए ..न किसी से मिलते थे, न बात करते थे, न मुस्कुराते थे। यह देख कर अमीर खुसरो, उनके सबसे प्यारे मुरीद बहुत परेशान थे..इसी उधेड़बुन में कहीं जा रहे थे कि देखा कि कुछ औरतें चटख पीले कपडे पहने कुछ गीत गाती हुई जा रही थीं। खुसरो ने पड़ताल की तो पता चला कि यह बसंत मनाया जा रहा है।
अब खुसरो ने अपने प्यारे औलिया को मनाने के लिए अन्य मुरीदों के साथ वही बसन्ती बाना ओढा..और उन्ही गानों को अपनी तर्ज पर गाते हुए उदास संत के पास पहुंचे. जब महीनों से गम में डूबे हजरत ने अपने मुरीदों का ये लिबास देखा और उनके गाने सुने तो कई दिनों में पहली बार उनके चेहरे पर मुस्कान खिल उठी और उन्होंने अपने प्यारे शिष्य और दोस्त को गले लगा लिया।
वो दिन था और आज का दिन..हर साल बसंत पंचमी के मौके पर हजरत निज़ामुद्दीन औलिया के दीवाने सरसों के रंग का दुपट्टा ओढ़कर उनके दरबार में सरसों के फूल लेकर हाजिर होते हैं, और अपने दरवेश को बसन्ती गाने सुनाते हैं।
सूफी परंपरा को लेकर जो कुछ मालूम है, वह स्कूली किताबों के पन्नों से ही आया है, और ईश्वर की प्रेमिका-रूप में कल्पना-वन्दना, इश्क हकीकी और इश्क मजाजी, इंसानों की आपसी मोहब्बत पर जोर देना आदि बातें दिमाग में कुछ खाली शब्दों के रूप में ही मौजूद थी।
मन में कुछ बेजोड़ सूफी गायकी सुनने का लालच लिए पहली बार निजामुद्दीन दरगाह पहुंचा..एक संकरी गली से होते हुए दरगाह के बाहर पहुँचते ही, फूल चढ़ाइए, चादर चढ़ाइए, प्रसाद चढ़ाइए की आवाजें देते हुए दुकानदार दिखाई दिए। हर बड़े मंदिर, मस्जिद और मज़ार की तरह यहाँ भी श्रद्धा और आस्था के कारण कितने ही लोगों की आजीविका चलती है। एक बेंत की डलिया में फूल, प्रसाद और अगरबत्ती लिए हम तीन अन्दर पहुंचे। काफी लोग थे पर फिर भी वैसी घबरा देने वाली भीड़-भाड़ नहीं थी जैसी हो सकती थी। मैंने चुपचाप मत्था टेका, फूल चढ़ाए और एक धागा भी बांधा। लेकिन क्या माँगू ये समझ में नहीं आया... हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि....
बचपन से ही जब भी भूले-भटके मंदिर-मजार-गुरुद्वारे में घुसा तो हाथ जोड़ दिए, मत्था टेक दिया और कभी टीका भी लगवा लिया। सबसे अलग नज़र न आऊँ इसीलिए चुपचाप सर झुका लेता था ..प्रसाद का लालच भी रहता था। लेकिन मन में पक्का विश्वास कभी नहीं हुआ कि इस सब का अपने जीवन पर कोई प्रत्यक्ष असर होता भी है। हाईस्कूल में परीक्षा के दिनों में कसबे के बाहर बजरंग मंदिर पर भीड़ बढ़ जाती थी। इसी बहाने हवाखोरी और टहलना भी हो जाता था, दोस्तों के लिए एक प्लस पॉइंट ये भी था कि सहपाठिनें भी मंदिर आया करती थीं। अपन ने वहां नारियल भी फोड़े कई और आरती भी करवाई।
बहरहाल हम दरगाह के आँगन में जा बैठे और लोगों को देखने लगे, कुछ देर बाद मुरीद या कव्वाल दाखिल हुए और चटख सरसों के रंग के दुपट्टे बांटे गए जो ख़ास लोगों को ही दिए गए... कुछ बच्चे थे हाथ में सरसों के फूल लिए हुए। आदमी औरत सब इकठ्ठा थे, और गाना शुरू हुआ। पहले मज़ार के अन्दर और फिर बाहर करीब बीस कव्वालों ने समाँ बाँध दिया। इनमे पांच साल से लेकर पचास साल के कव्वाल शामिल थे। पता चला कि कच्ची उम्र से ही ये शागिर्द गाना सीखते हैं.
जब स्वर उठते थे तो मानों लहर सी आती थी, चूंकि एक ही पंक्ति को अलग अलग गायक आगे-पीछे दोहराते थे, खींचते थे और उससे खेलते थे। अपने आप हाथ ताल देने लगे और गर्दन झूमने लगी। अपनी तथाकथित बौद्धिकता हवा हो गयी...और मन मयूर बसन्ती ताल पर नाचने लगा...
लेकिन यह करीब दस पंद्रह मिनट ही चला, फिर वे खुसरो की मज़ार पर गए। खुसरो, जिसने 'हिन्दी' कविता और हिदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की नींव रखी और जो आज भी अपने हरदिल अज़ीज़ गुरु से कुछ गज दूरी पर ही लेटा हुआ है...
एक घंटे में कार्यक्रम ख़त्म हुआ, जिस दौरान फोटो भी खींचे गए और कुछ 'पहुंचे हुए' लोग भी पहुंचे थे। जब मैं खुसरो की कब्र पर सर नवा रहा था तो मैंने एक औरत को देखा जाली के पार रो रही थी..और 'मेरे ख्वाजा' को संबोधित कर अपने दर्द बयान कर रही थी।
मैं अपने मन में यही सोचता हुआ वापस अपनी आधुनिक दुनिया में लौटा, कि काश मुझे भी इतना विश्वास किसी पीर पर होता कि मैं अपनी पीर उससे बयाँ कर लेता।
सूफी मत का वह प्यार जो किसी अमूर्त के प्रति है, वह मानव-मात्र से प्रेम में बदल जाता है, और भाव-विह्वल कर देता है। क्या आस्था को सिर्फ अंधविश्वास, कर्मकांड और पाखण्ड से परिभाषित किया जा सकता है?

इससे ज्यादा गहरे जाऊंगा नहीं, अभी मेरी उम्र नहीं है.... :)
सकल बन फूल रही सरसों
(दोनों फोटो अपनी दोस्त के मोबाइल कैमरे के हैं)