Wednesday 24 December 2014

कुछ वक़्त और


कुछ वक़्त और

वक़्त ढहता गया
ताश के पत्तों का एक महल
जिस पर मैं खड़ा था
जिस पर मैनें खींच कर
तुमको ला खड़ा किया था
जिस पर सवार हम चले थे
अविश्वास, धोखे, अनिश्चितताओं
के पार
तुम आयी थी अपनी पक्की ज़मीन
छोड़ कर, ये लीप ऑफ़ फेथ था
कि हम उड़ते चले जायेंगे
कि हम बह चलेंगे आगे
और पीछे रह जायंगे दुनियावी मसले
समझौते, दिमागी पेंच,
तुमने थामा था मेरा चेहरा
मेरी आँखों में झाँका था
मैं हर बात में हाँ भरा करता था
मैं अपने लफ़्ज़ों में रहा करता था
मगर मेरी परतें
मुझ पर जमी धूल
उखड़ने लगीं, हवा से
जहां मैं खड़ा था
वह जगह तुम्हारा फूल सा
भार न सकी संभाल
मैनें हम दोनों को ला गिराया
अंधियारे में,
तुम मुझे नहीं देख सकती अब
तुम मुझे छू भी नहीं पा रही
तुम आहत हो, खफा हो
तुम अब मेरे बनाये दलदल में
धंसी हो और रुकी हो निश्चल
कहाँ मैं और कहाँ तुम
और कहाँ अपना रस्ता गुम
पर रुको, मत थामो वो रस्सी
जो तुम्हें निकाल बाहर वापस
असलियत और बोझिलता की ओर
खींचती चली जाएगी
मैं भी तो हूँ यहीं तुम्हारे साथ
मुझे तुम दिखती चमकती हो
मेरे अपार अंधियारे में
देखो यहां भी बस मैं और तुम हैं
मेरा भी सब कुछ पीछे छूटा है
जो कुछ मुझमें कलुषित था
वह मुझसे टूटा है
अब दोनों धीरे धीरे
आंसू से कालिख धो लेंगे
इस गहरे गड्ढे से निकलने ही को
साथ हो लेंगे
वक़्त जो गुजरा वो गुजरा
जो गुजरेगा वो गुजरेगा
कल अगर गड्ढा था
कल को सीढी भी हो जाएगा
शायद चलते चलते
अपना रस्ता
दिख जाए कहीं
चार दिन चार पल
बीत जाएँ यूँहीं
आखिर  दोनों ही तो हैं यहां
इस जगह
इस निहायत अकेलेपन में
शायद नफरत और प्यार में
बहुत पतली दीवार है
चलते चलते लांघ पाओ
तुम शायद कभी
इसलिए अभी तुम मत जाओ
रुक जाओ, थम जाओ
टाल जाओ अपने कड़े और सही फैसले
मैं हक़ से नहीं
उम्मीद से मांगता हूँ
और वक़्त
और अकेलापन हमारा
और सन्नाटे
खिलखिलाहट के इंतज़ार में.





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